गुरुवार, 15 नवंबर 2018

सांत्वना नागफनी है, गहरे भेदती है

कई बार भाग जाने का मन करता है। अकेलापन काटने दौड़ता है, किसी का साथ होना चुभता है।

लोग साथ हों तो बेचैनी, न हों तो अजीब सी चुभन। ठहाके हर बार अच्छे नहीं लगते, अपनी हंसी भी कई बार ख़राब लगती है।

ख़ुश होना चाहते हैं लेकिन हो नहीं पाते। सच है जो गया है उसे लाया नहीं सकता, फिर भी मन किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए रहता है।

इक उम्मीद कि जो बुरा सपना हम देख रहे हैं अचानक से टूट जाएगा। सब सपना है जिसे हम देखकर परेशान हो रहे हैं। आख़िर आंखें मूंदने पर हमारे आसपास दुनिया होती ही कहां है?

जगह बदलते ही उस जगह के होने का क्या प्रमाण रह जाता है।
शून्य, सब शून्य।

पर शून्य को मन मानता कहां है। थोड़ी सी चेतना मन पर भारी पड़ती है।

साहित्य हर बार दिलासा दे ज़रूरी नहीं, कई बार अवसाद भी देता है। गहरा।

कोई अच्छा नहीं लगता। ऐसा लगता है कि मन पर महादेवी का अधिग्रहण हो गया हो, तन निराला हो गया हो, जिसे कुछ भी सुधि नहीं।

कहानियां स्थिर मन से पढ़ी जा सकती हैं। कविताएं उद्विग्नता में नहीं समझ आतीं। दोनों स्थितियां जूझ रहीं हैं एक-दूसरे से।

मन कह रहा है सब बीत जाएगा। बुद्धि कह रही कि कुछ नहीं बीतता। जो बीत गया है, वह भूलता नहीं, जीवन बच्चन की कविता नहीं है, व्यवहार है।

धरातल पर आकर सिद्धांत बदल जाते हैं। टीस, पीर, मोह सच है, भूलना आदर्श स्थिति।
व्यवहार और आदर्श दो 'ध्रुव' हैं, जिन्हें कोई काल्पनिक रेखा नहीं मिला पाती।

......सांत्वना....दूसरों को देना कितना आसान है....ख़ुद के लिए नागफनी है। गहरे भेदती है।

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

दुनिया को हादसों की आदत हो गई है!



हादसों की आदत हो गई है. हादसे हर बार आंखों में ढेर सारा आंसू देकर चले जाते हैं.

अमृतसर हादसे में जिन लोगों की मौत हुई है उनकी तस्वीरें देखकर दिल थमा सा जा रहा है.

इतनी विभत्स तस्वीरें शायद ही पिछले दिनों में देखने को मिली हों.

बहुत डरावनी तस्वीरें हैं भीतर से कंपकंपा देने वाली.

दशानन का दहन हो रहा था, कइयों के आनन छिन्न-भिन्न हो गए. विभत्स तस्वीरें आ रही हैं. जिन्हें देखने के लिए साहस चाहिए.

यह प्रकृति की मार नहीं थी. न ही किसी आतंकी संगठन की पूर्वनियोजित हत्या. यह हादसा कैसे हुआ इसका अंदाजा उन लोगों भी नहीं जिनकी मौत हो गई.

रावण का पुतला अपने साथ कई जीवित लोगों को लेकर चला गया.

हादसा हुआ पंजाब के अमृतसर के जोड़ा रेल फाटक के पास. ऐसी खबरें चल रही हैं कि कम से कम 58 लोगों की मौत हो गई है और 72 से अधिक लोग घायल हो गए हैं. आंकड़े और भी बड़े हो सकते हैं.

पठानकोट से अमृतसर जा रही डेमू ट्रेन की चपेट में इतने लोग आए और चले गए. रावण दहन के साथ-साथ इतने निर्दोष लोग भी जा चुके हैं.

मृत्यु के बदले कोई मुआवजा नहीं दिया जा सकता. परिस्थितियों और प्रशासन को कोसा जा सकता है लेकिन किसी को वापस नहीं लाया जा सकता.

हे भगवान, मृतआत्माओं को शांति दें...मन बहुत उन्मन है.



-अभिषेक शुक्ल

(तस्वीर प्रतीकात्मक)

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

अंततः कवि के हिस्से रिक्तता आती है





वही कविताएं सबसे ख़ूबसूरत होती हैं जो कवि के मन में पलती हैं। जिन्हें कोई और नहीं सुन पाता। जिनकी तारीफ़ कवि ख़ुद ही करता है, जिन्हें वह ख़ुद लिखकर मिटा देता है।

उसकी नज़रों में अपनी अनगढ़ कविताएं सबसे ख़ूबसूरत होती हैं लेकिन दुनिया के लिए वह उन्हें छंदों की बेड़ियों में जकड़ता है, अलंकारों का तड़का लगाता है, आलम्ब खोजता है, समास जोड़ता है, संयोग तलाशता है, वियोग ख़ुद छलक जाता है।

दरअसल यह सब दिखावा है। कवि की जिन कविताओं को लोग पढ़ते हैं वे बनावटी होती हैं। असली कविताएं तो कवि के मन में पलती हैं, जिन्हें वह किसी से नहीं कहता। ख़ुद से भी नहीं।

अच्छी कविता की तलाश में हैं तो कवि को पढ़ें, उसकी रचनाओं को नहीं। बहुत बनावटी होते हैं किताबों के अक्षर।

कवि अपनी रचनाओं में उन्माद की हद तक काट-छांट करता है। ज़रा भी दयावान नहीं।

कवि को पता है कि उसकी रचनाएं उत्पाद नहीं हैं जिनके विनिमय से उसे कुछ मिले। कवि जानता है कि वह मूर्तिकार नहीं है, उसे पता है कि वह सुनार भी नहीं, फिर भी उसे कविताओं की काट-छांट बहुत प्यारी है। क्यों है, इसका जवाब उसे भी नहीं पता।

वह उलझता है, टूटता है, थकता है, बेचैन रहता है, कहते-कहते अटकता है क्योंकि कवि मन की कभी कह नहीं पाता।

अंततः कृत्रिमता उस पर बहुत भारी पड़ती है, जो उसे भीतर से ख़ाली कर देती है।

रिक्तता!
कवि की यही नियति है जो उसे बिन मांगे मिल जाती है, जिसमें वह कुछ रचने की संभावनाएं तलाशता है।


-अभिषेक शुक्ल

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

हम भाषा के अपराधी हैं

सहज भाषा के नाम पर हमने, भाषा का वास्तविक सौंदर्य बोध खो दिया है।

नई पीढ़ी कितना कुछ क्लिष्ट कहकर अनदेखा कर देगी। कितने अध्याय अनछुए रह जाएंगे। 

भाषाई सरलीकरण के नाम पर कितने शब्दों की निर्मम हत्या हुई है। उन्हें याद रखने वाली पीढ़ी अंग्रेज़ी में भविष्य तलाश रही है। 

एक पूर्वाग्रह कि हिंदी में लिखा जो कुछ भी है, सब अपशिष्ट है; गहरे तक बैठ गया है। इसे पुष्ट करने वाले लोगों में कोई अपराधबोध नहीं है। उन्हें लगता है, उन्होंने भाषा को जनवादी बनाया है। 

जनवाद! 
भाषा पर बहस करने वाले ज़्यादातर लोगों के भीतर निपट आभिजात्य आत्मा है। स्वप्न या मद में भी इन्हें 'जन' की सुधि कहां?

समाचारों की भाषा साहित्य की भाषा बन गई है। संपादकों ने अपने 'वरिष्ठों' से सीखा है कि भाषा ऐसी हो, जिसे अनपढ़ भी समझ ले। किसी ने अनपढ़ को सुपढ़ बनाने में रुचि ही नहीं दिखाई, क्योंकि 'जन' की सुधि किसे?

यही वजह है कि अनपढ़ व्यक्ति को 'एक्सक्यूज़ मी' और 'प्लीज़' कहना आ गया लेकिन 'कृपया' अथवा 'क्षमा' कहना नहीं आया।

साहित्य वही नहीं है जिसे प्रेमचंद ने लिखा है, दिनकर, प्रसाद, अज्ञेय, महादेवी और भारतेंदु ने भी जो लिखा उसे भी साहित्य ही कहेंगे। बहुत नाम छूटे भी हैं इनमें। 

विश्वभर की तमाम भाषाएं लोग सीख रहे हैं। जिन लिपियों और भाषाओं से हमारा कोई परिचय नहीं, उन्हें हम सीख लेते हैं, लेकिन हिंदी?

शब्द क्लिष्ट नहीं होते, सहज होते हैं। क्लिष्ट कहकर उन्हें प्रचलन से बाहर कर दिया जाता है। वे किताबें जिनमें तथाकथित 'क्लिष्टता' का प्रयोग ज़्यादा है, वे निरर्थक नहीं, उन्हें पढ़ा और समझा जा सकता है। 

क्लिष्टता से जुड़ा हुआ एक प्रसंग याद आ रहा है। उन दिनों मैं दिनकर को पढ़ रहा था। उन्होंने लिखा,

"गत्वर, गैरेय, सुघर भूधर से, लिए रक्त-रंजित शरीर, 
थे जूझ रहे कौंतेय-कर्ण, क्षण-क्षण करते गर्जन गंभीर।"



मुझे गत्वर, गैरेय, सुघर और भूधर का अर्थ नहीं पता था। मुझे लगा कि ये शब्द मुझसे कह रहे हों कि 'दिनकर को समझना हो तो पढ़ो। तुम्हें समझ में नहीं आ रहे शब्द तो यह तुम्हारी जड़ता है, दिनकर इसके लिए दोषी नहीं हैं।'

हम सब शब्दों के अपराधी हैं। हमने शब्दों की उपेक्षा की है। सृजनशीलता की चौखट से शब्द अपमानित होकर लौटे हैं। शब्द निहार रहे हैं नई पीढ़ी को, मिल रही उपेक्षा से टूटते जा रहे हैं। 

जब किसी देश में नवीन राज व्यवस्था जन्मती है और वृद्ध राजा को अपदस्थ कर, नया राजा पदस्थ होता है तब वृद्ध राजा राजपाट, संन्यास या वानप्रस्थ नहीं चाहता। वह मृत्यु चाहता है।

कुछ शब्द वही चाह रहे हैं। नई पीढ़ी उनकी अंतिम इच्छा पूरी कर रही है.

शनैः शनैः।

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

इश्क़ में मनमर्ज़ियां चलती कब हैं...

एक लड़की अपने प्यार के साथ भागने के लिए कैसे भी तैयार हो जाती है, बिना कुछ सोचे-समझे लेकिन लड़के बहुत सोचते हैं। उनके लिए बेड सेफ़ साइड है, लिव-इन या शादी मुश्किल। मां-बाप शादी के लिए तैयार भी हों तो भी, लड़के अकसर बचते हैं। वजह बेहतर की तलाश हो, या कुछ और लेकिन अकसर ऐसा होता है। प्रैक्टिकल में लड़कियां ज़्यादा सीरियस होती हैं रिश्तों को लेकर, लड़के भागना चाहते हैं रिश्तों से। अपवाद भी हैं।

कहानी मनमर्ज़ियां की...

अगर डायरेक्टर दमदार हो तो एक्टर की कायापलट करने में उसे ज़्यादा वक़्त नहीं लगता। अनुराग कश्यप ने वही किया है विकी कौशल के साथ। विकी कौशल शक्ल से बेहद मासूम नजर आते हैं। भोले-भाले स्मार्ट नौजवान टाइप; लेकिन मनमर्जियां में उनके कैरेक्टर को देखने के बाद विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि वे मसान, राज़ी, लस्ट स्टोरीज या संजू वाले विकी कौशल हैं।


मनमर्ज़ीयां में उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह बदल लिया है।



तापसी पन्नू अच्छी एक्ट्रेस बनकर उभरी हैं। इस फ़िल्म में उनकी शुरुआती सनक देखने लायक है। कंगना याद आती हैं। थोड़ी सी सनकी टाइप।

कनिका ढिल्लन ने कहानी अच्छी लिखी है। हालांकि कहानी बिलकुल फ़िल्मी है। रूमी(तापसी) की तरह उदार पेरेंट्स शायद ही भारत में होते हों। अगर होते भी होंगे तो उन्हें विलुप्तप्राय जीव की श्रेणी में डालकर रेड लिस्ट में रखने लायक है।
फ़िल्म की कहानी जैसी भी है, अनुराग कश्यप ने उसे पर्दे पर ख़ूबसूरती से उतारा है। फ़िल्म के क्लाइमेक्स में आपको कई फिल्मों की कहानियां याद आ सकती हैं।

कौन-कौन सी, यह फ़िल्म देख लीजिए फिर बताइए।

फ़िल्म में असली ट्विस्ट मध्यांतर के बाद आता है। असली कहानी तभी शुरू होती है। अभिषेक बच्चन एक्टिंग में वापसी अरसे बाद हुई है। उनके करियर की बीते कई वर्षों में आई रिक्तता को भरने वाली फ़िल्म है यह।

फ़िल्म की शुरुआत में उनकी एक्टिंग ज़रा भी नहीं लुभाती लेकिन मध्यांतर के बाद असली हीरो वही हैं।

विकी कौशल विकी के ही किरदार में हैं। रूमी के किरदार में हैं तापसी। रॉबी बने हैं अभिषेक बच्चन।

विकी है लापरवाह प्रेमी, उसका प्यार बस बेड पर परवान चढ़ता है। प्यार कम और फ़्यार ज़्यादा करना होता है. प्यार भी उसका अलग की क़िस्म का है. ज़िद्दी आशिक़ टाइप। इमरान हाशमी याद आते हैं फ़िल्म में कई बार। मर्डर-2 के इमरान हाशमी का डायलॉग सूट करता है विकी के किरदार पर, 'तुम मेरी ज़रूरत हो।'
विकी की ज़रूरत लगी है रूमी।

अभिषेक बिलकुल मर्यादा के अवतार लगे हैं। भूत ही समझिए, होते तो हैं, दिखते नहीं ऐसे पुरूष। इतना शालीन, मर्यादा वाला लड़का आसपास में मैंने नहीं देखा, अगर आपने देखा हो तो फ़ौरन चरण गहो, देवता है वह आदमी.

फ़िल्म में दो लड़कियां आती-जाती रहती हैं. जब भी कहानी में नया मोड़ आना होता है दोनों दिख जाती हैं. पहले लगता है कि इनका भी कोई किरदार होगा लेकिन ये बस होती हैं.

फिल्म के कुछ गाने बेहद अच्छे हैं. दरया, चोंच लड़ियां, सच्ची मोहब्बत. अमित त्रिवेदी म्यूजिक डायरेक्शन कई जगह बहुत कर्कश लगा है लेकिन ओवरऑल ठीक है.

वक़्त निकालिए, अरसे बाद कोई मूवी आई है जिसे देखा जा सकता है. देखकर यही कहेंगे-
इश्क़ में मनमर्ज़ियां चलती नहीं, बस मोहब्बत होनी होती है, हो जाती है।

रविवार, 26 अगस्त 2018

राखी के दिन सूनी कलाई

राखी वाले दिन कलाई का सूना रह जाना अखरता है। बेहद ज़्यादा। तब और भी जब आपके पास ढेर सारी बहनें हों, जिनके पास जाने के लिए आपको कम दूरी तय करनी हो।

मन लाख समझाए कि बहनों का आशीर्वाद हमेशा साथ रहता है भले ही वे कलाई पर राखी बांधे या न बांधे लेकिन दिल नहीं मानता। तब तक, जब तक कि वे राखी बांध न दें।

बचपन से लेकर अब तक कोई साल ऐसा नहीं बीता जब कलाई सूनी रही हो। कलाइयां भर जाती थीं राखी वाले दिन। गांव रहा तो वहां भी खूब सारी राखी। कुछ बड़ी बहनें और छोटी बहनें वहां थीं। कोई न कोई तो ज़रूर रहता था। मीना दीदी, बबली दीदी, रश्मि दीदी, प्रसन्ना दीदी, नीरू दीदी, रुचि दीदी, ऋचा दीदी, पल्लवी, वर्षा, बेटू, सोनल, शिवांगी, छोटी, बिन्नी, इशिता और भी बहुत सारी बहनें। कुछ के तो नाम भी छूट गए होंगे।



गांव वाली बहनों से राखी बंधवा मम्मी-पापा के साथ सुबह ही चेतियां, मदनपुर(बुआ का घर) और बरवां(नानी यहां) के लिए निकलता था। पापा अपनी बहनों से राखी बंधवाते और मैं अपनी।

गांव से बाहर गया तो वहां भी बहनें थीं। रुचि दीदी, दीप्ति दीदी, हिमानी। कुछ साल बाद नीरू दीदी भी आ गई थी। दिल्ली या मेरठ में जमवाड़ा होता था इस दिन।

रुचि दीदी तो ज़रूर रहती थी। इस बार रुचि दीदी भी नहीं थी। बेंगलुरु चली गई बड़े भइया के पास। इस दिन मुंह नहीं बंद रहता था। रुचि दीदी दिन भर खिलाती रहती। मिस कर रहा हूं दीदी तुम्हें।

नौकरी सच में नौकरी है। नौकर बना देती है। आज मेरठ जाना था। दफ़्तर से मुझे छुट्टी मिली नहीं, मैं वहां जा नहीं पाया।

बहुत ज़्यादा बहनों को मिस कर रहा हूं। सबकी बहुत याद आ रही है।

मिस यू ऑल। अगली बार सब राखी ज़रूर भेजना। इस साल की तरह मुझे कोरी नहीं रखनी अपनी कलाई।

लव यू ऑल।

और इस फ़ोटो में सच में मुस्कान झूठी है। कलाई सूनी है।

- अभिषेक शुक्ल।

रविवार, 12 अगस्त 2018

गांव में ऐसा है मनभावन सावन


कोई छह-सात वर्ष हो गए थे झूला झूले हुए. बारहवीं पास करने के बाद जो त्योहार छूटे, सावन में भी उनमें से एक था. मुझे सावन  त्यौहार ही लगता है. महीने भर का त्यौहार. कजरी, आल्हा और गीतों का महीना.

जिधर से गुज़रो कहीं न कहीं से किसी की खनकती आवाज़ में कोई गीत कानों तक पहुंच ही जाता था. कोई पेशेवर गायिका कितने भी दिन सरस्वती की आराधना क्यों न करे, गांव की पड़राही भौजी की राग मिलने से रही. उनकी कजरी सीधे दिल से निकलती थी दिल में उतरती थी. भीतर तक.



हरे राम कृष्ण बने मनिहारी ओढ़ लिए सारी रे हारी
सिर धरे डलरिया भारी हरे रामा करतै गलिन में पुकारी कोई पहिननवारी रे हारी.
स्वर कभी सीखा नहीं जाता. गीत विद्या नहीं है, कला है. कला कोई सिखा नहीं सकता. कोई भी नहीं. कोई गुरु नहीं. कला का शिष्यत्व से चिरंतन बैर है. वाल्मीकि को किसी ने पहला  छंद रचना नहीं सिखाया होगा. न ही किसी ने उन्हें मात्रा गणना का बोध कराया होगा. उन्होंने सीख लिया होगा. वैसे तो कहा जाता है कि वेद अपौरुषेय हैं लेकिन उन्हें जिसने भी मूल रूप में दुनिया को कुछ बताया होगा वहा कलाकार ही रहा होगा.
ठसक लिए कोई देहाती महिला अथवा पुरुष. कोई ज्ञानी ब्राह्मण नहीं. ज्ञानी व्यक्ति तो कला को मारकर ज्ञानी बनता है.

गांव की गायिका को रियाज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती. जब मन किया गा लिया. ऐसा संगीत जहां वाद्य यंत्र नगण्य हो जाते हैं. स्वर ही ढोलक की थाप होते हैं, पायलों की छनछन ही झांझ. फिर कौन न सासें रोक गीत सुनने बैठ जाए.

 

दिन में झूला झूल लिया. रात में अम्मा(दादी) से कजरी सुन ली. मेरा तो सावन सार्थक हो गया. धीमी-धीमी बारिश हो रही है. झींगुर टर्र-टर्र कर रहे हैं. मेंढकों ने भी तान छेड़ दिया है. ऐसे में मच्छर कहां पीछे छूटने वाले. उनका भी गायन चालू है. मच्छरों से थोड़ी अनबन है, पर अपने हैं. काट रहे हैं पर पेट भरने के लिए.
वीडियो मेरे ननिहाल का है. बरगद पर झूला पड़ा है. साथ में वीरू भइया हैं, अंकित है और जो  बचा है उस बच्चे  का नाम नहीं पता.
झूमिए....क्योंकि सावन है.



- अभिषेक शुक्ल

रविवार, 5 अगस्त 2018

जब दोस्त, दोस्त के लिए पथरीली राहों पर चला नंगे पांव

दोस्ती का नाम ज़ेहन में आते ही सरस्वती संस्कार मंदिर की कक्षा याद आने लगती है। उस वक़्त क्लास जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी और 'सर' नहीं आचार्य जी हुआ करते थे।

कक्षा शिशु में मेरे चार बेस्ट फ्रेंड बने। सुमित, अमित, सूरज और अनिल। टिकाऊ दोस्त थे। इनके रहते बहुत दिनों तक कोई और दोस्त बन नहीं पाया। सूरज का मुंडन नहीं हुआ था। बालों में रुमाल बांध कर आता था।

सुमित और अमित असली वाले दोस्त थे। सुमित के पास बहुत से क़िस्से होते थे। पता नहीं कहां-कहां से चुनकर लाता था। गांव-मोहल्ला, ज़िला-जवार सब जगह की जानकारी भाई को थी। चलता-फिरता एंटरटेनमेंट।

अमित हंसने में उस्ताद था। क़िस्से उसके पास भी थे लेकिन सुमित के क़िस्से उसे भी पसंद आते थे। इसलिए नौबत ही नहीं आती थी कुछ सुनाने की।

लेकिन कुछ क़िस्से अमित, सूरज को सुनाता था कोने में ले जाकर। भगवान ही जाने क्या था उसके पीछे का राज़।

अनिल और मेरा गांव एक ही है। इसलिए दोस्ती हो गई। अनिल अपने पूरे कुनबे के साथ आता था।

सूरज अब कहां है, नहीं पता। छठी क्लास में कहीं और पढ़ने चला गया था। अनिल भी छह पास होने के बाद कहीं चला गया था। उसके बारे में ज़्यादा पता नहीं, गांव जाकर ही उसकी ख़बर मिलती है। सूरज और अनिल दोनों फ़ेसबुक पर भी नहीं हैं।



सुमित के साथ एक क़िस्सा याद आता है। दूसरी या तीसरी में पढ़ रहे थे। गर्मी का महीना था। शायद अप्रैल-मई का। स्कूल की टाइमिंग बदल गई थी। सुबह आंख खुलते ही स्कूल भागना होता था और 1 बजे दोपहर में छुट्टी हो जाती थी।

शहर से बाहर घर के आधे रास्ते में एक दिन चप्पल का फीता टूट गया। आसपास किसी मोची की दुकान भी नहीं थी। तपती दोपहर में नंगे पैर लगभग तीन किलोमीटर पैदल जाना था मुझे।

हमारा स्कूल घर से क़रीब चार किलोमीटर की दूरी पर था। सुमित को खरगवार जाना होता था और मुझे परिगवां।

सुमित का रास्ता छतहरी से अलग हो जाता था। उसे भी लगभग इतनी ही दूरी तय करनी होती थी।

सुमित को जब पता कि मेरी चप्पल टूट गई है, उसने अपनी चप्पल उतार दी। मैंने मना किया तो वह ज़िद पर उतर आया। पहन के जाना ही है। उस वक़्त कट्टी का बहुत डर होता था। दोस्त अगर कट्टी ले ले तो पट्टी करने में अगले कई दिन ख़राब हो जाते थे।

सुमित को मुझसे कहीं ज़्यादा ख़राब रास्ते पर जाना होता था। उबड़-खाबड़ रास्ते पर। पर सुमित मानने वाला कहां था। कह दिया तो कह दिया।

डायलॉग अब भी याद है उसका, 'यार हमार तो आदत परा है, तू नाहीं चल पाइबा बाऊ।' मतलब मेरी तो आदत है, तुम नंगे पैर नहीं चल पाओगे।

हम पैदल ही जाते थे। ख़ूब सारे भाई बहन लेकिन संयोग से उस दिन मैं अकेला ही था, भाई-बहनों में कोई स्कूल नहीं आया था। वह दिन मुझे हमेशा याद रहेगा।
सुमित, सच में सु-मित है।

बड़ा होता गया, दोस्त बनते गए। सूरज और उपेंद्र भाई थे, दोस्त बन गए। कभी-कभी परेशान होता हूं तो इन्हें फ़ोन कर लेता हूं। पेनकिलर की तरह हैं दोनों।


सरस्वती संस्कार मंदिर में ही कुछ और दोस्त बने थे। विवेक, बलराम, रविन्द्र, अरविंद, अखिलेश, रहीम, शाहिद, शीबू, अजय, सुरेंद्र, अभिषेक। कुछ दोस्तों के नाम भी याद नहीं रहे। चेहरा सबका याद है।
इनमें से बहुत कम दोस्त संपर्क में हैं।

विवेक जहां 10 नम्बरी आदमी, बलराम वहीं बुद्धिमान और शांत। विवेक तो अब पूरी तरह बदल गया है, सौम्य ज़मीनी नेता बन गया है। मसीहा टाइप।

शीबू स्कूल में मेरा जूनियर रहा है पर बहुत अच्छा दोस्त है। स्कूल में ख़ूब गाना सुनाया है भाई ने। 'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी...।'

लड़कियों में तो ज़्यादातर की शादी हो गई होगी। बचपन की बस एक ही दोस्त अब टच में है। फ़ेसबुक बाबा की कृपा से।

जब संस्कार मंदिर छूटा तो कई दोस्त छूट गए। कुछ नए दोस्त बने भी। शिवपति इंटर कॉलेज। नौवीं से बारहवीं तक की पढ़ाई यहीं से हुई। इस दौरान भी कई दोस्त बन पर ज़्यादातर ग़ायब हैं।

विनय, अमित(द्वितीय), अभिषेक(द्वितीय) और योगेश के अलावा कोई संपर्क में नहीं है।

अम्बरीष, पंकज, सर्वेश, अमित, अभिषेक, सुधीर, सुभाष और केसरी भी ग़ायब हैं इन दिनों। बहुत सारे दोस्त ग़ायब हैं। कहीं रिपोर्ट लिखवाने का सिस्टम हो तो कितना अच्छा हो।

बारहवीं के बाद बने सारे दोस्त सही सलामत और टच में हैं। मोबाइल ने काम आसान कर दिया है। IIMT से IIMC तक जितने दोस्त बने सब फ़ेसबुक पर हैं। अपने ज़िंदा होने का एहसास दिलाते रहते हैं।
बारहवीं के बाद वाले दोस्तों की बातें बाद में।

पढ़ाई से अलग फ़ेसबुक या ब्लॉग पर जिनसे दोस्ती हुई
उनकी भी दोस्ती कम ख़ूबसूरत नहीं। सारे दोस्त बेहद ख़ास हैं।

फेसबुक को मेरे बचपन में भी रहना था, कुछ दोस्त छूटते नहीं, खोजने से भी अब जो नहीं मिल रहे।

आज फ़्रेंडशिप डे है। वैसे मेरा मानना है जितना दिन आपका दोस्तों के साथ ख़राब होता है, फ़्रेंडशिप डे ही होता है। फिर भी, हैप्पी फ़्रेंडशिप डे दोस्तो!
ख़ुद के होने का एहसास दिलाते रहो।
ज़िंदा रहो।


- अभिषेक शुक्ल

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

अंग्रेज़ी में कहते हैं

जिस प्यार के होने का एहसास आपको साथ रहने पर न होता हो, छूटने पर वही प्यार सबसे ज़्यादा याद आता है।
ख़ालीपन में मोहब्बत की ज़रूरत इंसान को ज़्यादा होती है, जिसे किसी के साथ रहने पर समझना मुश्किल होता है।

बोलना, ख़ूबसूरत हुनर है। हमेशा नहीं, पर कभी-कभी तो ज़रूर।

उपेक्षा रिश्तों के लिए घुन की तरह है। किसी को एहसास हो जाए, तो गांठ का पड़ना तय है। फिर रिश्ते संभलते नहीं, बिखर जाते हैं।

जिन्हें रिश्तों को संभालना आता है, उन्हें कहना भी आता है।

अंग्रेज़ी में कहते हैं।
जो कहते हैं न 'उसे' देश की बड़ी आबादी कहने से कतराती है। ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि फ़ीलिंग नहीं है, बस हर डायरेक्ट बात को इनडायरेक्ट तरीक़े से कहने की आदत है। लोग ऐसा सोचकर चलते हैं कि सामने वाला समझता होगा। समझना हर बार सही तो नहीं होता?

अंग्रेज़ी तो ठहरी विदेशी भाषा, उसमें कौन मन की बात कहे, यहां तो हिंदी में भी कहना गुनाह है। ऐसा लगता है कि पुरखों ने मुंह पर 'अलीगढ़वा ताला' मार दिया है।

एक फ़िल्म है, जो हमारे आसपास की सच्चाई को दिखाती है। आम परिवारों की कहानी, जिसे हम रोज़ घटते हुए देखते हैं।



फ़िल्म का नाम है, 'अंग्रेज़ी में कहते हैं।'

 हीरो हैं संजय मिश्र। फ़िल्म में इनका नाम है यशवंत बत्रा।
हीरोइन एकावली खन्ना। इनके किरदार का नाम है किरण।

संजय की ख़ासियत है कि अपने किरदार को इतनी संजीदगी से निभाते हैं, पता नहीं चलता कि फ़िल्म देख रहे हैं या हक़ीक़त।

बिलकुल उस्ताद आदमी हैं।

एकावली खन्ना भी सधी हुई अभिनेत्री हैं। कौन कितने पानी में, बॉलीवुड डायरीज, डीयर डैड जैसी फ़िल्मों में झलक दिखला चुकी हैं लेकिन इस फ़िल्म में निखर आई हैं।

जो महिलाएं महसूस करती हैं, उन्होंने जिया है।

फ़िल्म देखते हुए आपको भी दीदी, भाभी, मौसी, मम्मी या बुआ याद आ सकती हैं।

कुछ लोग रिश्ते नहीं ज़िम्मेदारियां निभाते हैं। पत्नी से रिश्ता बस औपचारिक होता है।

सुबह नहाने के लिए तौलिया देना, चाय पिलाना, नाश्ता कराना और दफ्तर के टिफ़िन तैयार करके देना, पत्नी का यही प्यार है।

पत्नी दफ़्तर से घर आने के बाद पानी पिला देती है, रात में खाना बनाकर खिला देती है।
पति समझता है कि प्यार कम्प्लीट। ज़िम्मेदारियां निभाना ही प्यार है।

प्यार ज़िम्मेदारी नहीं है।

फ़िल्म में दो कहानी और भी है।

तीन लव स्टोरी है फ़िल्म में, एक-दूसरे से जुड़ी हुई। एक की वजह से यशवंत और किरण अलग होते हैं, दूसरी कहानी की वजह से जुड़ जाते हैं।

पंकज त्रिपाठी ब्रिजेन्द्र काला भी हैं फ़िल्म में। ब्रिजेन्द की कलाकारी औसत है, पर पंकज छोटी सी भूमिका में ही ग़ज़ब ढाए हैं।

पूरी कहानी नहीं लिख सकता, फ़िल्म की कहानी किसी से साझा करना क्राइम है।

वक़्त मिले तो देखिए। बेहद प्यारी कहानी है, शादीशुदा लोगों को अपनी ही कहानी लग सकती है। हालांकि फ़िल्म की कहानी ज़रा सी फ़िल्मी है। असल ज़िन्दगी में अपनी ग़लतियों का एहसास आदमी को कम ही हो पाता है। जिन्हें होता है, उनकी ज़िंदगी में गम के लिए जगह कम बचती है।

हां, फ़िल्म ज़रूर कुछ महीने पुरानी है। कहीं ऑनलाइन देखने का जुगाड़ कर लीजिए।

फ़िल्म देखने में ज़रा सुस्त सा आदमी हूं। कम देख पाता हूं। इसलिए ही इतने दिनों बाद इस फ़िल्म की याद आई। वक़्त मिले तो देखिएगा.....और हो सके तो यशवंत वाली ग़लती मत कीजिएगा, असली ज़िन्दगी में रिश्ते टूटते तो हैं लेकिन जुड़ने के मामले बेहद कम सामने आते हैं।

- अभिषेक शुक्ल।






शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

नाविकों के तन विवशता से मनुजता ढो रहे हैं














जिस प्रलय की धार में तुम यूं प्रफुल्लित हो रहे हो
जाल में उसकी उलझकर कुछ अभागे रो रहे हैं,
उम्रभर की सब कमाई आंसुओं में बह गई है
स्वप्न की कुटिया नयन के सामने वे खो रहे हैं।

पीर का विस्तार देखो हर तरफ जल ही भरा है
नाव के सौदागरों में कुछ थके हैं सो रहे हैं,
भार पतवारों पे इतना कि घिसटकर टूटते हैं 
नाविकों के तन विवशता से मनुजता ढो रहे हैं।


कौन सी मिट्टी तुम्हारे बुद्धि के तट पर पड़ी है
नाश की सारी क्रियाएं क्यों तुम्हें उल्लास लगतीं,
भावना को भस्म कर जो तुम जगत से खेलते हो
मृत्यु की सारी कलाएं क्यों तुम्हें परिहास लगतीं।

सत्य है जीवन क्षणिक है किंतु इसमें दीर्घता है
जीव के अस्तित्व को मन से कभी स्वीकार कर लो,
कुछ पलों का भ्रम समझकर मान लो तुम जी रहे हो
नाश के आभास में ही प्राण का विस्तार कर लो.  


(अभिषेक शुक्ल) 

(इमेज सोर्स- पीटीआई) 

मंगलवार, 3 जुलाई 2018

वेदना का अंत बहुत सुखद होता है





वेदना का अंत बहुत सुखद होता है। प्रायः, हर बार नहीं। 



सुख मूल्य वसूलता है। कुछ का जीवन कइयों की मृत्यु की परिणति है।



हर दुख की वैतरणी को पार करने के लिए कोई न कोई ऐसी नाव मिल जाती है जो अंततः सुख के तट तक पहुंचा ही देती है।



कुछ दुखों का कोई उपचार नहीं, कुछ घटनाओं का भी। किसी कहानी के कुछ पत्रों की अपूर्ण गति यह कभी नहीं दर्शाती कि उनके साथ कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटित हुआ।



 सब स्वाभाविक है, सबका अपना-अपना प्रारब्ध है। सब किसी अंतहीन यात्रा की ओर आगे बढ़ रहे हैं शनैः शनैः। 

हर बलदेव विवश है, हर कालीचरण जूझ रहा है। हर तहसीलदार भीतर से टूट रहा है, कुछ बन रहा है, कुछ बिगड़ रहा है।  



बेतार अपना काम जारी रखे हुए है। हर कमली कुछ समय तक अभिशप्त है, मौसी की ममता हर जगह वेदना पा रही है। स्वजनों की व्याधि उसे डायन बना रही है। कोई कहीं छिपा बैठा है लाठी लेकर प्राण हतने हेतु। 



 प्रेम में सब कुछ पा लेना ही प्रेम नहीं, कुछ खो देना ही प्रेम नहीं...जूझते रहना ही प्रेम है।



दिन बहुरते हैं, जब तक न बहुरें प्रतीक्षा करने में नुकसान कुछ भी नहीं है।



'कहानी मैला आंचल की.'



नोट: तस्वीर, आत्ममुग्धता के चलते चिपकाई गई है।

शुक्रवार, 29 जून 2018

अनुपम खेर वाली दुनिया में अमरीश पुरी क्यों बनते हैं बाप?

                                                          (तस्वीर: पुराना किला, दिल्ली)

एक लड़के ने कल रोते हुए फ़ोन किया था, "भइया मैं एक लड़की से प्यार करता हूं। मंदिर में हमने शादी कर ली है। लड़की दूसरी बिरादरी की है। घर वाले मान नहीं रहे हैं। भइया मैं उसके बिना मर जाऊंगा। लड़की के घर वाले तैयार हैं, मेरे घर वाले नहीं तैयार हैं। मुझे घर से बाहर नहीं जाने दे रहे, लॉक कर रखा है। मैं क्या करूं?"

लड़के की आवाज़ में बहुत मासूमियत थी। मैंने कहा कोर्ट मैरिज कर लो, उसने कहा घर वाले उस लड़की को कभी नहीं अपनाएंगे।

लड़का आर्मी की तैयारी कर रहा है। अच्छी कद-काठी है। गबरू जवान है। बॉर्डर पर गया तो दो-चार बिना हथियार के ही शहीद कर देगा लेकिन घरवालों के सामने सरेंडर बोल चुका है।

मंसूबा पस्त। जवान हार गया है। ऐसा नहीं है कि उस लड़के के बाप ने कभी प्यार नहीं किया होगा या कभी उनके मन में लव मैरिज जैसी कोई बात नहीं आई होगी, लेकिन उन्हें अपने बाप से हार मिली होगी जिसका बदला महाशय अपने बेटे से ले रहे हैं।

बाप बनने के बाद लोगों का प्यार से 36 का आंकड़ा क्यों सेट हो जाता है?

कोई किसी से प्यार करता है तो जाने दो न यार उसे उसके साथ। तांडव करना ज़रूरी है क्या? क्या पुरखे तभी तृप्त होंगे जब बाप की पसंद से बेटा शादी करे?

फिल्मों वाले सीन पर ताली, असली ज़िन्दगी में गाली? ठीक नहीं है दोस्त।

प्यार करो और करने दो।

अनुपम खेर वाली दुनिया में अमरीश पुरी बनने से क्या फ़ायदा। प्यार ही तो किया है, मर्डर तो नहीं। फिर यह रिश्ता-नाता तोड़ने वाला पनिशमेंट क्यों?

मर्डर और रेप करके आए हुए बेटे को जेल से बचाने की पूरी कोशिश करते हैं घरवाले लेकिन प्यार में घुट-घुट मरने वाले बच्चे पर दया नहीं आती।

सही है, रेपिस्ट बच्चा पसंद है लेकिन अपनी मर्ज़ी से शादी करने वाला नहीं। प्यार करने वाले अपराधी का तो देश निकाला बनता है। यही धर्म है। प्राण जाए पर धर्म न जाए। जान जाए पर जाति न जाए।

प्यार अभी समाज डकार नहीं पाया है। गिनती के कुछ परिवार हैं जिनके यहां लव मैरिज पर हंगामा नहीं होता। एक डायलॉग बहुत फ़ेमस है हिंदुस्तानियों के घरों में। बाप बेटे से बोलता है, "मैं तुम्हारे हिस्से की ज़मीन तुम्हारे नाम कर रहा हूं, बेचकर निकल जाओ। ज़िन्दगी भर चौखट पर क़दम मत रखना।"
मतलब प्यार करो तो घर से निकलो।

लड़कियों के लिए और भी मुश्किल। उन्हें अगर मोहब्बत हो जाए तो उनकी ज़िंदगी अपराधियों से बदतर हो जाती है। सच्चाई है। प्यार की इतनी ही कहानी है।

जब तक घर वाले न मानें, यहां आते रहिए।  ठिकाना है उन लोगों का जिन्हें छिपकर अपने 'उनसे' मिलना होता है। कभी वक़्त मिले तो यहां ज़रूर घूमिए। मोहब्बत का सबसे सुरक्षित ठिकाना है। शायद कपल्स पर यहां डंडे कम बरसते हैं। नहीं भी बरसते होंगे। मेरे किसी दोस्त ने यहां पिटने की सूचना कभी नहीं दी।

बुधवार, 20 जून 2018

क्योंकि कविताओं का पुनर्जन्म नहीं होता

पहाड़ जैसे मन से बहने वाली कविताएं, व्याकरण और छंदों की खाइयों में उलझकर प्रायः मृतप्राय हो जाती हैं। उनमें प्राण डालने की कितनी भी कोशिश क्यों न की जाए, जीवन का संचार नहीं दिख सकता। टूटे हाथ-पैरों की मरम्मत हो जाती है, वैद्य उन्हें जोड़ने में सक्षम हैं लेकिन कविताओं का इलाज करने वाला कोई वैद्य नहीं मिलता।

कोई इनका इलाज भी करे तो कविताएं दुरुस्त नहीं होतीं। अर्थ बदलते हैं, भाव बदल जाते हैं और काव्यगत सौंदर्य भी।



कबूतर के घोंसले से गिरे हुए अंडे को कोई अगर वापस घोंसले में डाल दे तो अंडे में से बच्चे नहीं निकलते। किसी की कविता को भी अगर कोई सुधारना या संरक्षित करना चाहे तो भी कविता संरक्षित नहीं होती। कविता, अकविता हो जाती है। मन का कोई व्याकरण नहीं होता, पर कविता?

खैर जो भी हो, कुछ कविताओं की नियति में विराट शून्य आता है। अनंत ब्रह्मांण्ड में कविताएं भी तैरती रहती हैं, खो जाती हैं। वापस लौटकर कभी नहों आतीं क्योंकि कविताओं का पुनर्जन्म नहीं होता।

गुरुवार, 24 मई 2018

जिस देश के प्रधानमंत्री खुद को चायवाला कहते हों, वहां चाय बेचने पर पाबंदी क्यों?

नोयडा फिल्म सिटी में चाय बेचने का लीगल/इलीगल टेंडर खत्म कर दिया गया है। चायबंदी लागू हो गई है। चायबंदी क्या कहें, गुमटीबंदी हो गई है। पहले खाने-पीने के तमाम जुगाड़ सुबह दस से रात नौ बजे तक चालू रहते थे लेकिन न जाने किस देवता की कृपा हो गई है कि फिल्म सिटी में एक भी गुमटीवाला नहीं दिख रहा है। हुक्का-पानी की जरूरत तो कभी पड़ी नहीं लेकिन चाय-पानी पर संकट आन पड़ा है।

एक ऐसे वक्त में जब हमारे पीएम खुद को चायवाला कहते हों, तब उन्हीं के राज में फिल्म सिटी में चाय वालों की आजीविका पर लगा ग्रहण, प्रधानमंत्री का व्यक्तिगत अपमान लगता है।

चाय तो राष्ट्रीय पेय पदार्थ है। चाय, अर्थात कलियुग का सोमरस। मन और तन तृप्त करने की औषधि। न मिले तो मन बेचैन हो जाए, मिल जाए तो रोम-रोम खिल जाए। ऐसा सिर्फ मेरा ही नहीं, देवताओं का भी मानना है। मौसम कितना भी उबाल क्यों न मारे, चाय पीने वालों के कदम खुद-ब-खुद गुमटियों की ओर बढ़ चलते हैं। गर्मी में भी चाय का विकल्प, चाय ही है। चाय का विकल्प कुछ भी नहीं, कोक नहीं, शर्बत भी नहीं।

कुछ दिनों पहले तक चाय की कमी महसूस नहीं होती थी। जहां चाय की दुकान वहां जनता का जमवाड़ा। जहां चाय, वहीं चर्चा। असली लोकतंत्र की झलक चाय के दुकानों पर ही मिलती है। चाय की दुकानों में संसद से कम सार्थक बहसें नहीं होती हैं। इन दिनों फिल्म सिटी से चाय की दुकानें गायब हैं। गलियों में अजीब तरह का सन्नाटा पसरा है। लोग आजकल सड़कों पर कम दिखने लगे हैं। नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है कि न्यूज रूम में अचानक से खबरों की बाढ़ आ गई है, जिसकी वजह से सारे पत्रकार खबर बनाने में व्यस्त हो गए हैं। खबरों में इजाफा नहीं हुआ है, बस फिल्म सिटी में चाय की गुमटियां नहीं दिख रही हैं।

लोग दफ्तर से बाहर चाय पीने निकल तो रहे हैं लेकिन उदास होकर वापस लौट आ रहे हैं। कहीं ढूंढने से भी कोई गुमटी नहीं दिख रही है।

कुछ लोग पुलिस वालों को इसका श्रेय दे रहे हैं तो कुछ सरकार को कोस रहे हैं। फिल्म सिटी में इन दिनों कोई चाय वाला, पकौड़े वाला, नमकीन वाला नहीं दिख रहा है।

पिछले कई दिनों से पुलिस गुमटियां बंद करवाने में लगी है। अब फिल्म सिटी में कोई स्ट्रीट वेंडर नहीं दिखता। पहले करीब बीस से ज्यादा दुकानें सजी रहती थीं। जब जो चाहो मिल जाता था। जब एक ही कुर्सी पर बैठे-बैठे मन ऊब जाता, लोग आराम करने के लिए बाहर निकल जाते, लेकिन कई दिनों से यह सिलसिला थम सा गया है। लोग बाहर तो निकल रहे हैं लेकिन बाहर निकलने पर गर्म हवाओं के सिवा कुछ मिल नहीं रहा है।

कैंटीन तक हर किसी की पहुंच नहीं होती। वहां वैसे भी लोग खाना खाने जाते हैं, चाय के लिए लोग गुमटी या ठेले पर जाना ही पसंद करते हैं क्योंकि चाय पीने का स्वाद वहीं आता है।



न जाने किसकी वजह से फिल्म सिटी से गुमटियां फरार हैं। इस वजह का भी खुलासा नहीं हो पा रहा है कि प्रशासन को चाय वालों से दिक्कत क्या है। अगर यह प्रशासन का आदेश है तो इस आदेश से बहुतों का रोजगार छिना है। गुमटी लगाने वाले व्यापारी नहीं हैं। उन्हें घर चलाने के लिए रोज काम करना पड़ता है। रोज पकौड़े तलने पड़ते हैं, रोज चाय बनानी पड़ती है, तब जाकर दो वक्त की रोटी नसीब होती है।

सार्वजनिक मंचों से कई बार प्रधानमंत्री ने खुद को चाय वाला कहा है। बेरोजगार युवाओं से पकौड़ा तलने की भी बात भी कही है। कोई, जिसकी पहुंच प्रधानमंत्री जी तक हो, मेरा एक संदेश पहुंचा दे कि फिल्म सिटी से चायवालों को भगा दिया गया है।

कोई पीएम से कहे कि चाय और पकौड़े वालों की दुकानें फिल्म सिटी में फिर से बहाल की जाएं। सवाल किसी की आजीविका का है। हमारे पैसे तो बच रहे हैं लेकिन किसी की रोजी-रोटी बंद हो गई है। दुकान खरीदने की औकात हर किसी की नहीं होती, कैंटिन के टेंडर पर कब्जा करने की भी।

कुछ लोगों को सड़क जिंदा रखती है। जिन्हें सड़क पर कुछ बेचने से रोका गया है उनके पेट पर लात मारा गया है। उनके भी बच्चे होंगे, घरवाले होंगे। उनके भी बच्चे स्कूल जाते होंगे, घरों में लोग बीमार पड़ते होंगे। मकान का किराया उन्हें भी देना पड़ता होगा। दुकान बंद होने से होने से उनकी जिंदगी थम सी गई होगी। नई जगह दुकान जमाने में वक्त लगता है। कमाने में तो और भी ज्यादा।

मुझे नहीं पता कि सरकार के पास स्ट्रीट वेंडर्स के लिए कौन-कौन से कायदे-कानून हैं। मेरे पास जरूरी जानकारियां भी नहीं हैं। जुटाने की कोशिश भी नहीं की, लेकिन दुकानों का बंद होना खल रहा है।

हम चाय न पिएं तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन किसी की कमाई छिन जाएगी। इससे पहले कि उनका दिवाला निकल जाए, उनकी दुकानें बहाल कर दी जाएं।

यह मानवता नहीं है कि किसी को कमाने से रोक दिया जाए। इसे भावनात्मक अपील ही समझें लेकिन इस तरह से किसी को कमाने से रोक देना किसी के मानवीय अधिकारों का हनन है। कोई मेरी फ्रैंड लिस्ट में प्रभावी व्यक्ति है तो उससे अनुरोध है कि फिल्म सिटी के स्ट्रीट वेंडर्स के लिए कुछ करे। कई परिवारों की जिंदगी का सवाल है।  किसी के घर चूल्हा जलेगा तो पुण्य आपको भी मिलेगा। पाप तो जीवनभर कमाना है, कमाने के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है, तनिक पुण्य का काम भी लगे हाथ कर लिया जाए।
शुक्रिया।

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

मरते-मरते मुंशी ने ऐसा क्या किया जो गांव भर की हाथों में लग गईं हथकड़ियां

किसी गांव में एक मुंशी रहता था, नाम था खटेसर लाल। बहुत धूर्त और काइंया किस्म का आदमी था। जितनी भद्दी शक्ल उतनी ही बुरी अक्ल। गांव वाले उसे राक्षस कहते थे। पाई-पाई का हिसाब रखता था। गांव भर में सूद पर पैसे बांटता फिर उगाही करता। दादा ले पोता बरते। हाल यह था कि बगेदू के बाबा ने खटेसर के दादा से कर्ज़ लिया था लेकिन सूद और मूलधन की भरपाई बगेदू का पोता कर रहा था। लाला से जिसने लिया कर्ज़ बढ़ा उसका मर्ज़। समय से कर्ज़ न चुकाने वाले की खाल उधेड़ लेता था खटेसर।

यह बात दो-चार कोस में मशहूर थी कि खटेसर मुंशी ने जिसे कर्ज़ दिया उसके ख़ानदान की सारी धन-दौलत गई मुंशी के हाथों में।

खटेसर अकसर कहता कि जब मैं मरूंगा तो गांव भर रोएगा। किसी के घर चूल्हा नहीं जलेगा। लोग उसके पीछे होते ही कहते घंटा! गांव भर उत्सव मनाएगा। पटाखा छूटेगा, छुरछुरियां छूटेंगी। इस निशाचर के आगे-पीछे है ही कौन रोने वाला? उधार पर दिए गए पैसों का ब्याज़? क़फ़न में जेब थोड़े ही होती है।

बात इतने पर ही नहीं ख़त्म होती। देश-दुनिया का कोई पाप बचा नहीं था जो मुंशी ने न किया हो।चोरी, डकैती, सेंधमारी, बलात्कार, छेड़खानी सब मुंशी के दाएं हाथ का खेल था। मरने के कुछ दिन पहले ही भंसूती की बिटिया का दिन दहाड़े हाथ दबोच लिया था। नातिन के उम्र की रही होगी। बेचारी चीखती रह गई लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि बढ़कर बिटिया को छुड़ा दें। थाना-पुलिस सब में उठक-बैठक थी खटेसर की। गरीब की छोकरी की कौन इज़्ज़त?

खटेसर मुंशी सुबह-सुबह मैदान मार कर आ रहा था तभी भकन्दर का अटैक हुआ और नील-टीनोपाल लगी सफ़ेद खादी की धोती लाल लाल हो गई। गांव में हल्ला मचा कि खटेसरा का पाप फूट रहा है। कोई कहता कोढ़ हो गया है तो कोई कहता कैंसर हो गया है। खटेसर मुंशी ने खाट पकड़ ली। झरखू बहू बर्तन मांजने आती थी मुंशी यहां। पति था शराबी लेकिन बच्चे पैदा किया आठ। छह बेटी, दो बेटा। दोनों लड़के अभी चार साल से कम उम्र के थे। गांव में हल्ला मचता कि दोनों औलाद खटेसर के हैं। रंग रूप भी वही पाए थे। बहुत हरामी था मुंशी। डरा-धमका कर रखता था सबको। किसी की हिम्मत जो उसके ख़िलाफ़ कोई मुक़दमा लिखवा दे।

झरखू को पत्नी से जरा भी प्रेम न था। उसे बस पैसे चाहिए थे। खटेसर जो पैसे उसकी बहुरिया को देता उसे झरखू छीन कर दारू खरीद लाता। जैसे-तैसे ज़िंदगी कट रही थी।

खटेसर की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती चली जा रही थी। जिस पर दयू(भगवान) की मार पड़ती है उसे कौन बचा सकता है। डॉक्टर-वैद्य किसी की दवाई खटेसर के काम नहीं आ रही थी।

झरखू बहू ने भी सबको बता दिया कि अब मुंशी खटिया पर ही पैखाना-पेशाब करता है। बड़बड़ाता रहता है कि मैंने गांव वालों को बहुत सताया है उनसे कहो कि मुझे माफ़ कर दें। हफ़्तों झरखू की बहुरिया मोहल्ले में घूम-घूम कर यही कहती रही। गांव वाले पसीज गए। गांव के चौकीदार कल्लू मुंशी यहां पहुंचे। ख़ूब छनती थी दोनों की। शाम होते ही दोनों महुआ का ठर्रा लगाते थे। खटेसर के बाप ने मरते वक़्त उसे क़सम दिलाई थी कि मर जाना पर अपने पैसे से शराब न पीना। सो शराब लाने की ज़िम्मेदारी थी चौकीदार की। थाने में दरबारी करने का यही लाभ चौकीदार को मिलता था कि दरोगा दारू मुफ़्त में देता था लेकिन चखना और भरपेट भोजन का जुगाड़ करता था मुंशी खटेसर।

गांव में चौकीदार कल्लू ही उसके घर से कुछ पाया था वर्ना सब उसे देते ही थे लेकिन जब बिमारी की मार पड़ी तो दोस्ती टूट गई। कल्लू और खटेसर की यारी, यारी नहीं रहगुजारी थी। कल्लू खटेसर को बिस्तर पर लेटे देखा रो पड़ा। जिसकी धोती में लाट नहीं लगती थी उसकी धोती में बवासीर के धब्बे। दूर से ही बदबू मार रहा था बेचारा। मुंह से अकस्मात निकला पाप ऐसे ही सड़ता है।

खटेसर कल्लू को देखते ही कहा, “दोस्त! एक काम कर दो। आज दरोगा जी को बुला दो। बहुत किरपा होगी। वकील साहब को भी बुला लाना। एक वसीयत लिखवानी है गांव वालों के नाम।”

कल्लू ने सोचा मरते वक़्त तो आदमी अगर पश्चाताप कर ले तो उसके पाप कम हो जाते हैं। हो सकता है कि खटेसर मौत नज़दीक देख बदल गया हो। सही में गांव के लिए कुछ करके मरना चाहता हो। माफ़ी मांगना चाह रहा हो।

कल्लू पसीज गया। दरोगा साहब और वकील साहब को खटेसर के घर लेते आया। खटेसर ने कहा दोस्त अब तुम जाओ कुछ बात करनी है दरोगा साहब से। कल्लू ने बात मान ली, चला गया।

खटेसर ने दरोगा साहब से न जाने क्या-क्या लिखवाया। दरोगा साहब तो अपने बाप की मय्यत में भी न जाते, मरते खटेसर से भी वसूल लिया 500। वकील साहब ने एक वसीयत लिखी। बिना स्टांप पेपर के, सादे काग़ज़ पर लिख कर वकील साहब तीर्थ यात्रा पर चले गए। वकील साहब से खटेसर की पुरानी यारी थी तो यह काम उन्होंने मुफ़्त में किया।

एक दिन बड़े सबेरे ख़बर फैली कि खटेसर मर गया। गांव भर में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी। झिनकी, बितनी, झगरू, मंगरू सबके घर में उल्लास फैल गया। सबको लगा अब तो ज़िंदगी संवर जाएगी न ब्याज़ देना होगा न मूलधन। कर्ज़ से राहत।

गांव के पुरोहित खटेसर के घर पहुंचे। खटेसर की तकिया के नीचे एक वसीयत लिखी थी। वसीयत क्या कहें आख़िरी इच्छा थी खटेसर की।

खटेसर ने वकील साहब से लिखवाया था, “जब मैं मरूं तो मुझे घाट तक घसीटते हुए ले जाया जाए। गांव के बच्चे मेरे शव के साथ खटेसर मुर्दाबाद का नारा लगाते हुए चलें। मुझे क़फ़न न ओढ़ाया जाए, न ही मेरे लिए टिकठी का इंतज़ाम किया जाए। मेरी कुंडली में लिखा है कि इससे मेरे पाप कम हो जाएंगे। जब गांव के मर्द घसीटते हुए मुझे घाट पर ले जाएं तो उनकी पत्नियां मेरी लाश को झाड़ू से मारें। इससे मेरे पाप ख़त्म हो जाएंगे और मुझे मोक्ष मिल जाएगा। मेरे मरने के बाद मेरी सारी संपत्ति गांव वालों के नाम कर दी जाए। ”

गांव के पुरोहित ने कहा कि मरते वक़्त अगर आदमी कुछ कह के मरा हो तो उसकी बात मान लेनी चाहिए। इससे आत्मा भी तृप्त होती है और परमात्मा भी तृप्त हो जाते हैं।

पुरोहित की बात गांव वालों ने मान ली। खटेसर मुंशी को खटिया से नीचे घसीटा गया। गांव वाले हो हल्ला मचाने लगे। महिलाएं झाड़ू बरसाने लगीं। खटेसर की लाश खून से लथपथ। उधर कल्लू चौकीदार को ख़बर मिली की खटेसर मर गया तो भागते हुए थाने पहुंचा। दरोगा को बताया कि खटेसर मर गया और उसकी लाश गांव वाले पीटते हुए घाट पर ले जा रहे हैं। दरोगा साहब ने दल-बल बुला लिया और कल्लू चौकीदार के साथ गांव की ओर निकल पड़े।

जैसे ही गांव के किनारे पहुंचे देखते हैं कि खटेसर की लाश को लोग पीटे जा रहे हैं। गांव वालों में उल्लास पसरा है। खटेसर मुर्दाबाद के नारे लग रहे हैं। दरोगा साहब जैसे ही पास पहुंचे जीप से कूद पड़े। पुरोहित पर बंदूक तान दी। दरोगा साहब के साथ कई सिपाही भी थे। गांव वालों को पुलिस ने घेर लिया था।

दरोगा साहब दहाड़े, “ बीमार पड़े खटेसर मुंशी को तुम लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला जिससे तुम्हें कर्ज न देना पड़े। निहायत भले आदमी का जीना तुम लोगों ने हराम कर दिया था। वो तो भला हुआ कि उसने मुझे पहले ही इत्तिला दी थी कि गांव वाले उसे मारना चाहते हैं। पूरी चिट्ठी लिख के मरा है खटेसर। आज अगर कल्लू चौकीदार न होता तो तुम लोग तो मामला निपटा चुके होते। गिरफ्तार कर लो सबको। इन सबको फांसी की सजा दिलवाऊंगा। निहायत ही दरिंदे हैं इस गांव के लोग।”

गांव वाले गिरफ्तार हो गए। बच्चों के सिवाय गांव में कोई न बचा। पूरा गांव ट्रक में लद कर थाने पहुंचा। गांव अनाथ हो गया। पुलिस वाले गांव वालों को उसी तरह पीट रहे थे, जैसे खटेसर अपनी भैंस पीटता था। कल्लू चौकीदार के घरवाले खटेसर की चिता तैयार कर रहे थे। लकड़ियां, गोबर, कंडा, चिपरी सबका बंदोबस्त हो गया था। खटेसर की चिता को आग लग चुकी थी। पूरा गांव सुलग रहा था। बच्चे भूखों मर रहे थे। सबके घरों में ताले लटके थे। गांव में सन्नाटा पसरा था। थाने में बंद गांव वालों की हड्डियां टूट रहीं थीं, खटेसर स्वर्ग से मुस्कुरा रहा था। गांव रो रहा था। बच्चे, बूढ़े सभी।
उसकी अंतिम इच्छा पूरी हो चुकी थी।

(यह कहानी मेरे गांव में बच्चे- बच्चे की ज़ुबान पर है।
चार लोग इकट्ठा होते हैं तो यही कहानी बांची जाती है। जनश्रुति है। असली कहानी की भाषा कुछ अलग तरह की है..जिसे उसके मूल रूप में लिखने के लिए जिस स्तर की प्रगतिशीलता चाहिए वैसी अभी मुझमें नहीं है।)

-अभिषेक शुक्ल


मंगलवार, 10 अप्रैल 2018

राजनीतिक पार्टियों की व्यर्थ संवेदना समाज के लिए घातक नहीं बल्कि जहर है

किसी के आप सच्चे हितैषी हैं तो उसके साथ सहानुभूति न रखें. सहानुभूति और संवेदनाएं किसी के राहों का कांटा जरूर बन सकती हैं ग्लूकोज का काम कतई नहीं करने वाली. सहानुभूति की तुलना आप जहर से कर सकते हैं. मीठा जहर. आज कल लोग बहुत संवेदनशील हो गए हैं. सवा सौ करोड़ की आबादी में सारे संवेदनशील जीव किसी खास प्लेटफॉर्म पर आपको मिल जाएंगे.

किसी के लिए दो कदम भी न चलने वाले लोगों में और ज्यादा संवेदना पाई जाती है. औसत से ज्यादा. इनकी प्रवृत्ति इतनी खराब है कि इन्हें पढ़ लें तो आप खुद को अपराधी समझने लगेंगे. हाय! हमने समाज के लिए कुछ नहीं किया.

संवेदना और सहानुभूति किसी को भी निकम्मा बनाने के लिए कैटेलिस्ट का काम करती है. किसी को पंगु करना हो तो बस उसे एहसास दिलाते रहिए कि भाई आपके साथ बहुत गलत हुआ है, बहुत बुरा हुआ है. आपने जितना अत्याचार सहा है कोई और सहता तो मर जाता. देखो आपके साथ कितना भेदभाव लोग करते हैं. आप लड़िए साथी हम पीछे से आपको तक्का देंगे. आपको बहुत मजबूत करेंगे. आप पर लाठी पड़ेगी तो सबसे पहले हम झेलेंगे.

तहकीकात करेंगे तो पता लगेगा वक्त पर यही लोग सबसे पहले भागते हैं. सहानुभूति रखने वाले लोग वक्त पर काम नहीं आते.

समाज का बंटवारा मनु अपने जीवन काल में उतना नहीं कर पाए जितना सोशल मीडिया ने कर दिया है. कोई अगर अपना कल भूलकर आज में जीना भी चाहे तो उसे याद आ जाएगा कि ओह! कल मेरे साथ बहुत कुछ गलत हुआ था. मैं सताया गया हूं. कल को याद कर आज आगे बढ़ने की संभावनाएं खारिज होने लगती हैं.

बांटने वाले लोग दबे पांव अपना काम सलीके से कर रहे हैं. उम्मीद है आगे भी करते रहेंगे. गाना प्यार बांटते चलो पर बना था उसे अपनाया नफरत बांटते चलो के रूप में गया है.

बांटो, जितना हो सके बांट दो समाज को. किसी दिन समाज के दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक, क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण, हिंदू-मुसलमान समझदार जरूर होंगे. तब एक मस्त चिट्ठी लिखेंगे परिवार तोड़ने वाले लोगों के लिए.

उनका संबोधन होगा-
सेवा में,
प्रिय राजनीतिक पार्टियों!
एक बात कहने का मन कर रहा है.
हम आपकी व्यर्थ संवेदनाएं ले क्या करेंगे?
क्या करेंगे?

आपकी निरीह जनता,
जिन्हें आप केवल वोट बैंक समझते हैं.

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

छोड़ोगे जो गरल धरा पर क्या तुम नहीं जलोगे?




तनिक समय अनुकूल हुआ तो नाथ! दर्प क्यों इतना
नेह विसर्जित कर बैठे औ गरल सर्प के जितना?
छोड़ोगे जो गरल जगत में क्या तुम नहीं जलोगे?
तुमको भी रहना धरती पर कैसे यहां पलोगे?
किसी समय तुम अपने विष को खुद ही पी जाओगे
विषधर तुम अपना विष चख कर कैसे जी पाओगे?

मन का झूठा दर्प सहज ही जीवन में दुख बोता
अपनी बोई फसल काटकर मानव क्यों है रोता?
सम्मुख जो भी विपद उपस्थित वह कर्मों का फल है
जिसने समता को अपनाया मानव वही सफल है।

(दिनकर की याद में...शेष प्रवचन फिर कभी 😊)

- अभिषेक शुक्ल।

(15 अक्टूबर 2017 की रचना है.)

(फोटो- pexels)

मंगलवार, 20 मार्च 2018

मेरी किताबें अब अलमारियां पढ़ती हैं




अब मैंने पढ़ना छोड़ दिया है। मेरी किताबें, अलमारियां रोज़ पढ़ती हैं। उनसे जो छूट जाता है, उन्हें मेरा बैग पढ़ता है। मेरे कमरे में अलमारी, बैग, रैक, दरी, चटाई, बेड सब पढ़ने वाले बन गए हैं। जबसे उन्होंने पढ़ना शुरू किया है, मेरा पढ़ने का मन ही नहीं करता।

कई बार सोचता हूं जब रूम में इतने पढ़ाकू हैं तो उनसे कुछ पूछ लिया जाए, घंटों पूछता हूं पर कुछ बोलते ही नहीं। मेरे घर में पड़े सामान बहुत ढीठ हो गए हैं।

उनकी चुप्पी बिलकुल मेरी तरह हो गई है। जैसे मेरा हाल गणित वाली घंटी में हो जाता था, चुप, सन्न, शांत; ठीक वैसे ही।

मेरे हाथ पर तो बेहया के डंडे पड़ते थे लेकिन इन्हें तो मैंने कभी मारा ही नहीं। न ही इनसे मेरा गुरु और शिष्य का संबंध है। इनकी चुप्पी मुझे बहुत अखरती है।

मुझे भरोसा है, किसी दिन मैं यह समझ जाऊंगा कि मुझमें और इनमें कुछ भी अंतर नहीं। इन्हें भी कुछ नहीं आता और मुझे भी कुछ नहीं आता। फिर उसी दिन हमारी कट्टी ख़त्म हो जाएगी और ये मुझसे कहेंगे "दाल, भात, मिट्ठी, कब्बो न कट्टी।"

-इनका अभिषेक।

(फोटो स्रोत- फ्लिकर)

शनिवार, 17 मार्च 2018

क्योंकि साहित्यकार पत्रकार नहीं है



जीवंत किरदारों से प्रेरणा लेना हर लेखक का सामान्य व्यवहार है लेकिन जब लेखक किसी जीवंत किरदार का पीछा करने लगता है तो वह अनभिज्ञता में ही सही, अपने लेखकीय धर्म को तिलांजलि दे रहा होता है। किरदारों का पीछा पत्रकार करते हैं, साहित्यकार नहीं। साहित्य पत्रकारिता नहीं है।

कार्यव्यवहार की दृष्टि से साहित्यकार का काम पात्र रचना है, प्रपंच रचना नहीं। प्राय: ऐसा होता है कि किसी वास्तविक जीवन के किरदार से प्रभावित होते हुए साहित्यकार उसका पीछा करने लगते हैं। किसी किरदार को वास्तविक बनाने के प्रयास में किरदार को ओढ़ने-बिछाने लगते हैं। वहीं साहित्य का उसके मूलधर्म से विलगन हो जाता है।

अनुगामी होकर सब कुछ रचा जा सकता है लेकिन साहित्य नहीं क्योंकि साहित्यकार किसी का अनुगामी नहीं होता, जो होता है वह कुछ और ही होता है, साहित्य से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता है।

वास्तविक जीवन के किरदारों से प्रभावित होकर किरदार गढ़े जाते हैं। ध्यान रहे, सिर्फ प्रभावित हुआ जाता है, किसी किरदार को अक्षरश: लिख नहीं दिया जाता है। कल्पना लेखक के लिए तूलिका की तरह है।
कोरे पन्नों पर छवि उकेरी जाती है। रंगमंच गढ़ा जाता है। कल्पित पात्र रचा जाता है। कल्पना को विस्तार दिया जाता है लेकिन किसी की जीवनी नहीं लिखते।

व्यक्तिगत लेखन, लेखनी के लिए विष की तरह होता है। किसी पर व्यक्तिगत प्रहार यदि लेखक को सीधे तौर पर करना पड़ा तो उसे बौद्धिक रूप से अपंग ही कहा जाएगा।  कल्पना का विस्तार व्यक्ति को सार्वभौमिक बनाता है। किसी रचना को कालजयी बनाने की कला भी कल्पना शक्ति में ही निहित है, प्रपंच में नहीं।

पत्रकार जीवन भर लिखते हैं। सच लिखते हैं। यथार्थ भी। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर किसी को पत्रकारों के नाम याद नहीं रहते क्योंकि जाने-अनजाने में उन्हें भी वास्तविक किरदारों के पीछे भागना पड़ता है। किरदार तो वक़्त के साथ बदलते रहते हैं पर पत्रकार वहीं टिके रह जाते हैं। इसलिए इतिहास दोनों को भुला देता है।

पात्र बदलते रहते हैं। गतिशील जगत में भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी स्थाई नहीं है। जीवन-मृत्यु भी नहीं। जिसे विधि गढ़ती है उसके भी किरदार बदलते रहते हैं। लेकिन जिन किरदारों को व्यक्ति रचता है वह स्थाई हो जाते हैं।

सिनेमा, साहित्य, कला, रंगमंच सैकड़ों उदाहरण हैं जहां किरदार अमर रह जाते हैं। कोई उन्हें रच कर चला जाता है, कोई उनमें नई संभावनाएं तलाशता है। सृजन स्थाई है, कहानियां बार-बार पढ़ी जाती हैं, ख़बर दोबारा नहीं पढ़ी जाती जब तक प्रश्न आजीविका से न जुड़ा हो।



सत्य को प्रत्यक्ष रूप से भी कहा जा सकता है, परोक्ष रूप से भी। साहित्य में प्रत्यक्ष को भी परोक्ष रूप से कहने की परंपरा है। प्रेमचंद ने भी सत्य कहा है, प्रसाद ने भी। महादेवी, अज्ञेय और बच्चन ने भी। सबने भोगा हुआ यथार्थ लिखा है लेकिन सबके कहने का ढंग अलग था। पहले पात्र रचा, फिर बात कही। किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं लगाए। बच्चन का सत्य अज्ञेय या धर्मवीर भारती का सच नहीं है। उन्होंने यथार्थ लिखा। अपना यथार्थ, किसी और का नहीं।

अज्ञेय ने न जाने किसे लिखा, पर चरित्र रच दिया। सच कह दिया। बता दिया कि विरूपता ही असली मनोविज्ञान है। मानव, जिन संबंधों को पवित्र समझता है, उन्हें आदिम मानव कुछ और ही समझता। सामाजिक बंधन थोपे जाते हैं, स्वाभाविक नहीं होते। बच्चन ईमानदार थे। उनमें सच कहने की क्षमता थी लेकिन कल्पना के पुट के साथ। उनकी आत्मकथा को भोगा हुआ यथार्थ नहीं कहा जा सकता।

सृजन की राह पर चलने वाले पथिक यदि वास्तविक जीवन के किरदारों का पीछा करते हैं तो उन्हें अपयश के अतिरिक्त कुछ और हासिल नहीं होता। किरदारों के पीछे भागते-भागते प्रपंच मनोवृत्ति बन जाती है। सामान्य व्यक्ति के लिए प्रपंच उसकी ज़िंदगी का हिस्सा होता है लेकिन लेखक के लिए नहीं। बचना चाहिए। ऐसा यथार्थ क्यों लिखना जिसे पढ़कर खेद हो, क्लेश हो और लोग आहत हों। लेखक का अपराध बोध ह्रदय विदारक होता है। शनै: शनै: वह अवसादी बनने लगता है।

अवसाद ही मृत्यु है। हालांकि उसके अवसादी होने में भी समाज का हित छिपा होता है। लेखक जब अवसाद में होता है तो सृजनशीलता स्वत: बढ़ जाती है। उसका अवसाद जग के लिए मनोरंजक होता है।

संबंध जोड़ने के लिए होते हैं। उन्हें तोड़ने का माध्यम न बनें। सृजक बनें, ध्वनिविस्तारक नहीं। लिखें, प्रपंची न बनें। आपके भविष्य के लिए ज़हर है, आपका प्रपंची होना। ख़बर लिखेंगे या ख़बर बनेंगे फ़ैसला आपका है। सृजन का वृक्ष बनना है या आभासी दुनिया में 300 शब्दों की छोटी सी ख़बर, जिसका प्रकाशन प्राथमिकता के हिसाब से तय होता है, ऐसी ख़बर जिसे लिखने वाला ही याद नहीं रख पाता।

अंत में,

व्यक्तित्व का विस्तार ही जीवन है। इसमें निर्बाध रूप से बहते रहें, आप का सृजन किसी के पांव का कांटा न बने। चुभे न। सृजन का आधार यही है। स्वांत: सुखाय रचना की नींव में बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का मंत्र छिपा होता है। अदृश्य रूप से। इसकी अनुभूति तभी होगी जब आप सृजक बनेंगे, प्रपंची नहीं।

शुभमस्तु।

(भइया ने समझाया है, मैंने बस टाइप ही किया है)


(फोटो स्रोत: www.pexels.com)

शनिवार, 3 मार्च 2018

पर्दा है पर्दा, पर्दे के पीछे पर्दानशीं है



आवरण!
विरूपता को ढकने का आवरण. 
सहजता का बोध न होने देने का आवरण.
पर्दे के भीतर का कलाकार बाहरी दुनिया की दृष्टि से ओझल रहे, इस हेतु आवरण.
दुनिया को आवरण बहुत पसंद है क्योंकि आवरण, यथार्थ ढकने का साधन  है. भ्रम ही सही, किंतु कुछ क्षणों के लिए आवरण का भ्रम किसी को भी दुविधा में डाल सकता है.
अभिनेता भी यही आवरण ओढ़ते हैं क्योंकि आवरण ज्ञात को अज्ञात करने का साधन है. जब कोई अभिनय करता है तो उसके पूर्ववर्ती स्वरूप का ध्यान किसी को नहीं होता. उसकी सत्ता गौण हो जाती है, पटकथा का पात्र प्रासंगिक हो जाता है. अभिनेता की वृत्ति अभिनय है. अभिनय से परे  उसका व्यक्तित्व  होता है. स्वाभाविक, जैसा है वह, वैसा ही.

जिन्होंने अभिनय का ककहरा नहीं सीखा है वह अभिनेताओं से अच्छा अभिनय करते हैं. व्यक्तिगत जीवन में. क्योंकि दुनिया रंगमंच हो या न हो, दुनिया में अभिनेता बहुत हैं. जिनकी वृत्ति अभिनय है, उनका अभिनय क्षणिक है. जिनके लिए अभिनय वृत्ति नहीं है, उन्हें जीवन भर उसे ढोना पड़ता है. यथार्थ जीवन के अभिनेता  भीतर की प्रवृत्ति को बाहर के आचरण से नियंत्रित कर ले जाते हैं. उनका अभिनय स्वाभाविक लगता है. 

मुंशी प्रेमचंद ने कहा भी है, ''धूर्त व्यक्ति का अपनी भावनाओं पर जो नियंत्रण होता है वह किसी सिद्ध योगी के लिए भी कठिन है." ऐसे सिद्धयोगी दुर्लभ नहीं हमारे-आपके सामने घूम रहे हैं. मैं भी उनमें से एक हो सकता हूं, आप भी.

बुराइयों की  भनक किसी को नहीं लगेगी, अच्छाइयों के प्रचार के लिए पर्चे बांटे जा सकते हैं. बांटे भी जाते हैं क्योंकि जब आचरण का विज्ञापन किया जाता है तो रेट अच्छा लगता है. लाखों में. दूल्हा अच्छा बिकता है. लड़की का बाप अच्छा दामाद खरीदता है. राम जैसा.
अलग बात है, हर राम रावण है पर हर घोषित रावण का चरित्र उतना भी खराब नहीं होता जितना शोर मचाया जाता है. तात्पर्य यही कि पुण्यात्माओं से बड़ा पापी ढूंढने से नहीं मिलता. लड़का भी.

मैंने कुछ स्तरीय पाप किए होंगे जिनके बारे में मेरे अलावा कोई नहीं जानता. कोई मेरे बारे में अगर अफवाह भी उड़ाए तो  किसी को विश्वास नहीं हो सकता. बच्चन जी की एक पंक्ति है  जो मुझ पर फ़िट बैठती है, "पाप हो या पुण्य हो कुछ नहीं, मैंने किया, कभी आधे ह्रदय से." सबके लिए मैं अच्छा बच्चा हूं. गुड ब्वॉय. संस्कारी. मेरा कुसंस्कार शायद मुझ तक सीमित है. किसी को  मेरी कमियों की ख़बर भी नहीं होगी. मुझे भी नहीं. हो भी नहीं सकता. भावुकता में सतर्कता के साथ समझौता टूटने नहीं पाया. टूट भी नहीं सकता. लेकिन इससे मेरे पाप तो कम नहीं होंगे. जो किया है उसे भोगना है. किसी भी रूप में. मेरा पाप यह है कि अभिनय मेरी वृत्ति का हिस्सा नहीं है लेकिन मैंने अभिनय किया है. संस्कारी बने रहने का अभिनय, संस्कार को तिलांजलि देने के बाद भी.


तथाकथित संस्कार. घरवालों के लिए राम, भीतर से रावण. दर्पण मुझे काटने दौड़ सकता है अगर कभी सामने पड़ गया तो. कब तक भागूंगा ख़ुद से. सामना तो होगा न कभी न कभी मेरा मुझसे.

प्यार! शरीर! आलिंगन! संबंध! विलगन! निष्कर्ष, चरित्र हनन.
मैं चरित्रवान, मेरे साथ किसी कार्य में जिसकी बराबर की संलिप्तता वह चरित्रहीन.
मैं पुरुष, वह स्त्री.
समाज के लिए मैं राम, वह सुपर्णखा.
मैं अपने घर की मर्यादा का  रक्षक, वह कुलटा.
मैं उत्तम चरित्र का पुरुष, वह वैश्या.
ऐसा क्यों?
मुझे पर मेरे घर को गर्व, मैं कुलदीपक!!
वह कलंकिनी.
महिलाएं कुलटा हैं. पुरुष चरित्रवान हैं.
यह आदिम संविधान द्वारा रची गई माया है. कई युग बीतेंगे इससे पार पाने में. सच यही है.


मेरी तरह लाखों संस्कारी बच्चे घूम रहे हैं. पवित्र. शाश्वत. पावक की तरह. सूर्य से भी अधिक ओजस्वी. दीपमान. संस्कारी तो राम से भी अधिक.
बच के रहिएगा. राम, रावण से ज़्यादा बुरे हैं. कलियुग वाले.
कुकर्म कोई बचा नहीं है. सत्कर्म का आवरण है. पीढ़ियां बीत जाएंगी उस आवरण का अनावरण करने में क्योंकि बहुसंख्यक समाज की अवधारणा अल्पसंख्यक समाज की नियति बन जाती है. न जाने क्यों. बनी-बनाई अवधारणाएं टूटती नही हैं. तोड़ भी नहीं सकते हैं.
मैं भी ग़लत हूं. आप भी ग़लत हैं. सामाज भी ग़लत है. सच पच नहीं पाता. आमाशय समाज का दुर्बल है.
आवरण की आदत लग गई है. लोग वल्कल वस्त्र पहन कर व्यभिचार करते हैं. मैं भी. बहुत प्यारा बच्चा हूं, सबकी नज़रों में. दुआ कीजिए मेरे आवरण का अनावरण न होने पाए.

-अभिषेक शुक्ल


(फोटो स्रोत: Heraldsun)

रविवार, 25 फ़रवरी 2018

नागिन इतनी ख़ूबसूरत होती है क्या?




किसी शायर ने ठीक ही कहा है-
ज़िंदगी क्या है
फ़कत मौत का टलते रहना.

वक़्त कई बार इसका एहसास भी करा देता है. सांसे कब,  किसकी कितनी देर टिकी रहेंगी इसका अंदाज़ा न सांस लेने वाले को होता है न ही साथ रहने वाले को. क़ुदरत है, कुछ रहस्यों पर उसका एकाधिकार है जिसे सुलझाने का हक बस उसे ही है. कोई उसमें चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता. डॉक्टर, वैद्य, वैज्ञानिक सब छलावा है.

श्रीदेवी नहीं रहीं. ब्लैक एंड व्हाइट टीवी के ज़माने में फिल्म देखना किसी त्योहार की तरह होता था. बैटरी और चिमटी के सहारे फिल्म देखने वाली पीढ़ी श्रीदेवी की फैन क्यों न हो?  इतनी खूबसूरत निगाहें उनके अलावा किसकी हो सकती हैं? टीवी पर श्रीदेवी की फिल्म आ रही हो तो सबके आंखों की चमक बढ़ जाती थी. महतो काका, गंगाराम काका, कपूर भाई या मुड़लाही काकी सबको श्रीदेवी ही पसंद थीं.

एक ज़माना आया जब सिनेमा हॉल घर-घर खुलने लगा. मतलब पर्दा वाला वीडियो. थिएटर का संसार, सीधे आपके द्वार. जनरेटर भले ही कितना खटर-पटर करे लेकिन पर्दे पर अगर श्रीदेवी हों तो जनरेटर की आवाज भी बांसुरी जैसी लगती थी.

पर्दे वाले वीडियो पर पहली फिल्म मैंने देखी थी निगाहें. रंगीन पर्दा था. श्रीदेवी थीं. उन्हें ही देखता रह गया बस. प्यार हो गया था तभी. खैर उसके बाद दो फिल्में और चली थीं, मीनाक्षी की नाचे नागिन गली-गली और माधुरी की हम आपके हैं कौन.

माधुरी, मीनाक्षी शेषाद्री और श्रीदेवी. तीनों से एक ही दिन प्यार हो गया था. अब तक प्यार है.  श्रीदेवी मुझे पूर्ण लगती थीं. ख़ूबसूरती की परिभाषाओं में न सिमटने वाली. अद्भुत, अद्वितीय. उनसा कोई न था न होगा.

उनकी आख़िरी फ़िल्म मैंने देखी थी इंग्लिश-विंग्लिश. पर्दे पर वापसी धमाकेदार थी. धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलने वाली अभिनेत्री को इस फ़िल्म में देख कर लगा ही नहीं कि उसे अंग्रेज़ी आती भी होगी. लड्डू बनाने वाली घरेलू महिला, पति के अहंकार और अपमान के  बीच लटकती-झूलती श्रीदेवी. उनसे बेहतर कोई और इस फ़िल्म में शायद ही फ़िट होता.

मैं तेरी दुश्मन-दुश्मन तू मेरा. इसे देखने के बाद कुछ दिन तक मैं भी उन्हें इच्छाधारी नागिन ही समझता था. थीं भी वह कुछ रहस्यमयी सी.
उनकी अदाकारी कम देख पाया उन्हें ही देखता रहा. मेरे लिए उनकी ख़ूबसूरती अभिनय पर भारी पड़ गई थी.

श्रीदेवी अब नहीं हैं. यह सच है. ऑफ़िस आते वक़्त नेट ऑन किया तो सबसे पहले दिखा नहीं रहीं श्रीदेवी. ये ब्रेकिंग सिस्टम भी न अजीब सी चीज़ है. अफ़वाह से पहले सच की ख़बर मिल जाती है. सोचने का भी मौक़ा नहीं मिला कि यह ख़बर अफ़वाह है.

मौत भी अजीब सी मेहमान है. बिना बुलाए आ जाती है. मरने पर रोना-धोना कौन करे.  हैदर अली आतिश ने ठीक ही कहा है-
उठ गई हैं सामने से कैसी कैसी सूरतें
रोइए किस के लिए किस किस का मातम कीजिए.

- अभिषेक शुक्ल

शनिवार, 13 जनवरी 2018

गली के कुत्ते, गली के अंदर, बहुत ही तन कर, खड़े हुए हैं



गली के कुत्ते, गली के अंदर, बहुत ही तन कर, खड़े हुए हैं 
मैं आना चाहूं, गली के अंदर, पड़ी हैं पीछे, हज़ारों कुतियां 
ये भौंकती हैं, वे भौंकते हैं, ये भौंकते हैं, वे भौंकती हैं 
मैं भगना चाहूं, जिगर लगा कर, वे काट खाएं कि जैसे हडियां। 

संभल के चलना, रही है फ़ितरत, मगर लगे हैं, कई सौ टांके 
कई गली में में, मैं गिर के संभला, कई गली में, चुभी थी कटियां 
सिहर ही जाता, मैं याद करके, वो दस बजे का, अजब सा मंज़र 
वो लंबी जीभें, वो दांत तीखे, वो ख़ौफ़ आलम, सियाह रतियां।। 

(आज कुत्ता संघ के द्वारा दौड़ाए जाने के बाद, दिल से यही निकला...क्षमा सहित....आमिर ख़ुसरो…..आलोक श्रीवास्तव.....मेरे साथ वाले लड़के की मरम्मत संघ ने कर दी है, पांच इंजेक्शन उसे लग के रहेगा...मैं सुरक्षित हूं. ये वाला कुत्ता नहीं था...ये अच्छा वाला है...बेरसराय रहता है....IIMC में इसका आना-जाना है)

बुधवार, 10 जनवरी 2018

आंख खुली चौराहे पाए

एक पांव राहों में धरता
सौ-सौ राहें ख़ुद ही फूटें,
अनुभव वाला मांझा लेकर
मेरी रोज़ पतंगे लूटें।

मुझको जाने क्यों भ्रम होता
छाती में आत्म अधीरा है,
जो ओझल जग रही सदा
वह रोती-गाती मीरा है।

मन के भ्रम को कमतर आंके
थोड़ा सा भीतर भी झांके
भय, विस्मय, निर्वेद, ग्लानि की
चादर कोई नियमित टांके।

चीखें सुन सब चुप हो जाते
कहीं दिखाने को रो जाते
जैसे-तैसे सिसक-सिसक कर
चिर निद्रा में ही सो जाते।

इतना मौन घोंटने पर भी
आहें नहीं मिला करती हैं,
आंख खुली चौराहे पाए
हम भी थोड़े से घबराए
लेकिन घबराने से सच है
राहें नहीं मिला करती हैं।।

(अगर मैं मुक्तिबोध होता....ख़ैर हो ही नहीं सकता)

- अभिषेक शुक्ल

सोमवार, 1 जनवरी 2018

Happy New Year 2018: एक दिन, दिल्ली की गलियों में

मेरा भाई समन्वय। नए साल की शुरुआत भाई ने दिल्ली घुमाकर की. ये जो पीठ पर बैग लादे हीरो जैसा लड़का है, घुमक्कड़ बनने के लक्षण इसमें हैं. अगली बार भाई के साथ किसी अच्छी जगह  जाने का मूड बना है. कुछ दिन बाद, अभी नहीं. 
हां तो मैं बता रहा था कि ये हुमायूं का मक़बरा है. अब इस मक़बरे की कहानी मेरी ज़ुबानी तो अभी सुनेंगे नहीं आप, क्योंकि थोड़ा टाइम लगेगा लिखने में जो कि आज कम है.  हम हौज ख़ास विलेज भी गए थे. झील देखने. मक़बरा भी  वहीं ही है. किसकी है मैंने ध्यान नहीं दिया. 
आज तस्वीरें देख लीजिए, कभी बाद में कहानी भी विस्तार से लिखूंगा. हां तो फ़ोटो की शुरुआत भाई से ही करते हैं क्योंकि इस ट्रिप का हीरो तो भाई ही है. 






समन मस्त मूड में. 

ये मॉडलिंग बस समन के कहने पर. वरना मुझे तो फ़ोटो खिंचवाने ही कहां आता है.

हीरो बनाकर ही मानेगा भाई।

अली ईसा खाँ नियाज़ी के मक़बरे के पास. समन आराम करते हुए.



भाई! ऐसा पोज तो कभी मैंने दिया ही नहीं था।

समन की फ़ोटो दिव्य है.


बांछें खिलने ही वालीं थी कि रुक गईं.

सेल्फ़ी ही इस युग का युगधर्म है.

योग करते समन बाबू।


इतना ख़राब पोज मेरे अलावा कोई नहीं दे पाएगा। मैंने कॉपी राइट लगवा लिया है.

ये भी कम थोड़े ही है किसी से. 
ये है कमाल का फ़ोटो है भाई।


हौज ख़ास विलेज वाले झील में बत्तख. मेरे गांव में तो यही कहते हैं इन्हें यहां अंग्रेज़ी में कुछ कहते हों तो नहीं पता मुझे. 
हां तो कहना भूल गया. विश यू ऑल ए वेरी हैप्पी न्यू ईयर. मस्ती कीजिए, ख़ुश रहिए...मेरे साथ जुड़े रहिए...सुझाव देते रहिए.....शुभमस्तु! मिस यू...जल्द ही मिलते हैं कुछ नया लिखकर.