तनिक समय अनुकूल हुआ तो नाथ! दर्प क्यों इतना
नेह विसर्जित कर बैठे औ गरल सर्प के जितना?
छोड़ोगे जो गरल जगत में क्या तुम नहीं जलोगे?
तुमको भी रहना धरती पर कैसे यहां पलोगे?
किसी समय तुम अपने विष को खुद ही पी जाओगे
विषधर तुम अपना विष चख कर कैसे जी पाओगे?
मन का झूठा दर्प सहज ही जीवन में दुख बोता
अपनी बोई फसल काटकर मानव क्यों है रोता?
सम्मुख जो भी विपद उपस्थित वह कर्मों का फल है
जिसने समता को अपनाया मानव वही सफल है।
(दिनकर की याद में...शेष प्रवचन फिर कभी 😊)
- अभिषेक शुक्ल।
(15 अक्टूबर 2017 की रचना है.)
(फोटो- pexels)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-04-2018) को ) "रहने दो सम्बन्ध" (चर्चा अंक-2930) पर होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी