एक पांव राहों में धरता
सौ-सौ राहें ख़ुद ही फूटें,
अनुभव वाला मांझा लेकर
मेरी रोज़ पतंगे लूटें।
मुझको जाने क्यों भ्रम होता
छाती में आत्म अधीरा है,
जो ओझल जग रही सदा
वह रोती-गाती मीरा है।
मन के भ्रम को कमतर आंके
थोड़ा सा भीतर भी झांके
भय, विस्मय, निर्वेद, ग्लानि की
चादर कोई नियमित टांके।
चीखें सुन सब चुप हो जाते
कहीं दिखाने को रो जाते
जैसे-तैसे सिसक-सिसक कर
चिर निद्रा में ही सो जाते।
इतना मौन घोंटने पर भी
आहें नहीं मिला करती हैं,
आंख खुली चौराहे पाए
हम भी थोड़े से घबराए
लेकिन घबराने से सच है
राहें नहीं मिला करती हैं।।
(अगर मैं मुक्तिबोध होता....ख़ैर हो ही नहीं सकता)
- अभिषेक शुक्ल
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना सोमवार १२जनवरी २०१८ के ९१० वें अंक के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर....
वाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर....
सारगर्भित रचना..
जवाब देंहटाएं