अब मैंने पढ़ना छोड़ दिया है। मेरी किताबें, अलमारियां रोज़ पढ़ती हैं। उनसे जो छूट जाता है, उन्हें मेरा बैग पढ़ता है। मेरे कमरे में अलमारी, बैग, रैक, दरी, चटाई, बेड सब पढ़ने वाले बन गए हैं। जबसे उन्होंने पढ़ना शुरू किया है, मेरा पढ़ने का मन ही नहीं करता।
कई बार सोचता हूं जब रूम में इतने पढ़ाकू हैं तो उनसे कुछ पूछ लिया जाए, घंटों पूछता हूं पर कुछ बोलते ही नहीं। मेरे घर में पड़े सामान बहुत ढीठ हो गए हैं।
उनकी चुप्पी बिलकुल मेरी तरह हो गई है। जैसे मेरा हाल गणित वाली घंटी में हो जाता था, चुप, सन्न, शांत; ठीक वैसे ही।
मेरे हाथ पर तो बेहया के डंडे पड़ते थे लेकिन इन्हें तो मैंने कभी मारा ही नहीं। न ही इनसे मेरा गुरु और शिष्य का संबंध है। इनकी चुप्पी मुझे बहुत अखरती है।
मुझे भरोसा है, किसी दिन मैं यह समझ जाऊंगा कि मुझमें और इनमें कुछ भी अंतर नहीं। इन्हें भी कुछ नहीं आता और मुझे भी कुछ नहीं आता। फिर उसी दिन हमारी कट्टी ख़त्म हो जाएगी और ये मुझसे कहेंगे "दाल, भात, मिट्ठी, कब्बो न कट्टी।"
-इनका अभिषेक।
(फोटो स्रोत- फ्लिकर)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, हमेशा परफॉरमेंस देखी जाती है पोज़िशन नहीं “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (23-03-2017) को "तने को विस्तार दो" (चर्चा अंक-2918) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति :)
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करें