tag:blogger.com,1999:blog-32047973560794139312024-03-08T03:34:52.544-08:00वंदे मातरम्जिस नक्षत्र में जय ही जय हो, उसमें ठहर-ठहर बीतूंगा.अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.comBlogger254125tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-30809422974893386712024-02-04T07:20:00.000-08:002024-02-04T07:20:13.954-08:00मन का बंधन झूठ है<p> कौन किसी के पास है, कौन किसी से दूर<br />किससे नाता नेह का, कौन यहां मजबूर?</p><p>किसका बंधन झूठ है, किसका बंधन सांच<br />कौन मोह में तप रहा, किसका नाता कांच?</p><p>कौन यहां मजदूर है, कौन यहां मलिकार<br />कौन बिराजे राजघर, कौन सहे फटकार?</p><p>मन बस निज से दूर है, मन बस निज के पास<br />मन से नाता नेह का, मन ही सबका खास।</p><p>मन का बंधन झूठ है, मन का बंधन सांच,<br />मनवा मन में तप रहा, मन का नाता कांच।</p><p>मन जग में मजदूर है, मन ही है मलिकार, <br />मनहि बिराजे राजघर, मन ही सहे फटकार।।</p><p>मन में लाखों झोल हैं, मन कितना अनजान,<br />मन में बइठा चोर है, मन बड़का बइमान।।</p><p><br /></p><p>- अभिषेक शुक्ल</p>अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-67371388062294100952022-03-18T12:05:00.001-07:002022-03-18T12:05:28.415-07:00मधूलिका, जयशंकर प्रसाद की अद्वितीय नायिका<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhCWP-uWswlb4kbjiNaepNmkf23_HGRHxk6B-hZjA-zJigClsddAr5IGx-MTK7iqaKgSNifKua0r2SHE0-3gwgMebMqc1g7cSdjx-hLJ1TGPy1kwRvI91NnTcIPHyKKwU-0RsoIK4xwtWI5H0NJKZijuLUVqKl0A8MkcFF7fRQC6Uq5oyyNWfbm_D8nSA=s3162" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3162" data-original-width="2136" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhCWP-uWswlb4kbjiNaepNmkf23_HGRHxk6B-hZjA-zJigClsddAr5IGx-MTK7iqaKgSNifKua0r2SHE0-3gwgMebMqc1g7cSdjx-hLJ1TGPy1kwRvI91NnTcIPHyKKwU-0RsoIK4xwtWI5H0NJKZijuLUVqKl0A8MkcFF7fRQC6Uq5oyyNWfbm_D8nSA=s320" width="216" /></a></div><br /><p><br /><br />कोशल का राजवैभव जिसे तुच्छ लगा वह मधूलिका थी. राजकीय अनुग्रह की ऐसी अवहेलना कृषक कुमारी ही कर सकती थी. भूमि उसकी थी, श्रम उसका था, राजा का कुछ नहीं था, राजविधान को छोड़कर.</p><p><br /></p><p>महाराज जिस भूमि को देख लें वह उनकी. राष्ट्र नियम वही जिसे राजा ने तय किया है. राजकीय स्वर्ण मुद्राओं का ऐसा तिरस्कार कोशल के इतिहास में किसी ने नहीं किया था. </p><p><br /></p><p>जो विनिमय को तैयार नहीं, उसे विपणन से क्या प्रत्याशा?</p><p><br /></p><p>महाराज का प्रलोभन अयाचित ही रहा.</p><p><br /></p><p>सिंहमित्र ने राष्ट्र के लिए प्राणोत्सर्ग किया था. सर्वोच्च बलिदान, उसका संस्कार था. मधूलिका जानती थी कि यम से कैसा भय, स्वाभिमान के प्रदर्शन की यह परिणति हो सकती है. राजदंड का भय उसे कहां जिसकी नियति में इच्छा मृत्यु हो? </p><p><br /></p><p>मधूलिका, मधूक के पेड़ तले बैठी थी. एक निर्वासित राजकुमार को उससे प्रेम हो गया था.</p><p><br /></p><p>मगध के विद्रोही निर्वासित राजकुमार अरुण, मधूलिका को वह सबकुछ देना चाह रहे थे जिसकी कल्पना ने उसे क्षणिक सुख दिया लेकिन दीर्घकालिक दासता का भान भी. अपने राष्ट्र पर शत्रु का आधिपत्य कहां स्वाभिमानी स्वीकारते हैं.</p><p><br /></p><p>पिता का रक्त जगा तो राष्ट्र की बरबस सुधि आ गई. मधूलिका ने प्रेमी के षड्यंत्र की सूचना महाराज को दे दी. अरुण ने उसी भूमि पर युद्ध की अधारशिला रखी, जिसकी याचना मधूलिका ने राजा से की थी. राजद्रोह का एक ही दंड होता है, मृत्युदंड.</p><p><br /></p><p>अरुण के लिए राजाज्ञा घोषित हुई कि मृ्त्युदंड दिया जाए. उसी समय मधूलिका के लिए पुरस्कार की घोषणा हुई. मधूलिका ने पुरस्कार में मृत्युदंड मांगा. उसने राष्ट्र धर्म भी निभाया और प्रीत भी. </p><p><br /></p><p>बरबस इस पेड़ को देखकर यह कहानी याद आ गई. कहानी लिखी है जयशंकर प्रसाद ने. शीर्षक है पुरस्कार. प्रसाद, सच में प्रसादांत कहानियां लिखते हैं. जो एक बार पढ़ ले, पढ़ने के सम्मोहन से कभी न निकल पाए.</p>अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-5424210273233364832022-03-18T12:03:00.001-07:002022-03-18T12:03:32.652-07:00मारे दुलारे भड़भाड़े कै बुकवा<p> भड़भाड़ जानते हैं? मुझे इसका नाम हिंदी या अंग्रेजी में नहीं पता है. खोजने का मन भी नहीं है. अद्भुत फूल है यह. अम्मा या मम्मी से सुना है कि पहले जो लोग मिट्टी का तेल नहीं खरीद पाते थे उनके लिए यह उजाले का साधन था.</p><p>भड़भाड़ में फूल के अलावा फल भी लगता है. इसका फल देखने में बहुत सुंदर होता है. पौधा जब परिपक्व हो जाता है तब फल आने शुरू होते हैं. जब फल पक जाता है तब उसमें दरारें पड़ जाती हैं. फल के भीतर के कोष में चायपत्ती की आकार के दाने होते हैं. </p><p>संरचना भी चायपत्ती के दानों की तरह. अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है. पहले मुझे लगता था कि यही चायपत्ती है.</p><p>भड़भाड़ के दानों को अगर महीन पीसा जाए तो इनसे तेल निकलता है. पहले लोग इसे इकट्ठा करते थे और तेल निकालते थे. खाने के लिए नहीं बल्कि दीया जलाने के लिए. कभी बहुत उपयोगी रहा भड़भाड़ अब खर-पतवार की तरह है. </p><p>कांटेदार पौधा होता है इसलिए लोग इसे पनपने नहीं देते हैं. कुछ औषधीय गुण भी होते हैं इस पौधे में. अगर आंख उठी हो (कंजक्टिवाइटिस) तो इसका दूध बहुत लाभदायक होता है. जड़ों का इस्तेमाल भी प्राकृतिक पद्धति में चिकित्सक करते हैं. </p><p>तमाम गुणों के बाद भी यह पौधा उपेक्षित है. हेय है. इंसानों की सारी प्रत्याशाएं ईश्वर भी पूरा नहीं कर पाता तो यह तो अंकिचन पौधा ठहरा. कोई बच्चा अगर बहुत बिगड़ जाए तो उसके लिए अवधी में एक कहावत कही गई है. मारे दुलारे भड़भाड़े कै बुकवा. बुकवा का अर्थ लेप होता है. शुद्ध हिंदी में इसे आलेप कहते हैं.</p><p>बिगड़े हुए बच्चों के संरक्षकों पर सारा दोष मढ़ा जाता है. लोग कहते हैं कि अभिभावकों के दुलार ने उन्हें बिगाड़ के रख दिया है. हिंदी में इस अवस्था के लिए कोई कहावत याद आती है? मुझे पता नहीं है कि किसी ने इसके लिए कुछ भी लिखा है. अवधी में बच्चों की इस स्थिति पर कई कहावतें कही गई हैं. अवधी में कहते हैं, 'मारे दुलारे भड़भाड़े कै बुकवा.'</p><p>अर्थ है कि दुलार में किसी को भड़भाड़ का लेप लगाना. अयाचित दुलार से लाभ हो न हो, नुकसान बहुत होता है. भड़भाड़ के लेप में कांटे हो सकते हैं, इससे कुछ फायदा नहीं हो सकता है. गड़ सकता है, चुभ सकता है. अधिकांश मामलों में माता-पिता भड़भाड़ का बुकवा नहीं लगाते, बच्चे खुद ही लगा लेते हैं अपने भविष्य पर. नुकसान होता है, इतना कि उसकी भरपाई न हो सके. जानबूझकर कांटो का लेप मूर्ख ही लगाते हैं. बचना चाहिए, मूर्ख बनने से.</p><p>...आखिर मूर्खता का क्या प्रयोजन?<br /><br /><br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjvUWiFd2exx2Vz93ICTd-85COKMCGEIYV_AUXJC9Vg56JMlMJHRrxb0kyorAxfCT0JMhyNVcu0hXhTmR1uEgMcgnjcxyOOUWqt2N3ksbS5jB7J-9yjPVonQElu1VIoShpxWSeygLcD5w-ZFUEf4Vh7NktLJZbIqjeERMmMgyEqMHanVEcwEu_cRCUd0A=s4624" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2136" data-original-width="4624" height="148" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjvUWiFd2exx2Vz93ICTd-85COKMCGEIYV_AUXJC9Vg56JMlMJHRrxb0kyorAxfCT0JMhyNVcu0hXhTmR1uEgMcgnjcxyOOUWqt2N3ksbS5jB7J-9yjPVonQElu1VIoShpxWSeygLcD5w-ZFUEf4Vh7NktLJZbIqjeERMmMgyEqMHanVEcwEu_cRCUd0A=s320" width="320" /></a></div><br />अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-56035355463995465112022-03-03T05:26:00.000-08:002022-03-03T05:26:04.735-08:00प्रतिरोध की आवाज़ क्यों कर्कश लगती है?<p> कभी-कभी कुछ काम इंसान अनायास ही कर बैठता है. कोई प्रयोजन पूछ ले तो भरसक उत्तर न सूझे. प्रयोजन होता भी नहीं है. जैसे यह सब लिखने का कोई प्रयोजन नहीं है, अनायास ही लिख रहा हूं. दो-तीन साल पहले तक लिखने की आदत थी. कभी-कभी कविता, अकविता, कहानी, निबंध या जो बन पड़ता, लिख देता था. मानता था कि लिखना अच्छी आदत है. पता नहीं कैसे आदत छूट गई. <br /><br /></p><p>मतलब लिखना छूटा नहीं है, स्वांत: सुखाय लेखन छूट गया है. एक दिन किसी ने कहा कि लिखते क्यों नहीं हो. मैंने कहा कि लिखा नहीं जा रहा है. एक उस्ताद जैसे दोस्त ने कहा कि राइटर्स ब्लॉक का नाम सुना है. मैंने नहीं सुना था. बात टालनी थी मैंने कहा कि नहीं जनाता.</p><p>उन्होंने कहा कि एक अवस्था है, जिससे लिखने-पढ़ने वाले लोग ज़िन्दगी के किसी न किसी हिस्से में ज़रूर जूझते हैं. ठीक हो जाएगा लिखने लगोगे. ध्यान दिया तो कुछ ऐसा ही लगा. थोड़ा बहुत इसके बारे में ढूंढकर पढ़ा तो पता चला कि ऐसा होता है. राइटर्स ब्लॉक भी कोई बला है, इसे ज़रा देर से जाना.</p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjb6ybq9ZtVqfmFRv40aXkt1RvnV9840PKIM5riGua1zt7Tblk3EJTGAXkayvlcwTxb6kBczFH9HY3XrRriSyj1szx4eqaAhEAjtXlGR3nq2hWuMbdQtAEHYhoXAyiR0TqvsD6oSIfBQofZX11VENPwHP5oZD0q8U5x-kW4IPcpkFPMhdqjEoxoxCGMuQ=s980" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="735" data-original-width="980" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjb6ybq9ZtVqfmFRv40aXkt1RvnV9840PKIM5riGua1zt7Tblk3EJTGAXkayvlcwTxb6kBczFH9HY3XrRriSyj1szx4eqaAhEAjtXlGR3nq2hWuMbdQtAEHYhoXAyiR0TqvsD6oSIfBQofZX11VENPwHP5oZD0q8U5x-kW4IPcpkFPMhdqjEoxoxCGMuQ=s320" width="320" /></a><br /></p><p>मैं इन दिनों कुछ भी नया नहीं लिख रहा हूं. साहित्य के नाम पर दोहा नहीं लिखा जा रहा है. कुछ सीख भी नहीं पा रहा हूं. कई सारी उलझी चीज़ों में दिमाग उलझा है. ठीक उसी तरह जैसे समाज का एक बड़ा तबका मेंटल ब्लॉक से गुजर रहा है.</p><p>उसे कुछ न समझ आ रहा है, क्या करना है यह भी पता नहीं चल रहा है. क्या आस पास हो रहा है, इन सबमें उलझा है. अज्ञात डर खाए जा रहा है. लोगों के प्रति असहिष्णुता इतनी बढ़ गई है कि कुछ भी सुनने से पहले उसकी प्रतिक्रिया आ जाती है.<br /><br />सच कहूं तो राइटर्स ब्लॉक से किसी एक शख्स को खतरा होता है. मेंटल ब्लॉक से समाज को. राइटर्स ब्लॉक ठीक हो य न ठीक हो लेकिन मेंटल ब्लॉकेज खुलनी चाहिए. तभी शायद बात बने.<br /><br /><b>(फोटो सोर्स- <a href="https://www.flickr.com/photos/dolmansaxlil/4487159833" target="_blank">Flicker</a>)</b></p>अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-70995026799020733442021-10-23T12:41:00.007-07:002021-10-23T13:14:14.349-07:00सरदार उधम: फ़िल्म नहीं, दस्तावेज़ है!<p> इतिहास की भयावहता की वास्तविक गवाही जनश्रुतियां नहीं देतीं, इशारा ज़रूर कर देती हैं कि ऐसा हुआ होगा लेकिन जलियांवाला बाग नरसंहार अपनी जनश्रुतियों से कहीं ज़्यादा भयावह रहा होगा. किताबों से लेकर इतिहास के वैध दस्तावेज़ों तक, जनरल डायर के आदेश पर हुए इस हत्याकांड की भयावहता एक सी नज़र आती है.</p><p>शूजीत सरकार की फ़िल्म 'सरदार उधम' इस तरह से बन गई है कि उसी दौर में खींच ले जाती है. उन सारी बातों का ख़्याल रखा गया है, जिनके बारे में लोग पढ़ते-सुनते आए हैं. यह फ़िल्म कहीं भी अतिशयोक्ति नहीं लगी, घटनाएं थीं, उनके यथार्थ की चित्रण की कोशिश की गई है, जिसे माना जा सकता है कि ऐसा हुआ होगा.</p><p>नरसंहार वाली रात में उधम सिंह को भागते दौड़ते दिखाया गया है. कुछ सीन्स रुलाते हैं, कुछ इतने वीभत्स हैं जिन्हें देखकर कोई भी आंखें मूंद सकता है. सीन में बूढ़े हैं, बच्चे हैं, महिलाएं हैं, छोटी बच्चियां हैं, जिन पर दागी गई हैं अनगिनत गोलियां, एक वहशी अफ़सर के फ़रमान पर. अंतहीन लाशें, दर्द से कराहते लोग, पीड़ा, चित्कार, क्रन्दन. लाशों में ज़िन्दा लोग ढूंढता नायक. कोशिश यही कि जिनकी सांसें चल रही हैं, उन्हें तो इलाज मिल जाए. लोगों को बचाते हुए, ठेले पर लादते हुए उधम. इन दृश्यों में त्रासदी है, जिसे देखकर लोग सिहर उठेंगे.</p><p>कहते हैं यहीं उधम सिंह ने क़सम ली थी कि इस नरसंहार का बदला वे ज़रूर लेंगे. कैक्सटन हॉल वाले सीन में जब माइकल ओ ड्वायर को उधम सिंह बने विकी कौशल गोली मारते हैं तो एक सुकून (अहिंसक होने के बाद भी) सा दिल में उतरता है. कैक्सटन हॉल के सीन में विकी कौशल इतने सहज लगे हैं कि वाक़ई लगता है कि ऐसा ही हुआ होगा.<br /><br /><br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLNl4LINrRd5Zqs2tsQNQQIC44iMEBymWjcfz4E7UbreHBEJ0aIPf9pGB6WPjMllcIRRjgQiTx1wqCCur3EMCKRuQJspRNwAHAfE-W7rRuqF1qm8H5NanD1rZt-yo3VnmJy0aL25gsfqN2/s770/Sardar_udham.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="433" data-original-width="770" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLNl4LINrRd5Zqs2tsQNQQIC44iMEBymWjcfz4E7UbreHBEJ0aIPf9pGB6WPjMllcIRRjgQiTx1wqCCur3EMCKRuQJspRNwAHAfE-W7rRuqF1qm8H5NanD1rZt-yo3VnmJy0aL25gsfqN2/s320/Sardar_udham.jpg" width="320" /></a></div><br /><p>पेंटनविले जेल में ऊधम को दी गई यातना से लेकर फांसी तक के सीन्स, वास्तविक लगे हैं. पटकथा और निर्देशन भी कमाल का है. एक अरसे बाद ऐसी फ़िल्म आई है, जिसमें सभी कलाकारों ने कमाल का अभिनय किया है.</p><p>ब्रिटिश अत्याचारों की जीती-जागती डॉक्यूमेंट्री बन गई है यह फ़िल्म. एक सीन में विकी कौशल जेल में एक अधिकारी से कहते हैं-</p><p>21 साल इंतजार किया मैंने. मर्डर को प्रोटेस्ट मानेगा या प्रोटेस्ट को मर्डर मानेगा आपका ब्रिटिश लॉ?</p><p>फिल्म के अंतिम दृश्यों में उधम सिंह (विक्की कौशल) का एक मोनोलॉग है. उधम सिंह, डिटेक्टिव इंस्पेक्टर जॉन स्वैन से कहते हैं, 'उस रात मैंने मौत देखी. एक बस वही अपनी थी, फिर सब अपने हो गए. जब मैं 18 साल का हुआ तो मेरे ग्रंथी जी ने मुझसे कहा कि पुत्तर जवानी रब का दिया हुआ तोहफ़ा है. अब ये तेरे ऊपर है कि तू इसे ज़ाया करता है या इसको कोई मतलब देता है. पूछूंगा उनसे कि मेरी जवानी का कोई मतलब बना या ज़ाया कर दी.'</p><p>ये फ़िल्म का रिव्यू नहीं है. फ़िल्म बेहद ख़ूबसूरत बनी है. देख सकते हैं. सोशल मीडिया पर लोग कह रहे हैं कि इस फ़िल्म को नॉमिनेट करना चाहिए भारत को ऑस्कर के लिए. सही में कर देना चाहिए. कई वाहियात फ़िल्में ऑस्कर के लिए भेजी गई हैं. यह अच्छी बनी है. मिले भले ही न लेकिन दुनिया एक बार फिर देखे कि सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाले 'ब्रितानी' कितने क्रूर और वहशी थे, जिन्हें अपने कुकृत्यों पर भी कोई पश्चाताप नहीं था.</p><div><br /></div>अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-66955023059180815562021-06-17T02:55:00.002-07:002021-06-17T02:55:55.554-07:00अतृप्ति<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiY8bCutdxNv9oqp7k6Lza8rT_fN9wrk8xoOFAJmTQkwTGj2wEj_96qaJ77uCMNvvaLyspKBsNiDPWXwUnN8OdjqP0nmN1rIZOMqzCIyHV0k3beNUBncN7oB-K76Az-LbS6U5sMp5pDZqcU/s1050/Awadhoot.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="701" data-original-width="1050" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiY8bCutdxNv9oqp7k6Lza8rT_fN9wrk8xoOFAJmTQkwTGj2wEj_96qaJ77uCMNvvaLyspKBsNiDPWXwUnN8OdjqP0nmN1rIZOMqzCIyHV0k3beNUBncN7oB-K76Az-LbS6U5sMp5pDZqcU/s320/Awadhoot.jpg" width="320" /></a></div><br /><p>पहाड़ों को ज़मीन अच्छी लग रही थी। ज़मीनों को समंदर। समंदर पठार बनना चाहता था; पठार अपने भीतर के घाव से जूझ रहा था। </p><p>पठार की कुंठा थी कि हाय! न हम समंदर बने, न समतल रहे, न पहाड़ों में गिनती हुई। </p><p>जिसका जो यथार्थ था, वही उसे काटने दौड़ रहा था। ईश्वर उलाहने, ताने सुनकर क्षुब्ध था, सबकी अतृप्त अभिलाषाओं का ठीकरा उस पर फूट रहा था। सबकी व्याधियों का नियंता वह तो नहीं, फिर दोषी क्यों?</p><p>दुःखी ईश्वर के मुंह से अनायास फुट पड़ा, संतुष्टि के आतिथ्य का अधिकारी वही, जो जड़बुद्धि हो</p><p>तब से ही, अवधूत सुखी हैं, बुद्धिमान पीड़ित। मूर्ख परमानंद में हैं, ज्ञानी कुंठित। इच्छा, अभीप्सा और प्रत्याशा के आराधक अवसाद में हैं, जड़भरत के अनुयायी मगन।</p><p>जो प्रश्न, बुद्ध से अनुत्तरित रहे, उन्हें अवधूतों ने सुलझा लिया। जहां बुद्धि है, वहां असंतोष है। जहां आनंद है, वहां बुद्धि का क्या प्रयोजन?</p><p>इतनी सी बात न ज़मीन को समझ आई, न समंदर को। न पहाड़ ने यथार्थ समझा, न पठार ने। अंततः हुआ यह कि पहाड़ दरकने लगे, पठार सिकुड़ने लगे, ज़मीन खिसकने लगी और समंदर विश्व के अपशिष्टों को सोख रहा है, धरती बनने के लिए।</p><p><br /></p><p>इनमें से किसी की इच्छा, अभी तो पूरी नहीं हो रही, कुंठा है कि आकाश धर रही है। </p><p>ईश्वर, विपद और विपत्तियों पर प्रसन्न हैं। आंख मूंदकर सोए हैं। कह रहे हैं- भोगो, अपनी-अपनी आकांक्षाओं का प्रारब्ध।</p><p>-अभिषेक शुक्ल.</p>अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-91844796764328486322021-04-01T12:44:00.003-07:002021-04-01T12:44:57.088-07:00जो लौट गये....क्या आयेंगे?<p> जो लौट गए क्या आयेंगे?</p><p>थी राह अपरिचित कूच किये</p><p>किस हेतु चले कुछ ज्ञान नहीं, </p><p>रुक सकते थे पर नहीं रुके</p><p>अनहोनी का भी भान नहीं,</p><p>थोड़े रूठे, फिर रूठ गये</p><p>हम उन्हें मना क्या पायेंगे?</p><p>जो लौट गये...क्या आयेंगे?</p><p><br /></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkRq0aFxEEA1WV0rKqWVEQzKrlY5hnBuIwDKN5OlKTW3VwDAGQWOktbQS-x0BJ-wK18ilpK0cS9lpJ16AnwpyS6XtmHwM_A8IuZ_gL19k2S73KGya_BYl6xMaIT5it0uXIV1lsOShjZX4/s954/Bua_with_bua.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="667" data-original-width="954" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkRq0aFxEEA1WV0rKqWVEQzKrlY5hnBuIwDKN5OlKTW3VwDAGQWOktbQS-x0BJ-wK18ilpK0cS9lpJ16AnwpyS6XtmHwM_A8IuZ_gL19k2S73KGya_BYl6xMaIT5it0uXIV1lsOShjZX4/s320/Bua_with_bua.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">दोनों बुआ के साथ शायद आखिरी तस्वीर यही है.</td></tr></tbody></table><br /><p><br /></p><p><br /></p><p>राहें तय थीं, तिथियां तय थीं</p><p>हम विधिना से अनजान रहे</p><p>वे हुए मौन, फिर कहे कौन</p><p>किससे, किसकी पहचान रहे?</p><p><br /></p><p>जो गया उसे लौटाने का</p><p>कहीं युक्ति जुगत ले जायेंगे?</p><p>जो लौट गये...क्या आयेंगे?</p><p><br /></p><p>जो सृजक वही संहारक क्यों?</p><p>जो सुख दे, दुख का कारक क्यों?</p><p>वैतरणी की नौका धोखिल</p><p>फिर वह प्राणों की तारक क्यों?</p><p><br /></p><p>गति जीवन की सुलझाएंगे</p><p>डूबे तो क्या पछतायेंगे?</p><p>जो लौट गये, क्या आयेंगे?</p><p><br /></p><p>नियती सबकी हन्ता है क्या</p><p>जो लोग गये, किस ठौर गये?</p><p>किसने सांसों को गिन डाला</p><p>किसको लेकर किस ओर गये?</p><p><br /></p><p>विधि ही कर्ता विधि ही दोषी</p><p>विधि को क्या समझाएंगे?</p><p>जो लौट गये, क्या आयेंगे?</p><p><br /></p><p>जो छीना क्या वो तेरा था</p><p>उस पर क्या कम हक़ मेरा था,</p><p>यम ने कैसे दस्तक दे दी</p><p>घर मेरा रैन बसेरा था?</p><p><br /></p><p>हम तेरा क्या कर पायेंगे</p><p>क्या बिन उसके रह पायेंगे</p><p>जो लौट गये, क्या आयेंगे...?</p><p><br /></p><p>किसने जीवन की इति मापी</p><p>किसने जीवों में प्राण भरा,</p><p>किसकी सुधि में लेखा-जोखा</p><p>किसकी बुधि में निर्माण भरा? </p><p><br /></p><p>क्यों लगता है ऐसा जग को</p><p>कुछ प्रश्न सुलझ ना पायेंगे, </p><p>जो लौट गये, क्या आयेंगे........?</p><p>मेरी बुआ.....ऐसे गई कि फिर आई ही नहीं.......!!!<br />13 मार्च 2021. बहुत मनहूस दिन था.</p>अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-47849072788572349642021-02-04T11:49:00.001-08:002021-02-04T11:49:06.005-08:00बोलना, ज़रूरी है क्या?<p>जब हम हद से ज़्यादा बोलते हैं, तब हमें अंदाज़ा भी नहीं होता कि हम कितना ग़लत बोल गए हैं. बोलना ग़लत नहीं है, लेकिन इतना ज़्यादा बोलना, हर बात पर बोलना, बिना सोचे-समझे बोलना, सही भी नहीं है. सोचने में वक़्त लगता है, बोलने में मुंह खोलने की देर होती है, शब्द ख़ुद-ब-ख़ुद आने लगते हैं.</p><p><br /></p><p>ज़्यादा बोलना, कभी-कभी कुछ लोगों को देखकर लगता है कि गंभीर क़िस्म की बीमारी है, जिसका इलाज अभी बना नहीं है. अगर होता तो वे लोग ख़ुद जाकर दवाई लेते. क्योंकि पता तो उन्हें भी होता होगा कि वे ज़्यादा बोलते हैं, जो सेहत के लिए ठीक नहीं है. सिर्फ़ इसलिए कि वे सेंटर ऑफ अट्रैक्शन बने रहें, बोलना है.</p><p><br /></p><p>बोलना न किसी नशे की तरह होता है, जिस इंसान में बोलने की आदत लगे, उसे दुनिया के किसी रिहैबिलेशन सेंटर में डाल दीजिए, निकलकर फिर उसे उतना ही बोलना है, जितना वो पहले बोलता था. सच न, कभी ज़्यादा हो नहीं सकता. थोड़ा सा होता है, लिमिटेड. झूठ की ख़ासियत है कि वो इतना ज़्यादा होता है, कि उसे एक्सप्लेन करने के लिए, ये ज़िन्दगी छोटी पड़ जाए.</p><p><br /></p><p>झूठ एक आर्ट है. झूठों से बड़ा आर्टिस्ट कोई होता ही नहीं है. पलभर में ऐसा सीन क्रिएट करते हैं कि हां, ऐसा ही हुआ होगा, यही हुआ होगा. सच सिंपल होता है. बिलकुल भी अट्रैक्टिव नहीं. कई बार इतना सादा कि सच से ऊब हो जाए. कुछ बेहद अच्छी बॉलीवुड की आर्ट फ़िल्मों की तरह.</p><p> </p><p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhjpf2b4vXAf4K3iqekcitM3NYZ_1KzUduPePLY8we2tvdXOGsrUFxaYC7hNF-Y7TqSlnOYR25AAp0U8VKq3SbnvCCARHD4WxCvqJIMPDjU5DU2uuKPzXW5f2Vskw03AOHr_kAgA0CnxivV/" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img alt="" data-original-height="949" data-original-width="1273" height="239" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhjpf2b4vXAf4K3iqekcitM3NYZ_1KzUduPePLY8we2tvdXOGsrUFxaYC7hNF-Y7TqSlnOYR25AAp0U8VKq3SbnvCCARHD4WxCvqJIMPDjU5DU2uuKPzXW5f2Vskw03AOHr_kAgA0CnxivV/" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">तस्वीर- IIMC के दौरान की है. 4 साल पहले.</td></tr></tbody></table><br />हदें, कुछ सोचकर बनाई गई होंगी. शायद अतिरेक रोकने के लिए. लेकिन बोलने की आदत लग जाए, तो बोलते रहेंगे, नए सीन क्रिएट करते रहेंगे. अपनी ही बातों में फंसते रहेंगे, पर बोलेंगे. क्योंकि बोलना ही है. आदत है. अच्छी हो या बुरी, पर है तो है. </p><p><br /></p><p>जो चीज़े बोलने पर लागू होती हैं, लिखना भी कुछ वैसा ही है. बहुत लिख रहे होते हैं तो पता भी नहीं लगता कितना ग़लत लिख गए हैं.</p><p>आदतें हैं, एक सी ही होती हैं....</p>अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-7464826632414656282021-01-05T11:33:00.007-08:002021-01-05T11:33:53.822-08:00बुद्ध और बुद्धू....<p> शेली, किट्स और ब्राउनिंग कभी पसंद नहीं आए। पसंद आई तो विलियम वर्ड्सवर्थ की फंतासी। नौवीं में पहली बार पढ़ी और अब तक पढ़ रहा हूं लूसी ग्रे। मैथ्यू अर्नाल्ड भी पसंद आए। टेनिसन को पढ़ा तो नींद आई। </p><p>और भी होंगे, जिन्हें पढ़ा लेकिन जाना नहीं। कुछ याद रखने लायक लगा ही नहीं। क्या है न जब आपको कविता पढ़ने के लिए डिक्शनरी खोलनी पड़े तो क्या ही मज़ा?</p><p>हम भाषा सीख सकते हैं, शब्दार्थ समझ सकते हैं लेकिन मर्म नहीं जान सकते। जानते तो शायद गीतांजलि हमें भी समझ आ गई होती। </p><p>ये लोग काव्य जगत के सर्वकालिक कवि हैं, साहित्य के विद्यार्थियों को इन पर श्रद्धा होगी लेकिन जिसने मन को छुआ, वह कोई और था। कुछ ने कहा कबीर हैं, कुछ ने कहा शब्द जानो, कवि क्षणभंगुर है।</p><p>और कवि ने ख़ुद आकर कहा-</p><p>भँवरवा के तोहरा संग जाई...</p><p>मैंने कहा, 'इसका क्या प्रयोजन?'</p><p>कवि ने कहा कि दुनिया ही निष्प्रयोज्य है, तुम्हें प्रयोजन की प्रत्याशा क्यों?</p><p>मैंने कहा, 'अर्थ की लालसा।' </p><p>कवि ने कहा कि लालसा से बुद्ध भागे, तुम कहां टिकोगे?</p><p>मैंने पूछा, 'क्या बुद्ध लालसा के मारे थे?'</p><p>कवि ने कहा हां, 'लालसा ने उन्हें बुद्ध बनाया, तुम्हें बुद्धू।'</p><p><br /></p><p>कवि से कई बार कई सवाल किया, लेकिन कवि इतना ही दोहराता रहा, </p><p>भँवरवा, के तोहरा संग जाई....</p><p><br /></p><p>-अभिषेक शुक्ल.</p>अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-1211248359624320622020-10-30T08:03:00.001-07:002020-10-30T08:17:04.308-07:00प्रोफ़ेशन बदलना क्राइम नहीं है...<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="text-align: left;">कभी-कभी न ख़्याल आते हैं न ख़्वाब। ऐसा क्यों होता है, इसकी कोई वाजिब वजह पता नहीं। शायद पता भी न चले।</span></div><p>ज़िन्दगी अनसुलझी पहेली है, हम कई दफ़ा सुन चुके हैं। सुनते रहे हैं, या शायद सुनते रहेंगे। लेकिन हर पहेली, सुलझती है, धीरे-धीरे वक़्त के साथ। सबका कोई एक जवाब होता है। पर ज़िन्दगी, लाजवाब है। कुछ पता ही नहीं चलता। कभी, कभी भी।</p><p>एक साथ, क्या-क्या चलता है दिमाग़ में ज़ाहिर कर दें तो मुसीबत, न करें तो ऐसा लगे कि ख़ुद के साथ ही धोखा। कई बार लगता है कि जिस रास्ते से गुज़र रहे हैं, सही नहीं है। न हो सकता है। क्योंकि आस पास किसी को उस रास्ते से गुज़रकर मंज़िल नहीं मिली। सबने ख़ुद को खो दिया है। एक क़रार कर लिया है, ज़िन्दगी के साथ कि अब जो चल रहा है, चलने दो। आधे रास्ते में हैं, आधा ही तो पार करना है।</p><p>पर पता नहीं क्यों लगता है कि उसी आधे रास्ते में गड्ढा है, जिसमें से गिरेंगे आंख मूंदकर एक रास्ते पर चलने वाले।</p><p>....ऐसा सोचना ग़लत भी हो सकता है। शायद सबकी मंज़िलें एक सी न हों। सबने अपने-अपने रास्ते चुन लिए हों कि गड्ढे से स्टेप पहले रुक जाना है, या नाव लाकर तैर जाना है।</p><p><br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLcLcsFHUyF_6MPO5xzVEulROgQfZ1Jf49iyL0hK1vNpFWz11TumJATRb6_HowisI-3S_4arfAekpOUOCgqLqd4vAXL8YyBUrhJGzUQ7h5O-MleLcwDq6ulpra1lJ6hgFtQxx5UGosVuCz/s706/Profession.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="397" data-original-width="706" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLcLcsFHUyF_6MPO5xzVEulROgQfZ1Jf49iyL0hK1vNpFWz11TumJATRb6_HowisI-3S_4arfAekpOUOCgqLqd4vAXL8YyBUrhJGzUQ7h5O-MleLcwDq6ulpra1lJ6hgFtQxx5UGosVuCz/s320/Profession.jpg" width="320" /></a></div><p></p><p>बस नाव नहीं चहिए। तैरना नहीं आता लेकिन नाव के ज़रिए सफ़र भी करना। तैराकी सीखनी भी नहीं है। </p><p>रास्ता बदलना है। रास्ते ज़रूरी हैं, मंज़िलों के लिए। कोई एक नई राह गढ़ता है, हज़ारों उस नई राह के राही होते हैं। कई बार नहीं भी होते हैं। कई बार रास्ता बनाना ही मुमकिन नहीं होता। बन भी जाए तो कांटे उगते होंगे। चुभते भी होंगे, उन्हें निकाला जा सकता है। कुछ चुभेगा तो पता चलेगा कि ज़िन्दा हैं। बनी बनाई सड़कें आसान हैं। ऐसा लगता है कि घिसट के पहुंच जाएंगे कहीं पर।</p><p>बस दिक़्क़त घिसटने से है। यही फ़ीलिंग ठीक नहीं होती लाइफ़ में। </p><p>किसी के मंज़िल और मुस्तक़बिल में झांकना ग़लत है। टोकना और भी ग़लत। क्यों ये उम्मीद हो कि कोई मेरी ही बताई राह पर चले? क्यों पुराने ढर्रे ही सबको अच्छे लगें? क्यों न किसी को कभी भी मंज़िल बदलने का हक़ हो, राहें भी? क्यों उम्मीदें बोझ बनें? क्यों न ऐसा हो कि मंज़िल और राहें बदल देने पर अपने सवाल न करें। वेलडन, सब ठीक है। तुम सही हो, दूसरों के साथ ग़लत नहीं करते तो ख़ुद क्यों ग़लत करोगे। मिल जाएगी न यार मंज़िल, बन जाओगे न जो बनना चाहते हो। नहीं भी बने तो फिर नए रास्ते पर चलना। फ़ेल होने के डर से कोशिश नहीं करोगे? जाओ यार.....कर लो न जो करना चाहते हो।</p><p>कभी-कभी ये सब सुनने के बाद भी लगता है कि कुछ ग़लत न हो जाए। ख़ुद के साथ, ख़ुद की सुनने में। सबको लगता होगा। ऐसा सोचना ग़लत है, बहुत ग़लत। कर लो न यार जो करना चाहते हो। बहुत पेनफ़ुल है वो वाली फ़ीलिंग, जिसमें जो आप करना चाहते हो, उसे पोस्टपोन करना पड़े।</p><p>दूसरों को कुछ भी लगे, आपके करियर का सही डिसीज़न आपसे बेहतर कोई नहीं ले सकता। ज़िन्दगी सबको मौके नहीं देती, रिपीटेड लाइन है, एक्सक्लूसिव नहीं। मौके हर बार मिलते हैं। दिखते नहीं, अलग बात हैं। देखने का हुनर सीखो, जब जो मिले लपक लो....निभे तो निभा लो, न सही लगे तो रास्ते अलग।</p><p>प्रोफ़ेशन बदलना क्राइम नहीं है, क्राइम है बिना पासपोर्ट के दुनिया बदल देना।</p><p>(डायरी इन दिनों। डोंट टेक इट सीरियस, लफ़्फ़ाज़ी है...)</p><p>Photo Credit- <em style="background-color: white; box-sizing: inherit; color: #2e2e2e; font-family: Khula, Lato, sans-serif; font-size: 16px;"><a href="https://er.educause.edu/articles/2018/8/the-puzzling-future-of-the-it-profession" target="_blank">DrAfter123 / stockphoto.com © 2018</a></em></p>अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-73455472383790046352020-09-07T03:41:00.001-07:002020-09-07T03:41:15.686-07:00शर्म तुमको मगर नहीं आती<p> ब्लॉग का फ़ीचर इमेज बनाया है Mir Suhail ने.</p><p><br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqRf22SfWKxzdG4dtRB2GydwH6q3IFJdXXuAe4_kUmDOlvrHLXMILh5nwp3_M7ZfnZ1ShJtuR5f4HMYZ4hSNwt-siJ66zrbbnxWdfaTaGwnl1Cy_bhI8pbqQMWAGTHOXceYm3cKJJnEYKl/s1440/vultures.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1164" data-original-width="1440" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqRf22SfWKxzdG4dtRB2GydwH6q3IFJdXXuAe4_kUmDOlvrHLXMILh5nwp3_M7ZfnZ1ShJtuR5f4HMYZ4hSNwt-siJ66zrbbnxWdfaTaGwnl1Cy_bhI8pbqQMWAGTHOXceYm3cKJJnEYKl/s320/vultures.jpg" width="320" /></a></div><br /><p><br /></p><p>अप्रिय कुपत्रकारों और संपादकों!</p><p><br /></p><p>गंजेड़ी, भंगेड़ी और नशेड़ी जैसी कुछ विशिष्ट उपमाओं से आप विभूषित हैं। दैव कृपा से आचरण में भी उपमायें परिलक्षित होती हैं।</p><p>आपका अलौकिक ज्ञान, सोमरस और प्रभंजनपान के उपरांत ही बाहर निकलता है।</p><p>हे अग्निहोत्र के प्रखर प्रहरी!</p><p>आप भी यह जानते हैं कि रिया चक्रवर्ती से कहीं अधिक समृद्ध आपकी 'ड्रग्स मंडली' है। आपके अनुचर नित नए 'माल' के अनुसंधान में साधनारत हैं।</p><p>जिस तरह से माल फूंकना आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है, ठीक वैसी ही रिया की भी। आयात-निर्यात में लिंगभेद के लिए स्थान कहां?</p><p>अपने कर्मक्षेत्र की समाधि पर खड़े हे गुरुवरों! आपके कुकृत्यों पर हम लाज से गड़े जा रहे हैं। शवों का व्यापार करना राजनीति की परिपाटी रही है। आप जुझारू हैं, आपने राजनितिज्ञों का एकाधिकार ख़त्म कर दिया है।</p><p>ऊब हो रही है, घुटन भी। उस मनहूस घड़ी को कोसने का मन कर रहा है जिस घड़ी मसीजीविता की राह पर चले थे।</p><p>आत्मश्लाघा में पगलाये हुये नहुषों, पतित होकर अजगर ही होना है। एक दिन ऐसा आ सकता है कि कुकुरमुत्तों की छाया में बरगद पले।</p><p>पितृपक्ष है, आप पितरों की साधना पर शौच कर रहे हैं। आत्मावलोकन करें, आपको, अपने-आप से घिन आएगी।<br /><br /></p><p>-अभिषेक शुक्ल.</p>अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-57182386670291804282020-08-30T21:23:00.001-07:002020-08-30T21:23:06.630-07:00नाचै-गावै तूरै तान, राखै तेकर दुनिया मान!<p> जीवन दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण सूक्तियां गांवों में रची गई हैं. भले ही वे इस मंशा के साथ न रची गई हों कि कालांतर में उन्हीं पंक्तियों पर जीवन का कार्य-व्यवहार टिका होगा. भले ही शहर उन्हें खारिज करें, या पूर्वाग्रह के चलते उनका बहिष्कार कर दें लेकिन यथार्थ इससे परे नहीं.</p><p>सूक्तियां ऐसी, जो बोधगम्य हैं. उनके दर्शन को समझने के लिए किसी विद्वान की ज़रूरत नहीं. सुनते-सुनते बरबस समझ आए. कभी किसी खेत की मेड़ पर, या कहीं बरगद तले. या किसी काकी-माई को आपस में काना-फूसी करते हुए देखते वक़्त.</p><p>उन बातों को भाषाविद किसी भी श्रेणी में बांट लें. उन्हें सूक्ति कहें, मुहावरे कहें, लोकोक्तियां कहें या कोई भी नाम दें, लेकिन दुनियादारी समझने की कुंजियां वही हैं.</p><p>शेष सब बौद्धिक वितंडा से इतर कुछ नहीं.</p><p>मिमांसा विद्वान करें, लेकिन वर्तमान इन्हीं सूक्तियों की व्याख्या है.</p><p>'नाचै गावै तूरै तान, तेकर दुनिया राखै मान'</p><p>मीडिया से लेकर सत्ता तक.</p><p><br /></p><p>'अपने उघार बिलरिया कै गांती'</p><p>आत्मश्लाघा के अतिरेक में पागल मीडिया, जिसमें रहकर किसी भी सभ्य व्यक्ति का दम घुटे.</p><p><br /></p><p>'बाड़ी बिस्तिुइया बाघेस नाजारा मारै.'</p><p>सीमाओं पर नजर फेरिये.</p><p><br /></p><p>'सब हसै-सब हसै, चलनी का हसै जौने में 72 छेद.'</p><p>पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दिख रही है हर भारतीय को लेकिन अपनी दरिद्रता?</p><p><br /></p><p>'चिरई कै जान जाय, लड़िकन कै खेलौना.'</p><p>मीडिया ट्रायल. चरित्र हनन.</p><p><br /></p><p>'सेमर पालि सुगा पछितानै, मारै ठोड़ भुआ उधियाने'</p><p>कृतघ्नों पर परोपकार.</p><p><br /></p><p>और नहीं याद आ रहा. जब याद आएगा, तब की तब देखेंगे.</p>अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-45183974469200869092020-07-23T21:35:00.000-07:002020-07-23T21:35:53.728-07:00समय धरावै तीन नाम- परशु, परशुवा परशुराम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
गांव में पहली बार दो तल्ले का घर तैयार हुआ. झोपड़ियों वाले गांव में पहली बार ईंट-गारा का पक्का मकान देखकर लोग हैरान रह गए. जब घर बन रहा था तब सुबह-शाम लोग यह देखने आते कि कैसे घर तैयार किया जाता है. जब घर बन गया तो ढींगुर दो तल्ले पर बड़का रेडियो पर गाना गवाते. जो घर देखने आता कहता कि ढींगुर की क्या गाढ़ी कमाई है. <br />
<br />
यह घर ढींगुर का ही था. ढींगुर कोई ज़मींदार नहीं थे. न ही कोई बड़े काश्तकार. जो थे, उसके लिए हद दर्जे का दुर्दांत होना पड़ता है. दुर्दांत ही, जिसे दूसरों का ख़ून नोचने में मज़ा आए.<br />
<br />
यह वही दौर था जब ढींगुर का परचम पूरे जवार में लहराता था. बिरादरी तो बिरादरी, दूसरे लोगों के भी कंकाल कांपते थे उन्हें देखकर. गांव में किसी की क्या मजाल जो उनके सामने तन के खड़ा हो जाए. तूती ऐसी बोलती थी कि जिस ज़मीन पर पांव रख दें, उन्हीं की हो जाती.<br />
<br />
जवार की पूरी बंजर ज़मीन उन्हीं के नाम. जो छुटभैये मर्द बनते थे, ढींगुर की लाठी के सामने पस्त हो जाते थे. जो सज्जन थे, वे सरेंडर कर चुके थे. सारे गिरहकट्टों के सरदार थे ढींगुर. गांव के सारे धन्ना सेठ भी उनके सामने हार बैठे थे. किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि ढींगुर को मनमानी रोकने की हिम्मत करे. हिम्मत भी करे तो कोई कैसे, किसे सालभर भूखे मरना है.<br />
<br />
भूखा ही मरने का तो डर था. थोड़े ही कोई आज वाला ज़माना था नहीं कि परदेस जाकर चार पैसे का जुगाड़ हो जाए. मनरेगा भी नहीं था कि गड़हा पाटकर चार पैसे मिल जाएं. तब पैसा मतलब खेती था. तो सबका धन, सिवान में गड़ा होता था, जिसकी रखवाली राम भरोसे होती थी.<br />
<br />
किसान और व्यापारी में यही तो अंतर होता है कि एक अपना धन सात तिजोरी में बंद करके रखता है तो दूसरा खुले आसमान के तले. उसे आसमान से बरसती आफत से भी डर होता है और ज़मीन के गिद्धों से भी.<br />
<br />
इसी खुलेपन का तो फ़ाएदा उठाते थे ढींगुर. दिन में जो भी ढींगुर से अकड़ता, रात में उसका खेत सफाचट. ढींगुर अपने गुर्गों को लेकर खेत पर पहुंचते और रातो-रात फसल काट ले जाते. दिन में बेचारा किसान खेत पहुंचकर माथ पीटता. थाना-पुलिस का आलम ये कि कोई किसी की बात न सुने. पुलिस का आज ही वाला चेहरा कल भी तो था.<br />
जो आदमी किसी तरह से दो वक़्त के खाने का जुगाड़ कर पाता हो, उससे क्या ही पुलिस उगाही कर पाती. जब पैसा नहीं तो सुनवाई क्या?<br />
<br />
और ढींगुर, लूट का माल बराबर बांटने में भरोसा रखते थे. जितना ख़ुद खाते, उतना ही दूसरों को खिलाते. लूट के माल का एक हिस्सा साल-छह महीने में थाने पर पहुंच जाता. फिर गांव की सुधि कौन ले.<br />
<br />
लूट, डकैती, चोरी, छिनैती, जुआ-गुच्ची, कौन सी ऐसी कुलत्ति थी जो ढींगुर किए नहीं. अत्याचारी इंसान सिर्फ दूसरों के लिए ही नहीं होता. अपने घर पर भी वह अत्याचारी रहता है. गांव के मज़लूमों पर जैसा अत्याचार, वैसा ही अपने घरवाली पर. दारू पीने के बाद तो आलम यह रहता था कि पत्नी को ढोल बना देते थे.<br />
<br />
हर तीसरे दिन ढींगुर बहू, कराहती ही मिलतीं. ढींगुर के चार बच्चे हुए. 4 बेटियां भी. बेटियां बियाह के बाद घर चली गईं. बेटे धीरे-धीरे बाप के रास्ते पर चले. कहते हैं जो जितना तपता है, ढलता भी उसी रफ़्तार से है. धीरे-धीरे ज़माना बदला. ढींगुर को दमा हो गया. जवानी का पाप बुढ़ापे में नज़र आने लगा.<br />
<br />
बेटे निकले बाप से जार जवा आगे. उन्होंने पाप का ककहरा अपने घर से ही सीखा. जो-जो ढींगुर ने दूसरों के साथ वही उनके साथ हुआ. चार बेटों में चार लक्षण. एक बेटा निकला जुआरी. दूसरा बेटा निकला शराबी. तीसरा बेटा निकला गंजेड़ी और चौथा निकला फराडी.<br />
<br />
बेटे जवान हुए और ढींगुर ढल गए. जुआरी बेटा बड़ा था. धूम-धाम से शादी हुई. शादी के एक महीने बाद बांटकर घर से अलग हो गया. ढींगुर ताकते रह गए. शराबी बेटा दूसरे नंबर का था. उसकी शादी हुई तो तीसरे महीने अपनी पत्नी को छोड़कर किसी और के साथ फुर्र हो गया. सोचा भी नहीं कि कोई तीसरा भी आ रहा है, जिसकी ज़िम्मेदारी से वो भाग रहा है. ढींगुर का इतना तो चला कि उसे ज़मीन जायदाद से बेदख़ल कर दिया. <br />
<br />
गंजेड़ी बेटा तीसरे नंबर का था. दिनभर गांजे में व्यस्त. गांजा पीने के बाद इंसान स्वघोषित महादेव का भक्त हो जाता है. सो उसने भक्ति की राह चुन ली. ढींगुर के रहते ही ऐसा फ़रार हुआ कि अब तक नहीं आया. सबसे छोटा जो फराडी था, वो ढींगुर का ही अपडेटेड वर्जन था. जितने ऐब ढींगुर में, उतने ही उसमें. <br />
<br />
शादी के कुछ महीने तक तो किसी ने उसे देखा ही नहीं, चौथे महीने से पत्नी को पीटने की प्रैक्टिस शुरू कर दी. इतना मारता कि कई बार मरने की नौबत आ जाती. ढींगुर की बुढ़ापे में ख़ूब दुर्गति हुई. हर तीसरा आदमी गाली देकर निकल जाता. ज़माना बदल गया था. सबके जेब में पैसा था. पुलिस तो उसकी की जिसका पैसा. ढींगुर की कमाई रह नहीं गई थी, खेती-किसानी पर बेटों ने डाका डाल लिया.<br />
<br />
पैसा सबके पास पहुंच गया था. चोरों का स्टारडम घट गया था. ख़ुद ढींगुर का भी. छोटे बेटे ने एक दिन नाराज़ होकर ढींगुर को पीट दिया. ऐसे पिटाई की कि ढींगुर की पूरी ज़िन्दगी में नहीं हुई थी. माथे से ख़ून बह रहा था. बेटा ही सात पीढ़ी न्यौत रहा था बाप की. ढींगुर को सदमा लग गया. मुश्किल से 12 दिन जिए थे. हानि में मर गए.<br />
<br />
दुर्गति अब शुरू हुई. ढींगुर अपने पीछे छोड़ गए थे एक पत्नी, जो आजीवन उनके सुख-दुख में शामिल रही. सुख तो उसे कभी मिला नहीं, मिली बस मार. वक़्त की भी, नियति की भी.<br />
<br />
अर्धांगिनी वाला जो कॉन्सेप्ट है न, वह कलियुग में भी फलीभूत होता है. ढींगुर के हिस्से का आधा पाप तो भोगकर वे चले गए, आधा सिरे आया पत्नी के. बेटे एक से बढ़कर एक नालायक. मां के पास जो भी है, उस पर डाका डाल गए. हर किसी ने मां को निकाल दिया. <br />
<br />
मां को मिला अलगाव. मां ने सबको हिस्सा दिया, मां किसी के हिस्से नहीं आई. मां ही बेसहारा हो गई. शराबी पूत का जो लाल वो छोड़कर भागा था, वह भी जवान हुआ. जिस घर में वह रह रही थी, वही शराबी पूत के हिस्से आया था. घर निकाला हो गया था, लेकिन एक हिस्सा ढींगुर के जीते-जीते उसे मिल गया था. पोते का आश्रय मिला दादी को. पोते ने कुछ दिन दादी के पास पैसे भेजे, फिर यह जताने लगा कि वही उसे जिला-खिला रहा है. ऐसा था नहीं. मेहनत-मजदूरी करके वो ख़ुद कमा रही थी. दो वक्त का खाना, उसी के भरोसे उसे मिल रहा था.<br />
<br />
पोते ने भी एक दिन तनकर कहा कि मेरा घर छोड़कर जाओ, मेरा सारा पैसा तुम लुटा दे रही हो. चार जवान बेटों की मां के पास घर नहीं. ढींगुर का बनवाया घर जर्जर होकर ढह गया था. बच्चों ने अपनी-अपनी कमाई से घर तैयार कर लिया था. मां के सिर पर छत नहीं था. छप्पर के मकान में महलों में रह चुकी राजमाता रह रही थी. जिसका पूत न हुआ, उसका पोता क्या होगा?<br />
<br />
खेत मां के नाम, घर मां के नाम लेकिन बेटों ने सब हड़प लिया. ढींगुर का सारा यत्न, सारी व्यवस्था, सारा रुतबा धरा का धरा रह गया. उनके मरने के महज कुछ दिन बाद ही सब का सब खत्म हो चुका था. मकान खंडहर था. घर तोड़ा इसलिए गया कि बेटों को हिस्सा नहीं मिल रहा था.<br />
<br />
हिस्सा मिला, किसी का निवाला छिन गया. ढींगुर बहू की किस्मत में मार लिखी थी. मार मिली. कभी बहुओं की तो कभी समय की. कुछ जीव ऐसे होते हैं, जिनके भाग्य में दुख मढ़ा गया होता है.<br />
<br />
ढींगुर ने मरने से पहले कहा भी था कि जवानिया में हम तपेन, बुढ़पवा हम्मे तापत है. जितना ढींगुर ने जिस तरीके से कमाया था, उन्हीं के सामने वह ख़त्म हो गया.<br />
<br />
जो धन जइसे आत है, सो धन तइसे जात. ढींगुर भवन से गुज़रता हर शख़्स यही कहते हुए निकलता है. आज सब मरे हुए ढींगुर को नसीहत दे रहे हैं, वही लोग, जो उनके सामने कभी बोल नहीं सके थे. ढींगुर बहू भी सब कुछ सहते, सहाते कह ही देती हैं कभी-कभी.<br />
<br />
समय धरावै तीन नाम. परशु, परशुवा परशुराम.<br />
<br />
-अभिषेक शुक्ल.</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-77895372417625470632020-06-01T06:00:00.001-07:002020-06-01T06:00:47.081-07:00मौलिकता भ्रम से इतर कुछ भी नहीं.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मौलिकता अनैतिक भ्रम से इतर कुछ भी नहीं. एक साहित्यकार पूरा जीवन पढ़ने-लिखने में खपा दे, घट-घट भटके, अनुभवों की गंगा पार कर ले तो भी जीवन के अंत तक वह कुछ भी मौलिक नहीं लिख सकता है. कुंवर नारायण यह कहकर जा चुके हैं. उनसे पहले भी कई लोगों ने यही कहा है, उनके बाद भी कई लोग यही कह रहे हैं. आगे भी लोग यही कहेंगे.<br />
<br />
मौलिकता एक आदर्श स्थिति है, आदर्श स्थितियां अस्तित्व में होने के लिए नहीं होतीं. सोचकर देखिए कि ऐसा क्या आप कहेंगे, जिसे दूसरों ने न कहा हो. क्या लिख देंगे, जिसे कभी न लिखा गया हो. ऐसा क्या आपने पढ़ा है, जो इससे पहले न लिखा गया हो. जो मैं लिख रहा हूं ये भी मौलिक नहीं. जो आप लिखेंगे उसे भी मौलिक नहीं कहा जा सकता. सब कही-सुनाई बातें हैं, पढ़ते-गुनते चलिए.<br />
<br />
मौलिक होने का चस्का जिसे लगता है, उसकी साहित्यिक गतिविधियां धीरे-धीरे कम होने लगती हैं. लिख दें तो लगता है कि यह तो लिखा जा चुका है. न लिखें तो लगता है कि रचनाओं को गर्भ के भीतर ही मार दे रहे हैं.<br />
<br />
रचनाकारों की ऐसी भी प्रजाति है जो ख़ुद तो न जाने क्या-क्या लिखते हैं लेकिन दूसरे की रचनाओं को अमौलिक होने का प्रमाणपत्र देते हैं. सच यही है कि किसी ने कुछ भी मौलिक नहीं लिखा है. लिखा ही नहीं जा सकता है. अब अगर महर्षि वाल्मीकि, वेदव्यास या कालिदास फिर से अवतार ले लें तो भी कुछ ऐसा न लिख सकें, जो कभी लिखा न गया हो.<br />
<br />
दोहराव सामान्य सी बात है. एक ही बात लोग रोज़ कह रहे हैं. आगे भी कोई कुछ नया नहीं कहेगा. नहीं, मैं भविष्य में कोई किताब या महाकाव्य नहीं लिख रहा जिसके अमौलिक होने पर लोग कोसेंगे मुझे, जिसके बचाव की अग्रिम पटकथा मैं लिख रहा हूं.<br />
<br />
मैंने कुछ भी मौलिक नहीं लिखा है, लिख भी नहीं सकता. जिन्हें पढ़ा है, उनका प्रभाव हो सकता है मेरी शैली में झलके. ऐसा भी हो सकता है कि मैं पूरी तरह वही भाव लिख रहा हूं लेकिन सच मानिए यह जानबूझकर नहीं होगा. ऐसा होता रहेगा, बार-बार होता रहेगा. मैं चाहूं भी तो मौलिकता के भ्रम में जी नहीं सकता.<br />
<br />
प्यारे वरिष्ठ साथियो,<br />
यह भ्रम आपको भी नहीं होना चाहिए............सृजनशीलता बनी रहेगी.</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-91008546952448571082020-05-11T01:22:00.003-07:002020-05-11T01:23:56.469-07:00ना जाइब परदेस.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
माथे पर झोला लिये, मन में लिए जुनून<br />
काटो तो पानी बहे, इतना पतला खून।<br />
बेहद पथरीली डगर, पानी मिले न छांव,<br />
शहरों से ठोकर मिला, हम चल बैठे गांव।<br />
<br />
भूख यहां भी वहां भी, पर वो अपना देस,<br />
रूखा-सूखा खाय ल्यो, जइहौ मत परदेस।<br />
अपनी माटी प्रेम की, वाकी माटी सौत<br />
अपनी ने जीवन दिया, दूजी ने दी मौत।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpTuYwVB0MA9SbY4RY017ALdZkTYRkPwr2-oIQorSpc_MxBDn1-QnSszTe88QLsmpBvbn2v0RBT4wypKGGAEXw72BXbnOzGOb3f0x4Ga7rWr70vcCKxAo7QzOF0OY7eJtdBRXj-nSYkMDU/s1600/non+pti.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="452" data-original-width="838" height="172" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpTuYwVB0MA9SbY4RY017ALdZkTYRkPwr2-oIQorSpc_MxBDn1-QnSszTe88QLsmpBvbn2v0RBT4wypKGGAEXw72BXbnOzGOb3f0x4Ga7rWr70vcCKxAo7QzOF0OY7eJtdBRXj-nSYkMDU/s320/non+pti.JPG" width="320" /></a></div>
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
घाम लगे पाथर पड़े, कब इसकी परवाह<br />
शहरों से अनसुनी थी, मजदूरों की आह।<br />
<br />
सूखी रोटी गांव की, चुटकी भर का नोन<br />
कटे कइसहूं आज बस, कल की सोचे कौन।<br />
माना अपने गांव में, रहता बहुत कलेस।<br />
कुल पीड़ा स्वीकार है, ना जाइब परदेस।<br />
<br />
- अभिषेक शुक्ल.<br />
<br />
(तस्वीर- साभार PTI)</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-3417171274195230422019-12-31T00:22:00.000-08:002019-12-31T00:22:20.807-08:00पलायन का वर्ष<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
31 दिसंबर 2018। दुनिया नए साल के स्वागत की तैयारी कर रही थी, मैं अम्मा(दादी) की अस्थियों को गंगा में विसर्जित करने वाराणसी जा रहा था, भवानी चाचा के साथ। साल बीत रहा था, साथ ही अम्मा की स्मृतियां भी।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgof4N1gXPA-aHPFsoSJUj-2qZCyGZExu9FZmvLc6NfgfQcawjkRvLd3yYKOPX1CAGMO_wwBsuyv1NSYdUo6Xqe9Jj7jb7ZGuC2ULDUMFoQRrp22NthlGmAUDtycBn6PBkBSdq5CNx05qQj/s1600/Screenshot_20191231-133201_WhatsApp.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="900" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgof4N1gXPA-aHPFsoSJUj-2qZCyGZExu9FZmvLc6NfgfQcawjkRvLd3yYKOPX1CAGMO_wwBsuyv1NSYdUo6Xqe9Jj7jb7ZGuC2ULDUMFoQRrp22NthlGmAUDtycBn6PBkBSdq5CNx05qQj/s320/Screenshot_20191231-133201_WhatsApp.jpg" width="180" /></a></div>
<br />
<br />
रात के 12 बजे ट्रेन में हैप्पी न्यू ईयर बोल रहे थे लोग लेकिन मेरे लिए कुछ अच्छा नहीं था। जिसने ख़ुद से हमें कभी कभी अलग नहीं किया, जिसका होने हमारे लिए भगवान के होने से कहीं ज्यादा ज़रूरी था, उसका मंदिर ही ख़त्म हो चुका था। राख बची थी। स्वार्थी होने का मन कर रहा था उस वक़्त। मन कर रहा था कि अम्मा को हमेशा ही ऐसे ही रहने दूं। नहीं रख सकता था। ये मिस्र नहीं, भारत है।<br />
<br />
पूरे साल एक गहरा अवसाद रहा लेकिन हंसने से भी परहेज़ नहीं रहा। इस साल शेखर के जाने के कुछ दिनों बाद ही अम्मा भी चली गई। कई बार विश्वास नहीं होता है कि कोई गया है।<br />
<br />
लगता है कि शेखर अचानक से कूदकर बोलेगा, 'भइया का सोचत हो?'...और..अम्मा बोल देगी 'ललनवा।'<br />
दोनों अब कुछ नहीं बोलेंगे, ख़ुद को हर बार पूरे साल तसल्ली देते रहे.<br />
<br />
अम्मा जब कभी सपने में दिखती है, मानने का मन ही नहीं करता है कि अब नहीं है. ऐसा लगता है, अम्मा अब बुलाएगी. कुछ कहेगी. बहुत अफनाहट होती है, अचानक से कभी कभी.<br />
<br />
उस वक़्त लगता है अम्मा है, मेरे आस पास ही। सब ठीक है, तभी कुछ ठक से लग जाता है। एहसास होता है सपना था। अम्मा तो वह थी जो धुआं बनकर उड़ गई। हमारी आंखों के सामने ही। 24 दिसंबर को।<br />
<br />
इंसान होने में तक़लीफ़ बहुत है। समझ होती है। सपने को सच नहीं मान सकते। सच को सपना। मन कहता है कि सब सपना था, नींद टूटते ही जो बुरा सपना हमने देखा था, टूट जाएगा। कुछ टूटता नहीं लेकिन भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूट रहा होता है।<br />
<br />
शेखर विलक्षण प्रतिभा का धनी था, उतना ही प्यारा। ईश्वर के प्रति अगाध समर्पण। दुनिया के तौर-तरीक़ों से अछूता, सच में किसी ऋषि-मुनि की तरह। ईश्वर ने उसे हमारे पास रहने ही नहीं दिया। 20 की उम्र में पलायन। ऐसा गया कि लौटने की सारी संभावनाएं ख़त्म हो गईं।<br />
<br />
और अम्मा!<br />
<br />
सुबह उठकर सबसे पहला काम अम्मा को फ़ोन करना होता था। हर 2 घंटे में एक बार। अम्मा थी तो बातें थीं, अब अम्मा नहीं है तो बातें ख़त्म हो गई हैं।<br />
<br />
आज भी कई बार हूक सी उठती है अम्मा को फ़ोन करना है..फ़ोन पर नज़र जाती है और....<br />
<br />
अम्मा की गोदी, अब महसूस भी नहीं कर पाता….अब ख़ुद को बच्चा भी नहीं मान पाता..अब लगने लगा है बहुत बड़ा हो गया हो गया हूं मैं..बहुत ज़्यादा।<br />
<br />
कई लोग चले गए। अजीब ही साल था। नाना अप्रैल में चले गए। नाना अब बच्चे हो गए थे। पहले वाले नाना से डर लगता था, नानी के जाने के बाद नाना मासूम हो गए थे। प्यार आता था। एक ही बात दस बार पूछते, फिर भूल जाते..अब नाना भी नहीं हैं।<br />
<br />
बड़की मौसी भी अब नहीं है। जुलाई में मौसी की तबीयत बिगड़ी, फिर कुछ दिन कोमा में रही, एक दिन ख़बर आई मौसी अब नहीं है...मैं उन ख़ुशनसीब लोगों में एक था जो दौड़कर अपने मौसी के पास जा सकते हैं...अब अम्मा की तरह मौसी भी जा चुकी है।<br />
<br />
जुलाई में ही पाले काका भी चले गए......किसी को नहीं जाना था। रुकना था..ऐसी भी क्या जल्दी थी जाने की। दुनिया इतनी बुरी भी जगह नहीं है जहां रहा न जा सके।<br />
<br />
काश, कोई ऐसी युक्ति होती जिससे जो गए हैं, उन्हें लौटा लाते। वैसे ही जैसे सावित्री ने यम से सत्यवान को छीन लिया था... या जैसे कृष्ण अपने भाइयों को लौटा लाए थे....।<br />
<br />
अच्छा ज़माना था जब स्वर्ग तक इंसानों का आना-जाना था। अब कोई चुपके से आता है, उठा ले जाता है।<br />
<br />
यह साल, सच में पलायन का साल था।</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-52761852978259526522019-12-06T08:29:00.002-08:002019-12-06T08:29:26.905-08:00उद्योग बनते क्यों नज़र आ रहे हैं सरकारी शैक्षणिक संस्थान?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfAOT2MQye-ZFia_OTXtUrMarzBMcB7CGIy4Vl4aUGoH1c9xbLxPhMw3lzciDqoN8UrYIt9YKMr417vAvat61f60JwHgPJo0sGbaulRQBlDFH0xfTec0INhaZ-s-oz30XnUEtEW3fGXDaN/s1600/IMG-20191206-WA0001.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="810" data-original-width="1080" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfAOT2MQye-ZFia_OTXtUrMarzBMcB7CGIy4Vl4aUGoH1c9xbLxPhMw3lzciDqoN8UrYIt9YKMr417vAvat61f60JwHgPJo0sGbaulRQBlDFH0xfTec0INhaZ-s-oz30XnUEtEW3fGXDaN/s320/IMG-20191206-WA0001.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
भारत विश्वगुरु था. भारत को विश्व गुरु एक बार फिर से बनाना है. मगर कैसे...इसका जवाब शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी कैबिनेट और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पास भी नहीं है. मोदी सरकार के त्रिमूर्तियों के बयान सुनिए, उनके बयानों से लगता है कि अगले 5 साल में ही भारत विश्व गुरु बनने वाला है या बन चुका है लेकिन हर बार बनते-बनते रह जाता है. लगता है कि विश्वगुरु बनाने की मंशा, सरकार बनाने के चक्कर में कहीं गुम हो गई है.<br />
<br />
ऐसा भी हो सकता है कि इस विषय पर ध्यान ही न गया हो क्योंकि यहां साध्य को पूरा करने के लिए युक्ति ज़रूरी नहीं, कथन ज़रूरी है. पूर्ववर्ती सरकारें भी भारत को विश्व गुरु बना रही थीं, उनका ध्यान भी युक्ति पर नहीं कथन पर केंद्रित रहा.<br />
<br />
अगर ध्यान गया होता तो अतीत का विश्वगुरु, भविष्य संवारने के लिए शिक्षा पर ध्यान देता क्योंकि गुरु जैसी किसी संस्था को अस्तित्व में लाना है तो उसके लिए कुछ अपरिहार्य है तो वह है शिक्षा. सस्ती शिक्षा. जिसमें सबकी बराबर की भागीदारी हो; अमीर-ग़रीब सबकी.<br />
<br />
सड़क के किनारे बैठकर भुट्टा बेचने वाली औरत या गले में काला बैग और सिर पर लाल पगड़ी बांध दूसरों के कानों से खूंट निकालने वाला आदमी, सबकी हसरत होती है कि अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाएं. रिक्शावान, मजदूर, थवई, रेहड़ी-पटरीदार, मछुआरा, ठेले वाला, सफाई कर्मचारी...हर कोई, चाहता है कि जिस ज़िन्दगी से वे जूझ रहे हैं, उनके बच्चे उससे बाहर निकल सकें.<br />
<br />
उनके बच्चों को भी IIT, IIM, MBBS, NEET, NLU, ICAI, IIMC और तमाम विश्वविद्यालयों में पढ़ने का मौका मिले. हर उस जगह जहां वे जाना चाहते हैं. जिस तरह से सरकारी संस्थानों की फ़ीस बढ़ाई जा रही है, उस हिसाब से लगता है कि गरीबों के बच्चे पढ़ नहीं सकेंगे.<br />
<br />
जेएनयू के छात्र हाल ही में फ़ीस वृद्धि को लेकर सड़क पर उतरे थे. उनका प्रदर्शन अब भी जारी है, विश्वविद्यालय परिसर में. उत्तराखंड में आयुर्वेद की पढ़ाई करने वाले छात्र बढ़ी फ़ीस के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं.<br />
<br />
अब भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) के छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं बढ़ी हुई फ़ीस को लेकर. यहां से पत्रकारिता की पढ़ाई होती है. IIMC सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाला एक स्वायत्त संस्थान है. सरकारी संस्थान है. मगर फ़ीस प्राइवेट संस्थानों के टक्कर की है. क्यों है, इसका जवाब वहां के डीजी को पता है जो बहुत मासूमियत से धरने पर बैठे छात्रों को बता देंगे. वजहें भी गिना देंगे.<br />
<br />
उम्मीद करते हैं कि इन बच्चों पर उस तरह से लाठियां नहीं बरसाई जाएंगी, जैसी सुविधाएं जेएनयू वालों की को दी गईं.<br />
<br />
सरकारी संस्थान धन के दोहन के संयत्र बनते नज़र आ रहे हैं. सरकारी विद्यालयों की फ़ीस जितनी मंहगी होगी, गरीब तबक़ा उतना ग़रीब होता जाएगा.<br />
<br />
जब मैंने यहां से पढ़ाई की थी(2016-17) तब हिंदी-अंग्रेज़ी पत्रकारिता की फ़ीस 66,000 रुपये, आरटीवी की फ़ीस 1,20,000 रुपये और ADPR की फ़ीस 93,500 रुपये थी.<br />
<br />
इस बार 2019-2020 की फ़ीस कुछ उसी अंदाज में बढ़ी है, जैसे जय शाह और रॉबर्ट वाड्रा की संपत्ति बढ़ी है. हिंदी और अंग्रेज़ी पत्रकारिता के छात्रों की फ़ीस 95,500 रुपये, RTV की 1,68,500 रुपये और ADPR के छात्रों की फ़ीस इस बरस 1,31,500 रुपये बढ़कर हो गई है.<br />
<br />
सांसदों, विधायकों और जनप्रतिनिधियों की आमदनी जिस रफ़्तार से बढ़ती है, उतनी रफ़्तार से आम आदमी की नहीं बढ़ती. सिक्योरिटी गार्ड की सैलरी आज भी उतनी ही है जितनी 2009 में थी. दशक खत्म होने वाला है, महंगाई ने आसमान छू लिया है, आम जनता की आमदनी नहीं बढ़ी है. न ही बढ़ीं हैं रोजगार की संभावनाएं.<br />
<br />
मैंने इससे पहले जिस-जिस पेशे के लोगों का जिक्र किया है, उनमें से कितने लोग अपने बच्चों को चाहकर भी यहां भेज सकते हैं? दिल्ली में किसी को टिकने के लिए कम से कम 8 हजार रुपये की जरूरत पड़ेगी. अगर हॉस्टल मिल गया तो भी इतने में गुजारा होना मुश्किल है. हॉस्टल की फ़ीस करीब 5,200 रुपये है. सबसे सस्ते कोर्स हिंदी, अंग्रेज़ी या उर्दू पत्रकारिता में भी एडमिशन लिया है तो भी कोर्स पूरा होने तक दिल्ली में ठहरने का बजट 1,60,000 से ज़्यादा ही बैठेगा. बाकी कोर्स वाले तो 2 लाख तक खिंच जाएंगे.<br />
<br />
9 महीने की पत्रकारिता की पढ़ाई इतनी महंगी है तो IIT, IIM, NLU और मेडिकल संस्थानों की फ़ीस कितनी होती होगी? कैसे सुनियोजित तरीके से बढ़ाई गई होगी. इन संस्थानों में पढ़ने का हक सबको है, पर मिलता किसको है?<br />
<br />
पैसे वाले तो कहीं से भी पढ़ सकते हैं. जिस हिसाब से उनकी परवरिश होती है, उन्हें परीक्षाएं निकालने में बहुत मुश्किलें नहीं आती होंगी. जिन्हें आती होंगी, उनका मन कुछ और करता होगा. उनके पास प्राइवेट और महंगे विश्वविद्यालयों में पढ़ने का बजट है. आम आदमी के पास रास्ता क्या है? किडनी बेच कर पढ़ाए क्या बच्चों को? प्राइवेट में तो किडनी भी बेचकर एडमिशन न हो पाए.<br />
<br />
देशभर में कहीं से भी सस्ती शिक्षा के लिए बच्चे आंदोलन करें तो उनका साथ दीजिए. सरकारी संस्थानों की महंगी फ़ीस, ग़रीबों के बच्चों को अशिक्षा के मुहाने पर ले जाकर छोड़ देगी. पढ़ने का सपना टूटेगा तो पीढ़ियां बर्बाद होंगी. फिर वे आज कल के टीवी ऐंकरों की तरह हिंदू-मुसलमान में ही उलझे रहेंगे. दंगाई बनेंगे. बनाएंगे भी. किसी को हिंदू खतरे में नज़र आएगा, किसी को इस्लाम. भविष्य तो ख़तरे में पड़ेगा ही.<br />
<br />
अगर बच्चे पढ़ेंगे नहीं तो विश्व गुरु कैसे बनेंगे. हिंदुत्व, जम्मू-कश्मीर, राम मंदिर, एनआरसी, सीएबी के शोर-शराबे में शिक्षा दब गई है भाई. अमीर तो कहीं से पढ़ लेंगे, ग़रीब कहां जाएगें? जिसके लिए पेट भरना भी मुश्किल हो वो लोन लेकर पढ़ेगा कहां से? लोन अप्रूव कौन करेगा? भूमिहीनों को कौन सा लोन मिलता है? मिल भी गया तो नौकरी की संभावना क्या है? भरेगा कहां से?<br />
<br />
IIMC के छात्रों की मांग है कि अगर दूसरे सेमेस्टर में फ़ीस नहीं घटाई गई तो कइयों को आधे सेमेस्टर में दिल्ली छोड़कर जाना पड़ेगा. हर किसी की आर्थिक स्थिति इस लायक भी नहीं होती कि उसे कर्ज़ मिल सके. छात्रों के भविष्य का मामला है और उन सब के लिए जो सपने देखते हैं. ग़रीब...किसान...थवई...ठेले वाला....सब...<br />
<br />
समाज में समानता सदियों से गौण थी लेकिन एक जगह तो कम से कम हम समानता ला सकते हैं. शिक्षा में. फ़ीस महंगी न हो. स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी में सस्ती शिक्षा मिले. सबको शिक्षा मिले. कोई सिर्फ इसलिए न पढ़ पाए कि उसके मां-बाप के पास पैसे नहीं है. पढ़ाई उसके लिए भी सुलभ हो, जिसके मां-बाप न हों...लावारिस हो...सड़क पर रहता हो...बेघर हो.<br />
<br />
हां, अमीरों को या मध्यम वर्ग जिसके पास बेहद पैसा है, उन्हें भी विरोध करना चाहिए. क्या पता अमीरी हमेशा न रहे. होता है, कई अरबपति भी रोडपति बनते हैं. शिक्षा सस्ती होगी तो अच्छे और बुरे दोनों दिनों में बच्चों के पढ़ने का भरोसा बना रहेगा.<br />
<br />
क्योंकि कोई शायर हैं तुफैल...याद रखने वाली बात कही है-<br />
समय के एक तमाचे की देर है प्यारे,<br />
मेरी फ़क़ीरी भी क्या, तेरी बादशाही क्या?<br />
<br />
इस बार भावी पत्रकार धरने पर बैठे हैं. आज का वक़्त ऐसा है कि आप कह सकते हैं कि जो कुछ अच्छा है, पत्रकारों की वजह से अच्छा है, जो बुरा है वह भी पत्रकारों की वजह से है. देश की राजनीति में एक बड़ा हिस्सा पत्रकारिता का बनाया या बिगाड़ा हुआ होता है. यहां से कुछ अच्छे पत्रकार निकले हैं, भविष्य में भी निकलेंगे अगर वे अपनी फ़ीस भर ले गए तो.<br />
<br />
विश्व गुरु-विश्व गुरु का जाप बचपन से सुनते आए हैं. पीएम नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री अमित शाह, परिवहन मंत्री नितिन गडकरी, संघ प्रमुख मोहन भागवत....सबके बयान देखिए..पढ़िए...सबको भारत को विश्व गुरु के स्थान पर स्थापित करना है.<br />
<br />
गुरु का गुरुकुल होता है. जहां सबके लिए शिक्षा का समान अवसर उपलब्ध होता है. सबको समान शिक्षा मिलती है. जहां गुरु, गुरु होता है, व्यापारी नहीं. गुरुकुल भी गुरुकुल होता है, उद्योग नहीं.<br />
<br />
संस्थानों को उद्योग बनने से बचाइए....उद्योग का एकमात्र उद्देश्य धन संचयन है. गुरुकुल का नहीं. मुफ़्त शिक्षा, सस्ती शिक्षा, सुलभ शिक्षा अगर सबको उपलब्ध हुई न तो भारत विश्व गुरु बने या न बने, एक बेहतर देश ज़रूर बन जाएगा.<br /><br />- अभिषेक शुक्ल.</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-57532205018350639592019-09-09T13:50:00.001-07:002019-10-09T13:57:26.913-07:00हम शहरों से ऊबे हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9ZDou4iJelFDk3UNNDiYttocAUt1GcrCQGMQI7-K3hDdJHTlwLCIJ6ShVl5m1UUDVJqOcGIRoLnmc_1Mcrv4Wu0ZxGTf5ZT3DkPs9JkcebT_qDRi7dw3BDWPSqhpytlLZIKlu_RDWCgJh/s1600/20190910_021030.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="755" data-original-width="1080" height="222" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9ZDou4iJelFDk3UNNDiYttocAUt1GcrCQGMQI7-K3hDdJHTlwLCIJ6ShVl5m1UUDVJqOcGIRoLnmc_1Mcrv4Wu0ZxGTf5ZT3DkPs9JkcebT_qDRi7dw3BDWPSqhpytlLZIKlu_RDWCgJh/s320/20190910_021030.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
पतझर जैसे क्यों दिन हैं<br />
सिसकी वाली सब रातें,<br />
उलझन को अंक समेटे<br />
कितनी अनसुलझी बातें।<br />
<br />
क्या समझ हमें आयेगा<br />
नगरों का यह कोलाहल,<br />
हा! कौन यहां पीयेगा<br />
जगती की पीर हलाहल।<br />
<br />
जीवन भर का आडम्बर<br />
आडम्बर ही जीवन भर,<br />
मन कहे चलो अब छोड़ो<br />
कुछ शेष बचा है घर पर।<br />
<br />
इक खटिया है दो रोटी<br />
जी भर पीने को पानी,<br />
भरपेट हवा मिलती है<br />
दस लोग हज़ार कहानी।<br />
<br />
इच्छाओं पर अंकुश है<br />
भोली-भाली सौ आंखें,<br />
दो बूंद धरा पर पड़ती<br />
सबको उग आतीं पांखें।<br />
<br />
हर शाम हवा चलती है<br />
हर रात टीमते तारे,<br />
हर सुबह कूकती कोयल<br />
हर दिन क्या ख़ूब नज़ारे।<br />
<br />
हम शहरों से ऊबे हैं<br />
वैभव में रहे किनारे,<br />
अब गांव लौट आओ तुम<br />
मन ही मन मीत पुकारे।<br />
<br />
हम लौट चलेंगे साथी<br />
शहरों से खाकर ठोकर,<br />
जाने क्या क्या हासिल कर<br />
जाने कितना कुछ खोकर।<br />
<br />
बस काट रहे दिन अपना<br />
अनुभव की गीता गाकर,<br />
कर्मों की आहुति देकर<br />
जीवन का आशिष पाकर।<br />
<div>
<br /></div>
<div>
- अभिषेक शुक्ल।</div>
</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-82871259039098655222019-09-08T11:00:00.002-07:002019-09-08T11:01:35.805-07:00दिन बहुरते हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
अच्छे दिनों की बुराई इतनी सी है कि उनका प्रभाव बहुत क्षणिक होता है. बुरे वक़्त से दो दिनों के लिए ही भेंट हो जाए तो महीनों के अच्छे दिन निष्प्रभावी हो जाते हैं. दुख के दो दिन, महीनों, वर्षों के अच्छे दिनों पर भारी पड़ जाते हैं.<br />
<br />
मन बस यही कहता है कि कब दिन बहुरेंगे.<br />
<br />
अब दु:ख सहा नहीं जाता. पानी नाक तक आ गया है, अगर डूबे तो फिर नहीं उबरेंगे.<br />
<br />
जीवन की सारी सुखद स्मृतियां कहीं बीत जाती हैं, जिनकी रत्तीभर याद नहीं आती.<br />
<br />
लगता है सब कुछ ख़त्म. कुछ शेष नहीं. इच्छाएं, अनिच्छाएं, कुछ भी स्थाई नहीं रह जाती हैं. दिन बीतता नहीं है, रात कटती नहीं है. ठहरने का मन करता है, लेकिन मन न जाने किस दिशा में यात्रा करता है, तभी एक झपकी आती है. विराम.<br />
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhWuzcnVP-SLhBp4AmYUjDTMKfBbqMBbVvwlNFgTBvzmg_fSUSoMx-f2YzJev5NJwWE1EKe8eQvljQzyoO_y4nV_GBf2hwnqCXjUjepuY8B4irJzsJFUH9QhJTZnrq3D8k9pdSjFRE6fv9/s1600/sun+rise.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="590" data-original-width="988" height="191" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhWuzcnVP-SLhBp4AmYUjDTMKfBbqMBbVvwlNFgTBvzmg_fSUSoMx-f2YzJev5NJwWE1EKe8eQvljQzyoO_y4nV_GBf2hwnqCXjUjepuY8B4irJzsJFUH9QhJTZnrq3D8k9pdSjFRE6fv9/s320/sun+rise.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">(फोटो साभार- <a href="https://wallpaperaccess.com/sunrise">https://wallpaperaccess.com/sunrise</a>)</td></tr>
</tbody></table>
<br /><br />
दिनों की व्यग्रता...पलों में ओझल होती है.<br />
<br />
मन खिलता है...कुछ याद नहीं रहता.<br />
<br />
लगता है कि कोई बोझ था, उतर गया. अब सब कुछ नया. सब कुछ फिर से. जैसे मन उर्जस्वित हो गया हो...जैसे मनचाहा वर मिल गया हो...जैसे किसी ने कह दिया हो- का चुप साधि रहा बलवाना.....अजर अमर गुननिधि सुत होऊ.....<br />
<br />
फिर क्या....<br />
<br />
लगने लगता है......दिन बहुर गए हैं.<br />
<br />
दिन बहुरते हैं.</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-61521714544917672982019-07-06T01:41:00.002-07:002019-07-06T01:55:18.910-07:00पाले काका चले गए......<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जून में अम्मा की वार्षिकी थी. मैं घर गया था. अम्मा को गए हुए 6 महीने बीत गए थे. पाले काका से मिलने उनके पास गया. काका, जीवन में पहली बार बीमार लगे थे. बहुत असहाय भी. इतने असहाय कि जैसे भगवान भी उनकी पीड़ा न हर सकें. उन पर रौब जंचता था, लेकिन काका डरे-डरे से लगे.<br />
<br />
ऐसा लगा कि जैसे नियति ने जाने की तिथि तय कर दी है, और अब वे अपने आख़िरी दिन गिन रहे हैं. जैसे वक़्त ने चाल दिया हो बहुत भीतर तक, जहां से आत्मा आर-पार होने की स्थिति में पहुंच जाए. लग गया था कि अब काका का बुलावा आ गया है. फिर भी मन नहीं मान रहा था कि काका भी चले जाएंगे.<br />
<br />
उनकी बातों से तो बिल्कुल भी नहीं लगा. वही रौब, वही अंदाज़ जिसे हम बचपन से देखते-सुनते आए हैं.<br />
<br />
अच्छे वाले मन ने कहा कि काका ठीक हो जाएंगे. पहले की तरह ही जैसे वे घोड़ा टमटम टॉनिक पीने के बाद हो जाते थे.<br />
<br />
कुछ ठीक नहीं हुआ. काका की तबियत खराब होती चली गई गई.<br />
<br />
मुझे याद नहीं, काका एकादशी छोड़कर कोई व्रत रहे हों. मम्मी की ज़िद पर काका कभी-कभार जन्माष्टमी और एकादशी के दिन व्रत रख लेते थे. नहीं तो दोनों वक़्त भरपेट खाने वाले लोगों में से एक मेरे पाले काका भी थे. सुना कि काका ने 23 जून के बाद खाना ही नहीं खाया. कुछ खा ही नहीं पा रहे थे, शायद खाना ही नहीं चाह रहे थे.<br />
<br />
जीवन भर का व्रत, जीवन के अंतिम दिनों में कर बैठे, भले विवशता से ही सही. व्रत पूरा हुआ, काका चले गए.<br />
<br />
बचपन में काका से डर लगता था फिर भी काका बुरे नहीं लगते थे. बिलकुल बाबा की तरह, काका की भी डांट अच्छी लगती थी. कई बार डांट खाने के लिए ही सही, उन्हें हम लोग जानकर ग़ुस्सा दिलाते थे. कभी बहुत देर तक खेलते रहे तो काका का पारा चढ़ जाता था. कहते, अच्छा चलो, अब पढ़ो. बहुत खेल होइ गय. पढ़ना न लिखना, दिन्न भर उहै बैट.<br />
<br />
बद्री, बलराम, परदेसी और बड्डू काका के डांट के बाद खिसक लेते थे, हम भी दबे मन से घर में स्टंप उठाकर चल देते थे. काका ने डांटा तो फ़ाइनल. गेंद-बल्ले का उठना तय.<br />
<br />
फिर अगले ही दिन मौका मिलता खेलने को.<br />
<br />
काका की डांट मुझे ही नहीं, भइया को भी पड़ी है. भइया की घर में न टिकने की आदत से दो लोग परेशान थे. अम्मा और काका. मम्मी को कुछ ख़ास फ़र्क़ पड़ता नहीं था. बाबा भी अपनी धुन में मस्त रहते थे. पापा देर से आते तो भइया घर में मिलते. लेकिन अम्मा और काका को बहुत दिक़्क़त थी भइया के घूमने से. काका जहां मिलते, सुनाकर भइया को घर ही भेजते. घर में घुसते ही अम्मा फ़ायर.<br />
काका भ्रमणकारी थे. पांव नहीं टिकते थे उनके. गांव में घूमने निकलो तो कहीं न कहीं मिल जाते. जहां मिलते, वहीं टोकते. फिर घर वापस आना पड़ता.<br />
<br />
भइया और मेरा पूरा बचपन 'पाले काका हो!' चिल्लाते बीता है. दरअसल काका दिन भर घर रहते थे, लेकिन जब खाने का वक़्त होता, काका निकल लेते थे. अम्मा किसी को खाना ले जाने नहीं देती, जब तक पाले काका खाना न खा लें. मजबूरन हमें चिल्लाना पड़ता. सुबह-शाम दोनों वक़्त. हमारे साथ पापा भी चिल्लाते थे. आस-पड़ोस में भी बच्चे मज़े लेकर चिल्लाते. सबको पता चल जाता कि घर में खाना बन गया है.<br />
<br />
उस वक़्त मोबाइल वाला ज़माना नहीं था कि कॉल कर दें. जब मोबाइल वाला ज़माना आया, तब भी काका मोबाइल नहीं रखते, उन्हें ऐसे ही चिल्लाकर बुलाना पड़ता था. काका का फ़ोन, इंद्रजित ही चलाता, काका के हाथ में फोन नहीं रहा. तीन-चार बार काका ने ख़ुद के लिए फ़ोन ख़रीदा होगा. फिर ख़रीदना ही छोड़ दिया. इसलिए काका-काका चिल्लाना हमारी आदत में शुमार हो गया.<br />
<br />
पापा चिल्लाते, पाले...पाले हो, ये पाले...<br />
हमें भी हंसी आती. हम भी पापा का साथ देने आ जाते.<br />
काका बस चाय के टाइम पर मौजूद रहते थे. शाम की चाय, उनके आने पर ही बनती थी.<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEie4Y0KRW1EbXa0OyJsZpJO1kC4-nzPPX3A0evN3gVcDASExDlrpKoBqDUs4UD4Qqklbz2q-XWI8Tbg_3fg8o4W-vnqChEkkJZ7kntSDgwsEwoigB2K1-T7Z5L3tvzyy7ar6cLdMt1dPguX/s1600/pale+kaka.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="903" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEie4Y0KRW1EbXa0OyJsZpJO1kC4-nzPPX3A0evN3gVcDASExDlrpKoBqDUs4UD4Qqklbz2q-XWI8Tbg_3fg8o4W-vnqChEkkJZ7kntSDgwsEwoigB2K1-T7Z5L3tvzyy7ar6cLdMt1dPguX/s320/pale+kaka.jpg" width="180" /></a></div>
<br />
<br />
पाले काका, अम्मा के सबसे ख़ास थे. कहां कौन सा खेत, कौन काट-बो रहा है, सबकी ख़बर काका ही रखते. किसे खेत बटइया पर देना है, किसे नहीं देना है, सब काका के हाथ में था. अम्मा का बस अप्रूवल होता था. अम्मा उन्हें बहुत मानती. शायद तभी, अम्मा के जाने के 6 महीने के भीतर काका भी वहीं पहुंच गए जहां अम्मा है. शायद वहां, अम्मा का राज-काज देखने वाला कोई सहयोगी नहीं पहुंचा था, जो भरोसेमंद हो. काका भी वहीं चले गए.<br />
<br />
पापा की आदत है कि जब वे खेती करते हैं, तो केवल दो से तीन बार ही खेत जाते हैं. पहली बार जिस दिन बुवाई होती है. दूसरी बार जब फसल कटती है. कभी-कभार तब चले जाते हैं, जब खेत में पानी चल रहा हो. शेष दिनों में क्या हो रहा है, इससे ख़ास मतलब नहीं होता. सारी ज़िम्मेदारी पाले काका की होती थी फिर. भइया शाम को टहलने भले ही चले जाते हैं, खेत देखने के मक़सद से शायद ही कभी जाते हों. ऐसा इसलिए होता था, क्योंकि पाले काका थे. पापा जब कचहरी से लौटते थे, दिन भर की सारी बातें, वहीं आंगन में पापा से बताते. पापा हूं-हूं करके सुनते रहते.<br />
<br />
कुछ पूछते जो काका को ख़राब लगता तो कहते, भै बाबू, तुहूं उहै मेर कहत हौ. यस नाहीं है. फिर काका अपनी कहानी बताने लगते.<br />
<br />
सच बात थी, पापा भी उनका बहुत लिहाज़ करते थे. अम्मा, बड़ी बुआ के बाद, पापा ने शायद उन्हीं की सलाह मानी हो.<br />
<br />
सुबह-शाम एक चक्कर खेत का मारे बिना काका को चैन नहीं. जाने से दो महीने पहले तक पाले काका की नियमित दिनचर्या में शामिल था खेत जाना. लेकिन फिर बीमार रहने लगे. उस तरीके से घूम नहीं पाते थे. भगवान नारद की तरह कभी एक जगह न बैठने का वरदान मिला था काका को. जाते वक़्त काका ने खाट पकड़ ली थी. उन्होंने घूमना कम कर दिया था. तभी अम्मा की वार्षिकी थी, और काका उस दिन घर नहीं आ सके. वे अपने घर पर ही लेटे रहे.<br />
<br />
लग गया था कि काका अब ज़्यादा दिन के मेहमान नहीं हैं.<br />
<br />
बचपन के हर क़िस्से में काका शामिल हैं. उनके अध्याय को छोड़कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता. जीवन में पहली बार मेला घूमने काका के साथ ही गया हूं. काका मुझे और भइया को बहुत दिनों तक मेला दिखाने ले जाते. तब तक ले गए हैं, जब तक हम बहुत बड़े नहीं हो गए.<br />
<br />
शोहरतगढ़, लेदवां, माधवपुर, काका जहां तक जा पाते, हमें मेला ले जाते. मेला में जलेबी, समोसा और उसके बाद गुब्बारा. हमारा इतना ही मेला होता था. फिर काका गट्टा खरीदते. वहीं से कुछ न कुछ सबके लिए काका खरीदकर लाते. अम्मा सबको मेला करने का पैसा बांटती थी. उसमें काका का भी हिस्सा होता था.<br />
<br />
काका को दुनिया का कोई भी डॉक्टर दवा लिखकर दे दे, विश्वास नहीं होता. उनकी वैद्य मम्मी ही थी. मम्मी के बिना अप्रूवल के काका कोई दवा नहीं खाते. चाहे एमडी लिखे काका के लिए दवाई. कहते रुको दुलहिन के देखाय ली तब दवइया खाब न.<br />
<br />
एक दिन मैं घर के बाहर क्रिकेट खेल रहा था. सामने गेंद चली गई, उठाने गया तो कुतिया ने काट लिया. ज़रा सा भी ख़ून नहीं निकला था लेकिन काका परेशान हो गए. गांव में ऐसी मान्यता है कि जिसे कुत्ते ने काटा हो, उसे कुआं झंका दिया जाए तो कुत्ते के काटने का प्रभाव कम हो जाता है. काका ने हाथ पकड़कर पूरे गांव का चक्कर लगवा दिया. 52 से ज़्यादा कुएं हैं मेरे गांव में. मैं चिल्लाता ही रहा कि कुत्ते ने नहीं काटा है, काका ने एक न सुनी. काका तो काका थे, उन्हें रोक कौन सकता था.<br />
<br />
रिश्ते केवल ख़ून वाले ही सच नहीं होते. भावनाओं के रिश्ते भी उतने ही पवित्र होते हैं, उनकी भी निकटता वैसी ही होती है. कुछ भी अंतर नहीं होता. ऐसे में किसी अपने का चले जाना, बहुत दुखता है. कुछ टूटता है, बेहद भीतर तक.<br />
<br />
कहा जा सकता है कि काका को असह्य पीड़ा से मुक्ति मिली, लेकिन मन किसी को भी मुक्त करना कहां चाहता है. अपनों को कौन खोना चाहता है.<br />
<br />
काका से जुड़ी हुई कितनी यादें हैं. लेकिन अब वे सिर्फ़ यादें हैं. काका जा चुके हैं. हैं से थे होने की दूरी उन्होंने तय कर ली है.<br />
<br />
काका अब स्मृति बन चुके हैं. घर जाने पर उनकी खाट दिख सकती है, जहां रहते थे, वो घर दिख सकता है, उनकी लाठी दिख सकती है, लेकिन काका नहीं दिख सकते. मिल नहीं सकते, बात नहीं कर सकते.<br />
<br />
कहीं वो आवाज़ सुनाई नहीं दे सकती कि, हो लाला, तू कब पंहुच्यौ. हम अगोरित रहेन न.<br />
<br />
काका इस बार भी शायद इंतज़ार करते रह गए होंगे. लेकिन अब का. जब चले गए तो चले गए. जीवन के दूसरे छोर पर जहां समावर्तन के लिए राह नहीं होती. वहां जाने के पदचिन्ह मिलते हैं, और आने की स्मृतियां. इनके बीच कुछ भी शेष नहीं रहता. कुछ भी....</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-90402027179669448532019-05-14T10:00:00.002-07:002019-05-14T10:00:23.021-07:00हम परागों के निषेचन में फंसे हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhx3giujiIacO2s7OWiKx_iTF_2AYUk0TuU0RApiLnu198ieAgf7LUbWq0KQqYNdAst1t0UzcgXLNAyCHPz4ykmSeXfSuGMJ23XqfBHjEhyYHNFMNNEXGM3us-J3Y4SECWwAptD2YjIB61Y/s1600/FB_IMG_1557852701978.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1437" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhx3giujiIacO2s7OWiKx_iTF_2AYUk0TuU0RApiLnu198ieAgf7LUbWq0KQqYNdAst1t0UzcgXLNAyCHPz4ykmSeXfSuGMJ23XqfBHjEhyYHNFMNNEXGM3us-J3Y4SECWwAptD2YjIB61Y/s320/FB_IMG_1557852701978.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<br />
रूप के उपमान आकुल हो गए हैं<br />
दर्प भी उन्माद जितना छा गया है,<br />
हम परागों के निषेचन में फंसे हैं<br />
फूल के प्राणों पे संकट आ गया है।<br />
<br />
सूख जाना फूल की अन्तिम नियति है<br />
पर भंवर को कब हुआ है भान इसका,<br />
प्यास अधरों की रहे बुझती परस्पर<br />
लालसा में सच कहो क्या दोष किसका?<br />
<br />
जीविका है या गले की फांस है यह<br />
रोज़ इच्छाओं को कसती जा रही है,<br />
दास हूं मैं या तनिक स्वायत्तता है<br />
मति इसी संशय में फंसती जा रही है।<br />
<br />
वृक्ष था अब ठूंठ बनकर रह गया हूँ<br />
सूखने के वक़्त शायद आ गया है<br />
मोक्ष ने फिर से मुझे धोखा दिया है<br />
क्षीण हो जाना मुझे भी भा गया है।<br />
<br />
-अभिषेक शुक्ल<br />
<br />
(तस्वीर- @Philippe Donn)</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-83521697697094695152019-03-29T15:06:00.000-07:002019-03-29T15:06:32.069-07:00ईश्वर चाहता था कि वह मुक्त हो ईश्वरत्व से!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgUg4NdtGYZHu4nRsJ6scBnHhRs0256mvo5Xj2YBQ0dW2v9qjOycSIgCcVoXaCxUOQmIfTpThzLXpqbiRCtXmXZOF-zABvqjYOFMJDmafulGk8rJQmM7vyagLWGZWSGDnYPm3weFgQ_4Zf1/s1600/images+%25285%2529.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="438" data-original-width="701" height="199" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgUg4NdtGYZHu4nRsJ6scBnHhRs0256mvo5Xj2YBQ0dW2v9qjOycSIgCcVoXaCxUOQmIfTpThzLXpqbiRCtXmXZOF-zABvqjYOFMJDmafulGk8rJQmM7vyagLWGZWSGDnYPm3weFgQ_4Zf1/s320/images+%25285%2529.jpeg" width="320" /></a></div>
<br />
झरने इंतज़ार में थे<br />
कोई उन्हें रुकने को कहेगा<br />
बूंदें चाहती थीं<br />
धरती पर न गिरें<br />
सूरज स्वार्थी होना चाहता था<br />
एक दिन के लिए<br />
चांद चाहता था<br />
उसे न मिले उधार की रोशनी,<br />
पेड़ की बहुत इच्छा थी<br />
कि<br />
इक रोज़ वह अपना फल खाए<br />
गाय अपना ही दूध पीने के लिए<br />
कई दिनों से तड़प रही थी<br />
नदियों की इच्छा थी<br />
कि एक दिन के लिए वे तालाब हो जाएं<br />
समंदर चाहता था<br />
कि<br />
कोई विजातीय धारा उसमें न गिरे,<br />
फगुना की इच्छा थी<br />
कि<br />
एक दिन के लिए ही सही<br />
वह सभी रिश्तों से पार पा ले<br />
माई, बहिन, भौजाई, ननद, मेहरारू<br />
के विशेषणों से इतर<br />
एक दिन वह बस फगुना<br />
ही रहे,<br />
मजदूर चाहते थे<br />
कि<br />
वे ख़ुद अपने मालिक बन जाएं,<br />
प्रथाएं चाहती थीं<br />
कि<br />
उनकी ओट में<br />
किसी की<br />
सिसकियां न सुनाई दें,<br />
आसमान<br />
एक दिन के लिए<br />
सिकुड़ना चाहता था,<br />
धरती चाहती थी<br />
कि<br />
उसकी गोद में<br />
लुटेरों, डाकुओं, चोरों, और बलात्कारियों<br />
को न ज़बरन दफ़नाया जाए,<br />
चाहती तो<br />
सुनरकी भी थी<br />
ब्याह हो जाए बड़के बखरिया में<br />
पर<br />
चाहने से क्या होता है<br />
तन से मनचाहा हमसफ़र तो नहीं मिलता<br />
उसके लिए पैदा होना पड़ता है<br />
कुलीन बनकर,<br />
चाह तो भगवान भी रहा है<br />
उसके सिर न मढ़े जाएं<br />
होनी, अनहोनी करने और कराने के बेतुके कलंक<br />
वह चाहता है कि<br />
मानस की पंक्तियों से कोई मिटा दे<br />
होइहि सोइ जो राम रचि राखा<br />
वह चाहता है कि कोई झुठला दे<br />
वृक्ष कबहु न फल भखें वाला दोहा<br />
उसका भी मन करता है<br />
धरती की तमाम प्रत्याशाओं, वर्जनाओं, कुंठाओं<br />
और<br />
महत्वाकांक्षाओं<br />
के दोष उस पर न थोपे जाएं<br />
लेकिन<br />
चाह तो उसकी भी अधूरी है<br />
विवश है वह<br />
अपने निर्माताओं के रचे गए व्यूह में फंसकर,<br />
एक दिन के लिए वह भी चाहता है<br />
मुक्त होना<br />
इस धारणा से<br />
कि<br />
वह ईश्वर है।</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-86966605711557874222019-03-24T08:39:00.001-07:002019-03-24T08:39:23.085-07:00यार! अब मन न कहीं लगे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBEaDnv96MhJ9fHVsH3QEb0NvqdkiJIitm80_cy4_517u0AEnZNYzpvBr_JIEJR4lx-aSS1onpygy9PColR85sgnLocGQHMkdLLq5tOt8GYp_n7pbWJwwgWfG6Yj2lnCuwlz6D4IvPQuTt/s1600/20190324_175019.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBEaDnv96MhJ9fHVsH3QEb0NvqdkiJIitm80_cy4_517u0AEnZNYzpvBr_JIEJR4lx-aSS1onpygy9PColR85sgnLocGQHMkdLLq5tOt8GYp_n7pbWJwwgWfG6Yj2lnCuwlz6D4IvPQuTt/s320/20190324_175019.jpg" width="240" /></a><div>
<br /></div>
<div>
यार! अब मन न कहीं लगे।<div>
<br /></div>
<div>
अपलक देखूँ, व्योम निहारूँ,</div>
<div>
आतुर होकर तुम्हें पुकारूँ;</div>
<div>
अहो! हुए तुम इतने निष्ठुर,</div>
<div>
तुम्हारी, चुप्पी क्यों न खले?</div>
<div>
<br /></div>
<div>
सारे वचन तोड़ बैठे हो,</div>
<div>
अपने नयन फोड़ बैठे हो;</div>
<div>
किसने प्रियतम मति है फेरी</div>
<div>
अकिंचन, हम रह गए ठगे!</div>
<div>
<br /></div>
<div>
कल तक सब कुछ उत्सवमय था,</div>
<div>
जीवन कितना सुमधुर लय था;</div>
<div>
हुए पराये तुम पल भर में,</div>
<div>
बरसों, आधी नींद जगे।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
प्यार! अब मन न कहीं लगे।</div>
</div>
</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-84574946721445901062019-03-06T04:21:00.000-08:002019-03-07T04:21:58.320-08:00जिन्हें चम्बल में रहना था वे अब संसद में रहते हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जिन्हें चम्बल में रहना था वे अब संसद में रहते हैं।<br />
किसी ने ठीक ही कहा है।<br />
<br />
हमारे जनप्रतिनिधि ऐसे हैं। इन्हें जनता ने अपना प्रतिनिधि बनाकर संसद और विधानसभा में भेजा है।<br />
अब वक़्त आ गया है इन्हें जेल भेजा जाए। अपने-अपने कार्यों के अनुरूप। लोकतांत्रिक देश में ये आज़ाद घूमने लायक तो नहीं हैं।<br />
<br />
संत कबीर नगर में जिला योजना की बैठक हो रही है।<br />
बैठक के दौरान भारतीय जनता पार्टी के सांसद शरद त्रिपाठी ने अपनी ही पार्टी के विधायक राकेश सिंह को जूतों से पीट डाला।<br />
<br />
<iframe allowfullscreen="true" allowtransparency="true" frameborder="0" height="308" scrolling="no" src="https://www.facebook.com/plugins/video.php?href=https%3A%2F%2Fwww.facebook.com%2Fpoemabhishek%2Fvideos%2F780577829001973%2F&show_text=0&width=560" style="border: none; overflow: hidden;" width="560"></iframe><b></b>
पहले बहस शुरू हुई, फिर हाथापाई। फिर गालियां और कुटाई साथ साथ।<br />
<br />
और जनता इनसे उम्मीद करती है ये विकास करने के लिए बैठे हैं। ये क्रेडिटखोर लोग हैं, इन्हें बस क्रेडिट चाहिए सीवी मजबूत करने के लिए।<br />
<br />
अगर बीजेपी में थोड़ी भी शर्म बची होगी तो इन दोनों महानुभावों को पार्टी से बाहर फेंक देगी। साथ ही दूसरी पार्टियों को भी इन्हें लपकने में उत्सुकता नहीं दिखाई जानी चाहिए।<br />
<br />
लोकतंत्र के काले धब्बे हैं ऐसे नेता। इनका सामाजिक बहिष्कार होना चाहिये।<br />
<br />
(वीडियो सुनने से पहले हेडफोन इस्तेमाल करें, और बच्चे इस पोस्ट से दूर रहें।)</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3204797356079413931.post-86688337757971429532019-03-03T10:01:00.001-08:002019-03-03T10:32:06.615-08:00गुलामों में कभी कोई बुद्ध हुआ है क्या?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjn3LnU6-bYhw8CIedB1l2Smcft9RZBlxo6BJx7N_wFRlNdb9EdKtHlnWiUfLtSuBprXOO1yq6FQEAMgNTtLPZ3dIxl3hSv-6CG8duTY5YA_YRLofU1cJbVqAsle286YmwsVb0WJTzymP0/s1600/clock-1461689_1920.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="993" data-original-width="1600" height="198" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjn3LnU6-bYhw8CIedB1l2Smcft9RZBlxo6BJx7N_wFRlNdb9EdKtHlnWiUfLtSuBprXOO1yq6FQEAMgNTtLPZ3dIxl3hSv-6CG8duTY5YA_YRLofU1cJbVqAsle286YmwsVb0WJTzymP0/s320/clock-1461689_1920.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
हमारा वक्त बिक चुका है. एक-एक पल किसी ने खरीद रखा है. किसी की आधीनता के बदले हमें कागज के कुछ टुकड़े मिलते हैं, जिनसे हमारी थोड़ी बहुत जरूरतें पूरी होती हैं. बस पेट पालने भर तक.<br /><br />पेट सागर है....भर नहीं सकता. आजीवन रिक्त रहता है. ऐसा मैं नहीं 'कड़जाही काकी' कह के गई है.<br />
<br />
कई बार लगता है कि भाग जाना चहिए हमें कहीं. अपने-अपने दायित्वों से. क्या ही कर लेंगे हम दुनिया में रहकर या दायित्व निभाकर.<br />
<br />
पलायन इतना भी बुरा है क्या.<br />
<br />
पर जिन्हें हम छोड़कर भागते हैं वे ज्यादा याद आते हैं. भागना थोड़ा मुश्किल भी है. हर कोई सिद्धार्थ तो है नहीं जिसे भागकर बोध हो जाएगा.<br />
<br />
आनंद तो मिलेगा नहीं. मिलते ही नहीं.<br />
<br />
भला बुद्ध का क्या होता अगर उन्हें आनंद मिला न होता.<br />
<br />
दरअसल महत्ता तो बस आनंद की है. मैं आनंद खोज रहा हूं.<br />
<br />
.....काश कह सकता.<br />
<br />
आनंद की तलाश बिना स्वतंत्रता के. स्वतंत्रता क्या स्वायत्तता भी. गुलामों के ज्ञान पर भरोसा कौन करे.<br />
<br />
कौन कहना है कि दास प्रथा खत्म हुई है. खत्म हो ही नहीं सकती. क्योंकि कुछ भी खत्म नहीं हो सकता. सब सतत् है. अवस्था परिवर्तन ही शाश्वत है. ऐसा मैं नहीं मानता, पर पुरखे मानते हैं.<br />
<br />
पुरखे गलत हैं इसे मैं साबित नहीं कर सकता. सही हैं इसे भी.<br />
<br />
मन यही कह रहा है कि गुलामों के पास कोई ज्ञान नहीं होता सिवाय दायित्व बोध के.<br />
<br />
गले में पट्टा है.....ओखरी में मूड़ा है...पहरुआ गिनते रहो...जूझतो रहो....सवाल यही है कि गुलामों का क्या कोई आनंद हुआ है. अगर हुआ है तो जानने की उत्कंठा है. <br />
<br />
कई बार यह भी लगता है कि बंधनों की गुलामी से भागे हुए लोग ही बुद्ध हुए हैं. पता नहीं. कौन जाने. सबकी अपनी-अपनी मंजिल. हमसे क्या.<br />
<br />
जेकर मूड़ा ओखरी में हो, तेहि गिनै.<br />
<br />
हमसे का.<br />
<br />
<br />
(फोटो क्रेडिट- pixabay.com)<br />
<br />
<br />
<br />
<div>
</div>
<br />
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; color: black; font-family: "Times New Roman"; font-size: medium; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; orphans: 2; text-align: left; text-decoration-color: initial; text-decoration-style: initial; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
-अभिषेक शुक्ल.</div>
</div>
अभिषेक शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/06009944798501737095noreply@blogger.com9