शनिवार, 30 जनवरी 2016

सुख का पेड़


कभी-कभी सोचता हूँ एक पेड़ लगाऊं सुख का और ईश्वर से वरदान मांगूं की जैसे -जैसे समय बढ़ता जाये वैसे -वैसे सुख का पेड़ और सघन हो जाये और एक दिन वह पेड़ इतना सघन हो जाये की समूचा आकाश भी उसे ढकने के लिए छोटा पड़ जाये. एक ऐसा पेड़ रोपूँ की जिसकी सघनता सुख का विस्तार करे ,समय जिसे जीर्ण न कर सके वरन समय भी उसके समृद्ध शाखाओं को को देख नतमस्तक हो जाये और सुख की छाँव में समय भी सुखी हो जाये.

मैं वर्षों से प्रयत्नशील हूँ कि सुख वृक्ष आरोपित करने के हेतु किन्तु इसका बीज कहीं मिला नहीं.
मुझसे पहले मेरे कई पूर्वजों ने सुख का पेड़ रोपना चाहा पर रोप न सके. संभवतः “सर्वे भवन्तु सुखिनः” का अलाप उन्ही प्रयत्नों को सार्थक करने हेतु था किन्तु न जाने कैसा व्यवधान आन पड़ा कि वे विरत हो गए इस वृक्ष का बीज बोन से.
मेरे आदि पूर्वज मनु ने जब समाज की संकल्पना की,संस्कारों की बीज रोपा तभी उनसे एक भूल हो गयी थी .उन्होंने तभी सुख का भी बीज रोपा था जिसके लिए विधाता ने उन्हें वर दिया था. उन्होंने समाज, संस्कार,वर्ण की श्रृष्टि की किन्तु सुख का पेड़ रोप कर उसे सींचना भूल गए.समाज विस्तृत होता गया और सुख का पेड़ क्षीण होता रहा और धीरे-धीरे समय के साथ विलुप्त हो गया.
हमारे ऋषियों,मुनियों ने इस पेड़ को पुनः जीवित करने के लिए असंख्य मंत्र रचे, आह्वान किये,नए सूत्र दिए किन्तु समाज में मानवों ने स्वयं को अनेक ऐसे सघन वृक्षों की छाँव में घिरा पाया कि उनका ध्यान ही “सुख के पेड़” की ओर नहीं गया और यह पेड़ उपेक्षित होकर सूख गया.
लोभ, घृणा,ईर्ष्या,क्रोध,वितृष्णा, व्यभिचार आदि के इतने वृक्ष उगे कि “सुख का पेड़” उनमे कहीं खो गया. इन वृक्षों कि छाया इतनी सघन थी कि आनंद, उल्लास,सुख के पेड़ सूखते चले गए.
आह! मानव की तन्द्रा कभी टूटती ही नहीं है इन वृक्षों की छाया इतनी सघन हो गयी है कि लगता है मानव चिर निद्रा में सो गया है किसी कुत्सित वृक्ष के तले, जीवन की सुधि भूले…जड़वत..चेतना रहित…….मरणासन्न.

शनिवार, 16 जनवरी 2016

गालिब तेरे शहर में

उलझी सी ज़िंदगी है
रूठा सा रहनुमा है,
हैरान है तबीयत
किस बात का गुमाँ है?
एक सुर्ख़ हक़ीक़त है
गुमसुम सी आकिबत है,
इस दिल के मसले ऐसे
हर बात फ़ज़ीहत है;
क्या शायरी कहूँ मैं
क्यों क़ाफ़िया मिलाऊँ,
तेरे शहर में ग़ालिब
हर लफ्ज़ मुसीबत है।।
-अभिषेक शुक्ल

समाज पर गंभीर सवाल है घरलू हिंसा

भारत में घरेलू हिंसा बहुत सामान्य सी बात हैलगभग हर तबके में ऐसी कई दर्दनाक कहानियां देखने और सुनने को मिल जाती हैं जिनसे रूह काँप जाती हैकई बार ये छोटी छोटी लड़ाईयां इतनी विभत्स और हिंसक हो
जाती हैं कि सभ्य समाज पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है कि क्या वास्तव में समाज कहीं से भी सभ्य है

अनगिनत ऐसे चेहरे हैं जिनकी जिंदगी में पति से पिटना स्वाभाविक सी बात है है हर रात इस डर में कटती है की कहीं कोई अनहोनी न हो जाए कहने के लिए ये समाज पुरुष प्रधान है पर इस... भारत में घरेलू हिंसा बहुत सामान्य सी बात है.लगभग हर तबके में ऐसी कई दर्दनाक कहानियां देखने और सुनने को मिल जाती हैं जिनसे रूह काँप जाती है.कई बार ये छोटी-छोटी लड़ाईयां इतनी विभत्स और हिंसक हो जाती हैं कि सभ्य समाज पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है कि क्या वास्तव में समाज कहीं से भी सभ्य है ? अनगिनत ऐसे चेहरे हैं जिनकी जिंदगी में पति से पिटना स्वाभाविक सी बात है. है. हर रात इस डर में कटती है की कहीं कोई अनहोनी न हो जाए. कहने के लिए ये समाज पुरुष प्रधान है पर इस समाज में कापूरुषों की संख्या पुरुषों से कहीं ज्यादा है.शराब पीकर अपनी पत्नी को पीटना कहीं से भी पुरुषोचित आचरण नहीं प्रतीत होता है. ऐसा करने वाले वहीं लोग हैं जो दुनिया में सबसे पिटते हैं लेकिन पत्नी को पीटकर खुद को मर्द समझते हैं.ऐसे नामर्दों से समाज भरा पड़ा है.ये कहने के लिए घरेलू हिंसा है पर शायद आपको न पता हो कि किसी भी प्रकार की हिंसा समाज के विरूद्ध होती है और जो हिंसा समाज के विरूद्ध हो उसके दमन के लिए समाज को आगे बढ़ कर आना चाहिए पर समाज तो इस हद तक आधुनिक हो गया है कि मानवीय संवेदनाएं दम तोड़ चुकी हैं.पड़ोस में कौन पिट रहा है या कौन पीट रहा है इससे किसी को कोई मतलब नहीं है, शायद तभी तो भारत में घरेलू हिंसा की घटनाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं.अनगिनत ऐसी महिलाएं हैं जिनकी जिंदगी इतनी बोझिल हो चुकी है कि उन्हें आत्महत्या करना जीने से ज्यादा आसान लगता है. पारिवारिक कलह झेलना, बच्चों को पालना, एकल मातृत्व का दर्द झेलना हर किसी के बस कि बात नहीं है लेकिन ऐसी जिंदगी जीने वाली महिलाओं की संख्या भारत में बहुत अधिक है. ऐसी लाखों महिलाएं हैं जो हर रोज़ पति से पिटती हैं जिनकी नींद पति के घूंसे-लात से खुलती है और जिन्हे नींद भी पति से पिटने के बाद आती है.वे सिर्फ इस उम्मीद में पूरी ज़िंदगी काट देती हैं कि कभी न कभी तो पति सुधरेगा और अगर उन्होंने विवाह विच्छेद कर लिया तो बच्चों कि परवरिश कौन करेगा? समाज में पुरुष कितने भी अधम कृत्य भले ही क्यों न करे वह सर्वथा पवित्र समझा जाता है और महिला अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का विरोध भी करना शुरू कर दे तो उसे दुश्चरित्र और कुलटा कहा जाता है. समाज की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि पति को भगवान का दर्ज़ा प्राप्त है पर पत्नी को समाज इंसान भी नहीं समझता. ये भगवान जब हैवानियत की हदें पार करता है तो भी घर अन्य सदस्यों को लगता है कि सारी गलती सिर्फ उस बहु की है जो अपने पति से पिट रही है.ससुराल से संवेदना कोई महिला कम ही पाती है क्योंकि इंसान ने अपनी आँखों पर अपने और पराये की इतनी मिटी चादर आँखों पर चढ़ा ली है कि उसे कुछ गलत या सही नहीं दिखता. देश में कई ऐसी महिलाएं हैं जो रोज़ अपने-अपने पतियों से पिटती हैं और करवाचौथ आने पर पति की लम्बी उम्र के लिए व्रत भी रखती हैं. ये तो हर भारतीय नारी करती है क्योंकि उन्हें पति की हरकतों में अपने पूर्व जन्म का कर्म नज़र आता है. पुरुष एक दिन किसी से पिट जाये तो उसे इतनी ग्लानि होती है कि वह किसी का क़त्ल भी कर सकता है क्योंकि उसके स्वाभिमान को चोट लगती है, उन महिलाओं की दशा सोचिये जिनके स्वाभिमान पर हर दिन चोट पहुँचती है उनके मन में कितनी ग्लानि होती होगी, कितना विक्षोभ उन्हें होता होगा अपने आप को पिटता देखकर? इन हिंसाओं की सिर्फ एक वजह है कि महिलाएं अभी पुरुषों कि तुलना में जीविकोपार्जन की लिए कम आत्मनिर्भर हैं. जो आत्मनिर्भर हैं उन्हें कहीं न कहीं ये लगता है कि समाज क्या कहेगा? समाज तब क्यों कुछ नहीं कहता जब उनके साथ बलात्कार होता है? जब उनका दैहिक,मानसिक और सामाजिक शोषण होता है? अगर समाज को इनकी फिक्र नहीं है तो इन्हें समाज की फिक्र क्यों है? एक अनुरोध पूरे पुरुषों से है यदि आप सच में मर्द हैं तो औरतों की इज्जत करना सीखिये,उनकी सुरक्षा की लिए उनकी ढाल बनिये, उन्हें उन परिस्थितियों से बाहर निकालिये जिनमें उनके साथ क्रूरता की जाती हो. समाज का ढाल कानून होता है पर हर जगह कानून तो नहीं पहुँच सकता न?हर जगह पुलिस तो नहीं पहुँच सकती न? आप भी समाज में रहते हैं और आपकी समाज की प्रति कुछ जिम्मेदारी है, ऐसी क्रूरता न करें न करें न करने दें.पुरुष हैं तो पुरुषोचित आचरण भी करना सीखिये. क्या आपको अच्छा लगेगा जब आपकी बहिन, बेटी पर ऐसे अत्याचार हों? संवेदनाएं व्यक्ति को महापुरुष बनाती हैं आप पुरुष तो बन सकते हैं न ? एक अनुरोध उन महिलाओं से हैं जो घरेलू हिंसाओं की शिकार बनती हैं.जो इंसान आपको इंसान न समझता हो उसे आप भगवान तो न समझें. जो इंसान आप पर अत्याचार करे उसे आप सहन न करती रहें,जवाब देना सीखिये, अपने आप को सुरक्षित रखना भी आपका दायित्व है, अपने स्वाभिमान की रक्षा करना भी आपका दायित्व है और किसी को अपने स्वाभिमान को कुचलने का मौका न दें, जो आपके साथ जैसा व्यवहार करे वैसा ही व्यवहार आप भी उसके साथ भी करें.एक बार मैंने कहीं पढ़ा था कि अपराध सहना भी अपराध करने से अधिक गंभीर अपराध है इसलिए अपने प्रति अपराध न करें और न ही किसी को करने दें...इस कविता से बहार निकलने का हर सार्थक प्रयत्न कीजिये- "अबला तेरी यही कहानी, आँचल में दूध आँखों में पानी".