सोमवार, 9 सितंबर 2019

हम शहरों से ऊबे हैं














पतझर जैसे क्यों दिन हैं
सिसकी वाली सब रातें,
उलझन को अंक समेटे
कितनी अनसुलझी बातें।

क्या समझ हमें आयेगा
नगरों का यह कोलाहल,
हा! कौन यहां पीयेगा
जगती की पीर हलाहल।

जीवन भर का आडम्बर
आडम्बर ही जीवन भर,
मन कहे चलो अब छोड़ो
कुछ शेष बचा है घर पर।

इक खटिया है दो रोटी
जी भर पीने को पानी,
भरपेट हवा मिलती है
दस लोग हज़ार कहानी।

इच्छाओं पर अंकुश है
भोली-भाली सौ आंखें,
दो बूंद धरा पर पड़ती
सबको उग आतीं पांखें।

हर शाम हवा चलती है
हर रात टीमते तारे,
हर सुबह कूकती कोयल
हर दिन क्या ख़ूब नज़ारे।

हम शहरों से ऊबे हैं
वैभव में रहे किनारे,
अब गांव लौट आओ तुम
मन ही मन मीत पुकारे।

हम लौट चलेंगे साथी
शहरों से खाकर ठोकर,
जाने क्या क्या हासिल कर
जाने कितना कुछ खोकर।

बस काट रहे दिन अपना
अनुभव की गीता गाकर,
कर्मों की आहुति देकर
जीवन का आशिष पाकर।

- अभिषेक शुक्ल।

रविवार, 8 सितंबर 2019

दिन बहुरते हैं


अच्छे दिनों की बुराई इतनी सी है कि उनका प्रभाव बहुत क्षणिक होता है. बुरे वक़्त से दो दिनों के लिए ही भेंट हो जाए तो महीनों के अच्छे दिन निष्प्रभावी हो जाते हैं. दुख के दो दिन, महीनों, वर्षों के अच्छे दिनों पर भारी पड़ जाते हैं.

मन बस यही कहता है कि कब दिन बहुरेंगे.

अब दु:ख सहा नहीं जाता. पानी नाक तक आ गया है, अगर डूबे तो फिर नहीं उबरेंगे.

जीवन की सारी सुखद स्मृतियां कहीं बीत जाती हैं, जिनकी रत्तीभर याद नहीं आती.

लगता है सब कुछ ख़त्म. कुछ शेष नहीं. इच्छाएं, अनिच्छाएं, कुछ भी स्थाई नहीं रह जाती हैं. दिन बीतता नहीं है, रात कटती नहीं है. ठहरने का मन करता है, लेकिन मन न जाने किस दिशा में यात्रा करता है, तभी एक झपकी आती है. विराम.

(फोटो साभार- https://wallpaperaccess.com/sunrise)


दिनों की व्यग्रता...पलों में ओझल होती है.

मन खिलता है...कुछ याद नहीं रहता.

लगता है कि कोई बोझ था, उतर गया. अब सब कुछ नया. सब कुछ फिर से. जैसे मन उर्जस्वित हो गया हो...जैसे मनचाहा वर मिल गया हो...जैसे किसी ने कह दिया हो- का चुप साधि रहा बलवाना.....अजर अमर गुननिधि सुत होऊ.....

फिर क्या....

लगने लगता है......दिन बहुर गए हैं.

दिन बहुरते हैं.