शनिवार, 24 सितंबर 2016

झोपड़ियों में बिखरता बचपन

शहर के तंग गलियों में टूटे हुए सपनों की एक लंबी कहानी है. एक अज़ीब सी कुंठा में लोग जीते हैं.कभी कई दिन भूखा रह जाने की कुंठा तो कभी दिहाड़ी न मिलने की कुंठा, कभी सभ्य समाज की गाली तो कभी दिन भर की कमाई को फूंकने से रोकने के लिए शराबी पति की मार, कभी पति का पत्नी को जुए में हार जाना तो कभी बच्चों का नशे की लत में डूब जाना. ये हालात किसी फिल्म की पटकथा नहीं हैं बल्कि सच्चाई है उन झुग्गी-झोपड़ियों की जहाँ हम जाने से कतराते हैं.
इन गलियों की तलाश में निकलने से पहले मैंने बस कहानियां पढ़ी थीं इनके बारे में . नज़दीक से कुछ देखा नहीं था.जब पास गया तो महसूस हुआ कि आज़ाद हुए भले ही दशकों बीत गए हों पर इनके हालात न तब बदले थे न अब बदले हैं. न जमीन का ठिकाना न आसमान का.सिर्फ इनकी ही नहीं इनके पूर्वजों की भी जिन्हें गुज़रे एक जमाना हो गया. आज यहाँ तो कल वहां .भटकना अब आदत सी बन गयी है…
कटी-फटी झोपड़ पट्टियां, बरसाती से तनी झोपड़ियों में रहने वाले लोग जिनका ठिकाना शायद उन्हें भी मालूम नहीं है.इनकी तरह इनके काम का भी कोई ठिकाना नहीं है. कभी कच्ची शराब तो कभी कचरे की तलाश , कभी भांग तो कभी गांजे की तस्करी..दिन भर रिक्शा चलाना तो शाम को पौवा चढ़ाना..हाँ! शायद ये तकलीफें कम करने का कोई सस्ता सा जुगाड़ लगता है इन्हें.कुछ ऐसी ही कहानियां हैं इन झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की.
इनका आज जैसा है, कल भी वैसा ही रहेगा…क्योंकि इनकी गणना ही नहीं होती हमारे सभ्य समाज में, अपने-अपने स्वार्थ साधने में लगे लोगों को इतनी फुरसत कब है कि इनकी सुधि लें.
टहलते-टहलते कुछ बच्चे भी मिल गए. चॉकलेट-बिस्कुट देख कर सब दौड़े चले आये.फटे कपडे, किसी के पैर में चप्पल तो कोई नंगे पावं, ऐसे झपटे जैसे जन्मों से भूखे हों.मैंने एक से पूछा कि पढ़ने जाते हो? तो उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि नहीं..मैं तो पैसे मांगने जाता हूँ. मैंने पूछा कि स्कूल क्यों नहीं जाते तो उसने कहा कि स्कूल जाऊँगा तो बापू मारेगा.
गोलू,मोलू,चिनकू,छोटू और न जाने कितने ऐसे बच्चे हैं जो कभी स्कूल नहीं जाते…इनकी पाठशाला शुरू होती है सड़क पर और ख़त्म भी वहीं होती है, बस इनके हिस्से इतवार नहीं आता.
जब भी कोई अजनबी मिलता है तो कहते हैं- भैया! भूख लगी है. कुछ खाने को दो.इनका पेट हमेशा खाली रहता है . कुछ खाने को दो तो भी पैसा मांगते हैं. पैसा मांगने की एक वजह ये भी है कि ये अपने मां-बाप के कमाई की मशीन हैं. ये बच्चे कभी किसी गैंग का शिकार बनते हैं तो कभी खुद का गैंग बनाते हैं. इनकी आँखों में न तो स्कूल के सपने हैं न ये स्कूल जाना चाहते हैं.
छः से आठ वर्ष तक की उम्र पूरी करते-करते इन्हें बीड़ी, सिगरेट, शराब या भांग की लत लग चुकी होती है…उम्र बढ़ती है तो साथ-साथ नशे की लत भी और हावी होती चली जाती है…फिर ये सिलसिला तब-तक नहीं थमता जब तक की मौत न हो जाए.
हम आधुनिक हो रहे हैं. वास्तविक दुनिया के सापेक्ष हमने एक आभासी दुनिया भी बना ली है.फिर भी हमारे समाज में ही एक बड़ी आबादी ऐसी जिंदगी जीती है.जीवन की अपरिहार्य आवश्यकताएं भी पूरी नहीं होतीं.रोटी के लिए रोज़ लड़ना पड़ता है,औरतों की सिसकियाँ..भूखे बच्चों का रोना..बीमारी से मरते हुए लोग..तिल-तिल मरते ख़्वाब..चैन से सोने नहीं देते.ऐसे में कई बार लगता है कि ये डिज़िटल इंडिया, वर्चुअल वर्ल्ड , इनक्रेडिबल इंडिया , मेक इन इंडिया के स्लोगन बेईमानी हैं समाज से…ये कैसा समाज है जहाँ समता नहीं है?
हम उम्मीद करते हैं कि एक दिन जरूर आएगा जब परिस्थितियां बदलेंगी। जब सबका अपना घर होगा, जब कोई भूखा नहीं सोयेगा, जब सबकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी होंगी…
पर कब तक? शायद ये भागवान को भी नहीं पता होगा….

-अभिषेक शुक्ल
भारतीय जनसंचार संसथान
नई दिल्ली। 

रविवार, 18 सितंबर 2016

धिक! धिक! जन-गण-मन नायक!

हा! भारत! हा! जन-गण-मन!
क्यों दग्ध ह्रदय को लिए फिरे?
क्या प्रत्यंचाएं टूट गईं
या गाण्डीव रह गए धरे?
धिक! धिक! जन गण मन नायक!
क्यों पुनः यही आभास हुआ
होकर मदान्ध तुम नहुष हुए
फिर भारत का उपहास हुआ।।
क्यों शर फिर सीना तान रहा?
क्यों सिमटा मेरा वितान रहा?
क्यों सहानुभूति उपजे मन में
जिन पर वर्षों अभिमान रहा?
छोड़ो दुख का जाप्य जयद
लेकर निषंग रण में उतरो,
जो विपदाएँ आएं पथ में
बन महादेव कण-कण कुतरो।

-अभिषेक शुक्ल
क्रमशः

सोमवार, 12 सितंबर 2016

जीत लो जग का निश्छल प्यार

नयन में उतर रहे कुछ स्वप्न
सार जिनका मुझसे अनभिज्ञ
आज और कल की ऊहापोह
अब कहाँ रहा मेरा मन विज्ञ ?


कई युग बीत गए हैं मित्र
यथावत रहा कहाँ संसार,
नित्य परिभाषाएं बदलीं
हुआ केवल मन का अभिसार.


यही है जीवित मन की शक्ति
यही मानव मन का उद्गार,
एक ही कर्म मनुज के योग्य
जीत लो जग का निश्छल प्यार .
-अभिषेक शुक्ल

सोमवार, 5 सितंबर 2016

अंगिका भाषा और आभासी दुनिया

लोक भाषाएँ लोक संस्कृतिओं की संवाहक होती है.विभिन्न प्रकार की लोक भाषाएँ और लोक संस्कृतियां भारत की विभिन्नता में एकरूपता की अवधारणा को पुष्ट करती हैं.भारत की यही विशिष्टता है विभिन्नता में एकरूपता.इन्हीं लोक भाषाओँ में एक सुमुधर और चिर पुरातन भाषा है अंगिका.

अंगिका भाषा से मेरा परिचय अभी कुछ समय पूर्व ही हुआ है.मैं इस भाषा की विशिष्टता से अनभिज्ञ था. इसका एकमात्र कारण यह था कि अंगिका भाषा मैथिली भाषा के सामान ही प्रतीत होती है.दोनों भाषाओं में विभेद करना केवल उन्ही के सामर्थ्य की बात है जो या तो भाषाविद हैं अथवा जिनकी ये मातृ भाषा है.
आज के युग में हर भाषा अपनी विशिष्टता खो रही है. उदाहरणार्थ अवधी और भोजपुरी को ही देख लीजिए.अवधी कबीर, रहीम और तुलसी दास जी की भाषा रही है. एक से बढ़कर एक ग्रन्थ और दोहे इसमें रचे गए हैं.भारतीय जनमानस का सबसे प्रसिद्द ग्रन्थ “श्री राम चरित मानस ” भी अवधी में ही लिखा गया है.शायद ही कोई सनातन धर्मी हो जिसके घर में रामचरित मानस न मिले, किन्तु यह जिस भाषा में है उस भाषा को लोग भोजपुरी समझने लगे हैं. भोजपुरी हावी हो रही है अवधी पर क्योंकि उसे स्तरीय साहित्यकार नहीं मिल रहे हैं.संयोग से अंगिका भी इसी स्थिति से गुजर रही है.
अंगिका अंग प्रदेश की भाषा है. वही अंगराज कर्ण की भूमि.अंग प्रदेश सदैव से प्रासंगिक रहा है चाहे महाभारत काल की बात हो अथवा बुद्ध काल की। यह प्रदेश सदैव भारत राष्ट्र का गौरव रहा है, किन्तु यहाँ बोली जाने वाली भाषा अंगिका अपने अस्तित्त्व से संघर्ष कर रही है.
यूनाइटेड नेशन्स एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल आर्गेनाइजेशन (यूनेस्को) ने तो इसे विलुप्त भाषाओं में चिन्हित किया है,इसका कारण एक मात्र यही है कि इस भाषा को अच्छे सृजक नहीं मिले.
अंगिका भाषा मिठास की भाषा है, ऐसी भाषा जो बहुत आसानी से सीखी जा सकती है.यूँ तो किसी भाषा का उत्थान या पतन उस भाषा को बोलने वालों की सामरिक आर्थिक,सामाजिक और वैयक्तिक क्षमता पर निर्भर करती है किन्तु कई बार कुछ समर्थ पुरुष ऐसे भी होते हैं जो इन सभी परिस्थितियों की अभाव में भी अपनी भाषा और संस्कृति को आगे ले जा सकते हैं.
ऐसे ही कुछ समर्थ साहित्यकारों से मेरा परिचय हुआ जो अंगिका भाषा के उत्थान के लिए काम कर रहे हैं.
आज बौद्धिक वर्ग एक ही दुनिया में दो तरह की दुनिया में खुद को जीता है. एक वास्तविक दुनिया और दूसरी आभासी दुनिया.
आभासी दुनिया अर्थात फेसबुक,ट्विटर और ब्लॉग वाली दुनिया. ये आभासी दुनिया बौद्धिक वर्ग के लिए किसी वरदान की तरह है.
यदि साहित्यकार अपने भाषा और संस्कृति को जीवित रखना चाहता है तो उसे दोनों तरह की दुनिया में प्रासंगिक होना पड़ेगा.
अंगिका साहित्य को आभासी दुनिया से जोड़ने का श्रेय जाता है कुंदन अमिताभ जी को.इन्होने ही सबसे पहले अंगिका.कॉम नाम की एक वेबसाइट बनायीं और अंगिका से जुडी पुरातन और नवीन सामग्रियों को प्रकाशित करना शुरू किया.
कुंदन अमिताभ के इस पहल का परिणाम यह हुआ की अंगिका साहित्य से जुड़े बड़े नामों में से एक डॉक्टर अमरेंद्र, राहुल शिवाय और ऐसे ही अनेक साहित्यकारों ने इस विधा की रचनाओं को फेसबुक व अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर साझा करना शुरू किया.धीरे -धीरे फेसबुक पर अंगिका समाज बना और दर्ज़नों साहित्यकार अंगिका में कवितायेँ लिखने लगे. अंगिका पुनः जीवित होने लगी.
कोई भी भाषा विश्वपटल पर छा सकती है बस उसे कुछ समर्पित लोग मिल जाएँ. ऐसे ही एक समर्पित युवा साहित्यकार हैं राहुल शिवाय. फरवरी २०१६ में अंगिका भाषा को कविता कोष से जोड़ने का कार्य किया राहुल शिवाय ने. कविता कोष भारतीय भाषाओं की सबसे बड़ी वेबसाइट है. कविता कोष में शामिल होने से अंगिका भाषा को एक बड़ा मंच मिला. देखते ही देखते कविता कोष में २००० से अधिक रचनाएँ और १०० से ज्यादा रचनाकार शामिल हुए.अंगिका दिन प्रतिदिन प्रसिद्द होने लगी.
जिस भाषा को यूनेस्को ने विलुप्तप्राय कहा था वही भाषा एक बार पुनः प्रासंगिक हो उठी. यदि इसी तरह साहित्यकार इस भाषा के उत्थान के लिए दृढ संकल्पित रहे तो इस भाषा का राष्ट्रीय पटल पर आना निश्चित है.
लोक भाषा लोक संस्कृतियों को बाँध कर रखती हैं और यही लोक संस्कृतियां भारत की विशेषता रही हैं. इनके जीवित रहने से ही भारतीयता की पहचान है इसलिए इनका संरक्षण अनिवार्य है….
- अभिषेक शुक्ल
लोक भाषाएँ लोक संस्कृतिओं की संवाहक होती है.विभिन्न प्रकार की लोक भाषाएँ और लोक संस्कृतियां भारत की विभिन्नता में एकरूपता की अवधारणा को पुष्ट करती हैं.भारत की यही विशिष्टता है विभिन्नता में एकरूपता.इन्हीं लोक भाषाओँ में एक सुमुधर और चिर पुरातन भाषा है अंगिका.
अंगिका भाषा से मेरा परिचय अभी कुछ समय पूर्व ही हुआ है.मैं इस भाषा की विशिष्टता से अनभिज्ञ था. इसका एकमात्र कारण यह था कि अंगिका भाषा मैथिली भाषा के सामान ही प्रतीत होती है.दोनों भाषाओं में विभेद करना केवल उन्ही के सामर्थ्य की बात है जो या तो भाषाविद हैं अथवा जिनकी ये मातृ भाषा है.
आज के युग में हर भाषा अपनी विशिष्टता खो रही है. उदाहरणार्थ अवधी और भोजपुरी को ही देख लीजिए.अवधी कबीर, रहीम और तुलसी दास जी की भाषा रही है. एक से बढ़कर एक ग्रन्थ और दोहे इसमें रचे गए हैं.भारतीय जनमानस का सबसे प्रसिद्द ग्रन्थ “श्री राम चरित मानस ” भी अवधी में ही लिखा गया है.शायद ही कोई सनातन धर्मी हो जिसके घर में रामचरित मानस न मिले, किन्तु यह जिस भाषा में है उस भाषा को लोग भोजपुरी समझने लगे हैं. भोजपुरी हावी हो रही है अवधी पर क्योंकि उसे स्तरीय साहित्यकार नहीं मिल रहे हैं.संयोग से अंगिका भी इसी स्थिति से गुजर रही है.
अंगिका अंग प्रदेश की भाषा है. वही अंगराज कर्ण की भूमि.अंग प्रदेश सदैव से प्रासंगिक रहा है चाहे महाभारत काल की बात हो अथवा बुद्ध काल की। यह प्रदेश सदैव भारत राष्ट्र का गौरव रहा है, किन्तु यहाँ बोली जाने वाली भाषा अंगिका अपने अस्तित्त्व से संघर्ष कर रही है.
यूनाइटेड नेशन्स एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल आर्गेनाइजेशन (यूनेस्को) ने तो इसे विलुप्त भाषाओं में चिन्हित किया है,इसका कारण एक मात्र यही है कि इस भाषा को अच्छे सृजक नहीं मिले.
अंगिका भाषा मिठास की भाषा है, ऐसी भाषा जो बहुत आसानी से सीखी जा सकती है.यूँ तो किसी भाषा का उत्थान या पतन उस भाषा को बोलने वालों की सामरिक आर्थिक,सामाजिक और वैयक्तिक क्षमता पर निर्भर करती है किन्तु कई बार कुछ समर्थ पुरुष ऐसे भी होते हैं जो इन सभी परिस्थितियों की अभाव में भी अपनी भाषा और संस्कृति को आगे ले जा सकते हैं.
ऐसे ही कुछ समर्थ साहित्यकारों से मेरा परिचय हुआ जो अंगिका भाषा के उत्थान के लिए काम कर रहे हैं.
आज बौद्धिक वर्ग एक ही दुनिया में दो तरह की दुनिया में खुद को जीता है. एक वास्तविक दुनिया और दूसरी आभासी दुनिया.
आभासी दुनिया अर्थात फेसबुक,ट्विटर और ब्लॉग वाली दुनिया. ये आभासी दुनिया बौद्धिक वर्ग के लिए किसी वरदान की तरह है.
यदि साहित्यकार अपने भाषा और संस्कृति को जीवित रखना चाहता है तो उसे दोनों तरह की दुनिया में प्रासंगिक होना पड़ेगा.
अंगिका साहित्य को आभासी दुनिया से जोड़ने का श्रेय जाता है कुंदन अमिताभ जी को.इन्होने ही सबसे पहले अंगिका.कॉम नाम की एक वेबसाइट बनायीं और अंगिका से जुडी पुरातन और नवीन सामग्रियों को प्रकाशित करना शुरू किया.
कुंदन अमिताभ के इस पहल का परिणाम यह हुआ की अंगिका साहित्य से जुड़े बड़े नामों में से एक डॉक्टर अमरेंद्र, राहुल शिवाय और ऐसे ही अनेक साहित्यकारों ने इस विधा की रचनाओं को फेसबुक व अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर साझा करना शुरू किया.धीरे -धीरे फेसबुक पर अंगिका समाज बना और दर्ज़नों साहित्यकार अंगिका में कवितायेँ लिखने लगे. अंगिका पुनः जीवित होने लगी.
कोई भी भाषा विश्वपटल पर छा सकती है बस उसे कुछ समर्पित लोग मिल जाएँ. ऐसे ही एक समर्पित युवा साहित्यकार हैं राहुल शिवाय. फरवरी २०१६ में अंगिका भाषा को कविता कोष से जोड़ने का कार्य किया राहुल शिवाय ने. कविता कोष भारतीय भाषाओं की सबसे बड़ी वेबसाइट है. कविता कोष में शामिल होने से अंगिका भाषा को एक बड़ा मंच मिला. देखते ही देखते कविता कोष में २००० से अधिक रचनाएँ और १०० से ज्यादा रचनाकार शामिल हुए.अंगिका दिन प्रतिदिन प्रसिद्द होने लगी.
जिस भाषा को यूनेस्को ने विलुप्तप्राय कहा था वही भाषा एक बार पुनः प्रासंगिक हो उठी. यदि इसी तरह साहित्यकार इस भाषा के उत्थान के लिए दृढ संकल्पित रहे तो इस भाषा का राष्ट्रीय पटल पर आना निश्चित है.
लोक भाषा लोक संस्कृतियों को बाँध कर रखती हैं और यही लोक संस्कृतियां भारत की विशेषता रही हैं. इनके जीवित रहने से ही भारतीयता की पहचान है इसलिए इनका संरक्षण अनिवार्य है….
- अभिषेक शुक्ल