कई बार भाग जाने का मन करता है। अकेलापन काटने दौड़ता है, किसी का साथ होना चुभता है।
लोग साथ हों तो बेचैनी, न हों तो अजीब सी चुभन। ठहाके हर बार अच्छे नहीं लगते, अपनी हंसी भी कई बार ख़राब लगती है।
ख़ुश होना चाहते हैं लेकिन हो नहीं पाते। सच है जो गया है उसे लाया नहीं सकता, फिर भी मन किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए रहता है।
इक उम्मीद कि जो बुरा सपना हम देख रहे हैं अचानक से टूट जाएगा। सब सपना है जिसे हम देखकर परेशान हो रहे हैं। आख़िर आंखें मूंदने पर हमारे आसपास दुनिया होती ही कहां है?
जगह बदलते ही उस जगह के होने का क्या प्रमाण रह जाता है।
शून्य, सब शून्य।
पर शून्य को मन मानता कहां है। थोड़ी सी चेतना मन पर भारी पड़ती है।
साहित्य हर बार दिलासा दे ज़रूरी नहीं, कई बार अवसाद भी देता है। गहरा।
कोई अच्छा नहीं लगता। ऐसा लगता है कि मन पर महादेवी का अधिग्रहण हो गया हो, तन निराला हो गया हो, जिसे कुछ भी सुधि नहीं।
कहानियां स्थिर मन से पढ़ी जा सकती हैं। कविताएं उद्विग्नता में नहीं समझ आतीं। दोनों स्थितियां जूझ रहीं हैं एक-दूसरे से।
मन कह रहा है सब बीत जाएगा। बुद्धि कह रही कि कुछ नहीं बीतता। जो बीत गया है, वह भूलता नहीं, जीवन बच्चन की कविता नहीं है, व्यवहार है।
धरातल पर आकर सिद्धांत बदल जाते हैं। टीस, पीर, मोह सच है, भूलना आदर्श स्थिति।
व्यवहार और आदर्श दो 'ध्रुव' हैं, जिन्हें कोई काल्पनिक रेखा नहीं मिला पाती।
......सांत्वना....दूसरों को देना कितना आसान है....ख़ुद के लिए नागफनी है। गहरे भेदती है।
लोग साथ हों तो बेचैनी, न हों तो अजीब सी चुभन। ठहाके हर बार अच्छे नहीं लगते, अपनी हंसी भी कई बार ख़राब लगती है।
ख़ुश होना चाहते हैं लेकिन हो नहीं पाते। सच है जो गया है उसे लाया नहीं सकता, फिर भी मन किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए रहता है।
इक उम्मीद कि जो बुरा सपना हम देख रहे हैं अचानक से टूट जाएगा। सब सपना है जिसे हम देखकर परेशान हो रहे हैं। आख़िर आंखें मूंदने पर हमारे आसपास दुनिया होती ही कहां है?
जगह बदलते ही उस जगह के होने का क्या प्रमाण रह जाता है।
शून्य, सब शून्य।
पर शून्य को मन मानता कहां है। थोड़ी सी चेतना मन पर भारी पड़ती है।
साहित्य हर बार दिलासा दे ज़रूरी नहीं, कई बार अवसाद भी देता है। गहरा।
कोई अच्छा नहीं लगता। ऐसा लगता है कि मन पर महादेवी का अधिग्रहण हो गया हो, तन निराला हो गया हो, जिसे कुछ भी सुधि नहीं।
कहानियां स्थिर मन से पढ़ी जा सकती हैं। कविताएं उद्विग्नता में नहीं समझ आतीं। दोनों स्थितियां जूझ रहीं हैं एक-दूसरे से।
मन कह रहा है सब बीत जाएगा। बुद्धि कह रही कि कुछ नहीं बीतता। जो बीत गया है, वह भूलता नहीं, जीवन बच्चन की कविता नहीं है, व्यवहार है।
धरातल पर आकर सिद्धांत बदल जाते हैं। टीस, पीर, मोह सच है, भूलना आदर्श स्थिति।
व्यवहार और आदर्श दो 'ध्रुव' हैं, जिन्हें कोई काल्पनिक रेखा नहीं मिला पाती।
......सांत्वना....दूसरों को देना कितना आसान है....ख़ुद के लिए नागफनी है। गहरे भेदती है।
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 15/11/2018 की बुलेटिन, " इंक्रेडिबल इंडिया के इंक्रेडिबल इंडियंस - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-11-2018) को "ओ३म् शान्तिः ओ३म् शान्तिः" (चर्चा अंक-3158) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'