सोमवार, 24 दिसंबर 2012

दँश



 कितना जर्जर ये लोकतँत्र है,
 इससे तो तानाशाही अच्छी,
केवल हम दँश झेलते हैँ,
 सरकार यहाँ है नरभक्षी.
 जब लोकतँत्र के मँदिर मे,
 भगवान भ्रष्ट हो बैठा है,
 करता जनता का शोषण,
 जाने किस बल पर ऐठा है,
 सच के लिये जो लडते हैँ,
उन पर चलती हैँ बन्दूकेँ
आजादी कि कोयल अब
 बोलो किस बल पर कूके?
 क्या सत्ता मेँ आकर शासक,
 मानवता को जाता भूल,
 या इनके कलुषित ह्रदयोँ मेँ
 चुभते रहते नियमित शूल.
 "पदच्युत हो जाते इन्द्र यहाँ,
 मानव कि औकात ही क्या,
 हमसे ही हमारा शासन है,
 फिर सत्ता कि सौगात हि क्या,?
 "अब होश मेँ आओ गद्दारोँ,
 भेजेँगे तुम्हे तड़ि पार,
 बचने कि उम्मीद न करना,
 जनता मारेगी बहुत मार."

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

अनुलग्नक


कभी कभी परिस्थितियां व्यक्ति को मूक बना देती हैं. चाह के भी कुछ कह पाना बड़ा मुश्किल होता है, विधाता कुछ लोगों को अद्भुत तर्क शक्ति से समृद्ध करके धरा पर भेजते हैं. ऐसे महान लोगों को न तो कोई कुछ समझा सकता है, न ये समझना चाहते हैं. क्योंकि जब इन्हें औसत बुद्धि का कोई मानव कुछ समझाना चाहता है तो ये उसे अपने अकाट्य तर्कों से चुप कर देते हैं. ये भी सत्य है की अधिक आत्मविश्वास अहंकार का कारण होता है. यह ध्रुव सत्य नहीं है की हम हमेशा सत्य ही होंगे, त्रुटियाँ सबसे होती हैं चाहे वो कितना भी बुद्धिमान क्यों न हो. सदैव अपने निर्णय सर्वश्रेष्ठ नहीं होते औसत बुद्धि के लोग भी प्रकांड पंडितों से अधिक बुद्धिमानी का कार्य करते हैं. अपने विचारों को शाब्दिक अर्थ देना उचित है उस सीमा तक की जब तक शब्द किसी का अहित न करे , अथवा कष्ट न पहुचाये, शब्द जितने सरल होते हैं उनका प्रभाव उतना ही गहरा होता है, किन्तु कुछ अतिबुद्धिमान व्यक्ति अपना पांडित्य सिद्ध करने हेतु व्यंगार्थक, अथवा कुछ विशिष्ट शब्दों का चयन करते हैं जो श्रोता के मन में अकारण ही क्रोध उत्तपन करता है. रसायन शास्त्र में अनुलग्नक और पूर्वलाग्नक का बड़ा महत्व है, कुछ लोगो को सरल भाषा आती ही नहीं, उसमे अनायास ही पूर्व्लाग्नक और अनुलग्नक सम्मिलित करते है, फलतः अर्थ का अनर्थ हो उठता है . किसी भी प्रकार का अहंकार विषाद का कारण बनता है. अहंकार सदैव दुक्दायी होता है, और अहंकार ही व्यक्ति को अहंकार पतन की ओर ले जाता है... अपनी उपलब्धियों पर गर्व करना उचित है किन्तु अहंकार करना सर्वथा अनुचित . कोई भी पूर्ण नहीं होता , हम मानव हैं भगवान नहीं, अहंकार से मानव जीवन के परम लक्ष्य अर्थात निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती, अतः अहंकार से मुक्त रहो , भारतीयता के मार्ग पर निर्भीक होकर बढ़ो , पथ की सबसे बड़ी बाधा व्यक्ति का भय होता है, भय त्यागो...उन्मुक्त गगन में स्वछन्द उड़ान भरो..अन्तरिक्ष प्रतीक्षा में है ..........
छायांकन - श्वेता शुक्ला

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

संकल्प


कैसा यह मेरा जीवन है,
 अर्थवान भी अर्थहीन भी,
 बिन बूंदों के बादल जैसा,
 आवश्यक भी महत्वहीन भी ,
 जडवत हूँ चेतन भी हूँ,
 किन्तु चेतना सीमित है ,
जा सकता हूँ नभ पार अभी ,
 आशा भी अवलंबित है ,
 कई किरण हैं उस प्रकाश के ,
 जो जीवन का है गंतव्य ,
 किन्तु कही बाधा अटकी है,
 सीमित करती जो वक्तव्य ,
 मैं अक्सर डग-मग होता हूँ,
 नभ के उत्तेजित पवनों से,
 थक हार बैठता हूँ प्रायः,
 थल के दुखदाई वचनों से
 ये जग मेरे अनकूल नहीं ,
 मुझको अनुकूलन लाना है,
 सींचित यदि सत्य रहा मुझमें,
 तो जग को स्वर्ग बनाना है...

बुधवार, 26 सितंबर 2012

.........बचपन .......

'' जब मैं छोटा बच्चा था,
 बस्ते में किताबें होती थी,
 हम चलते चलते थकते थे ,
 राहें कंकर की होती थीं .
 टेढ़े मेढ़े रास्तों में हम
 अक्सर गिर जाते थे ,
सड़कों को पैर से मार मार कर,
 भैया दिल बहलाते थे ,
मैं तो रो पड़ता था हरदम,
 आग उगलती गर्मी से ,
भैया मुझको गोद उठता,
 मम्मी जैसी नरमी से ,
जिन राहों से हम आते थे,
 थे वह बंजारों के डेरे ,
जब हम उनको दिख जाते थे ;
 मोटी मोटी लाठी लेकर,
 आस पास मंडराते थे,
 तब जब पीछे से एकदम,
 भैया जब आ जाता था,
 सबको मार मार कर,
ताड़ी पार कर आता था ,
 मुझको अब भी याद आती हैं,
भूली बिसरी सारी बातें ,
 जाने क्यों चुप चाप कही से ,
 भर आती हैं मेरी आँखें ,
 आज बदल गया है सब कुछ ,
सब कुछ फीका फीका है,
 मतलब की दुनिया है यारों,
 कोई नहीं किसी का है ,
 अब भी पढ़ते हैं हम सब,  
सब कुछ बदला बदला है,
 कही धुप कही छावं है,
 कुछ भी नहीं सुनहरा है,
 सड़के पक्की हो गयी अब तो ,
 पर उनमें है खाली पन,
 मुझको अक्सर याद आता है,
अपना प्यरा प्यारा बचपन ......''

रविवार, 16 सितंबर 2012

कवी

इन दिनों कुछ अजीब सा लग रहा है, कुछ लिखना चाहता हूँ पर शब्द साथ ही नहीं देते जैसे मैंने इन्हें कोई छति पहुचाया हो -
 न मैं कवी हूँ,
   न कवितायें मुझे अब,
रास आती हैं,
मैं इनसे दूर जाता हूँ,
ये मेरे पास आती हैं,
हज़ारों चाहने वाले पड़े
हैं इनकी राहों में,
मगर कुछ ख़ास
मुझमें है,
ये मेरे साथ आती हैं.




''कई चाहत दबी दिल में,
 जो अक्सर टीस भरती हैं,
 मेरे ख्यालों में आकर.
 मुझी को भीच लेती हैं ,
 कई राहों से गुजरा हूँ ,
दिलों को तोड़कर अक्सर ,
 मगर कुछ ख़ास है तुझ में,
 जो मुझको खींच लेती है ...

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

व्यथा

जब परिस्थितियां परिहास करें तो जाने क्यों दुःख होता है . यह हर कोई जनता है की प्रारब्ध में जो लिखा होता है वही होता है किन्तु यह जानते हुए हम दोष विधि को देते हैं ; इसमें हमारी गलती नहीं , मानव स्वाभाव ही ऐसा होता है. एक कहावत मैं बचपन से सुनता आ रहा हूँ की बकरी की माँ कब तक खैर मनाएगी? एक न एक दिन तो उसे काटना ही है. कब तक हम अपने प्रारब्ध से बचेंगे ? आज सुबह सुबह मैं सीढियों से उतर रहा था की अचानक सीढियों से पैर फिसला और मैं निचे पहुच गया . चोट बहुत आई और दर्द असहनीय है, किन्तु विवशता देखिये पीड़ा को आनंद में बदलना पद रहा है . विगत कई दिन से मैं अवसाद में हूँ जनता नहीं क्यों पर हर पल घुटन भरा होता है. किसी ने क्या खूब कहा है '' अगर आप शांति चाहतें है तो युद्ध के लिए तैयार रहें.'' मैं भगवन से प्रार्थना करता हूँ की सब कुछ ठीक हो पर कुछ ठीक नहीं होता . भगवन भी बड़े विवश और लचर हैं , किस किस की सुने ? सुनाने वाले हज़ार और सुनने वाला कोई नहीं .एक पक्षीय वार्तालाप करे तो किस से ? भक्त तो सभी हैं पर परम प्रिय भक्त तो कुछ एक ही होते हैं . मैं भागवान पर पक्षपात का आरोप नहीं लगा रहा पर कुछ तो अनुचित है जो मुझे वेदना में खीच रहा है. मेरी स्थिति कुछ ऐसी है
 '' किसी की जिन्दगी मैं जी रहा हूँ ,
हमारी मौत कोई मर रहा है. ''

बुधवार, 5 सितंबर 2012

प्रश्न

क्यों दुःख होता है दुःख में ;
 क्यों सुख होता है सुख में;
 क्या यही भाग्य अवलोकन है?
 क्या यही विधाता का मन है?
क्यों दुःख होता है दुःख में ;
 क्यों सुख होता है सुख में;
 क्या यही भाग्य अवलोकन है?
 क्या यही विधाता का मन है?
 मैंने बस दुःख को जाना है ,
इक दुखद स्वप्न इसे माना है
 यह वैतरणी की धरा है ,
 इसे पार कर के कुछ पाना है.
 इस लघु जीवन में कष्ट बहुत हैं ,
 पग-पग पर बाधाएँ हैं ,
 जो तनिक मार्ग से भटक गए,
 मुंह खोले विपदाएं हैं ;
 सुख के साधन का पता नहीं ,
दुःख परछाईं जैसे चलता ,
अनुसन्धान करूँ कैसे ?
 जब मन में रही न समरसता ;
 अब बार- बार क्यों भटक रहा,
 क्या मार्ग मिलेगा मुझे कहीं?
 या चिर निद्रा में सो जाऊं?
 मिट जाएगा संताप वहीँ .....................

संताप

कुछ कहने से डर लगता है
 जाने क्या होगा अंजाम मेरा,
मेरी रूह कांपती है अक्सर
 कैसे होगा सब काम मेरा ,
 मेरी राहें सब से जुदा हैं क्यों?
 कुछ करता हूँ कुछ हो जाता है,
जिन राहों से गुजरता हूँ मैं.
  कुछ न कुछ खो जाता है ;
भूली बिसरी रातों ने
 कुछ ऐसे दर्द दिए हैं मुझे ,
मैं भूलूं तो याद आती हैं ,
मैं अब तक भूल सका न जिन्हें ,
 शायद वो पहली गलती थी ;
जब जज्बातों ने दम तोडा था
 मैं सीधा सदा बच्चा था,
मेरी राहों में सौ रोड़ा था ,
 हर बाधा मैंने पार किया
 गिर गिर कर उठाना सीखा ;
सब कुछ अपना मैं वार दिया
, मेरे वार पे जो प्रहार हुआ
 उसका कटु अनुभव अब तक है
' जो भौतिकता ने छीना था;
 वह अदभुत कलरव अब तक है
 जब शून्य हो गयी थी स्मृतियाँ ,
 भव शून्य हो गया था जीवन ,
 बस अधरों में मैं विस्मृत था
 न जड़ ही रहा न रहा चितवन .
 संकल्पों का संधान किया 
मैंने पहला विषपान किया ;
 धर्म- कर्म था था भूल चूका ,
 विधि में मैंने व्यवधान किया .
 अब भूल रहा शैनः शैनः ,
 अपने अर्जित उन पापों को ;
 जब मृत्यु मेरी आ जाएगी
 तब भूलूंगा संतापों को ..............................

रविवार, 2 सितंबर 2012

.. अधूरा लगता है.........

अधूरा लगता है ये चाँद जैसे इन तारों ने अकेला छोड़ दिया हो तन्हा सिर्फ तन्हा ; चांदनी रात में ठंडी हवाएं जो कभी सुकून देती थी अब आग लगती हैं ; लफ्जों की हकीक़त सामने आकर, तन्हाई के लिबास में सिसकियाँ भारती है साथ है तो बस तान्हापन ; वक़्त के थपेड़ों ने जर्जर कर दिया है न साँसे थमती हैं न नब्ज; सब कुछ ठहरा- ठहरा क्यों लगता है ? रेतों के मकान में रह- रह कर जीना तो सीख लिया है जीना तो सीख लिया है , कायनात की तबाही भी अब अनजान नहीं है ; वक़्त के दिए हजारों जख्म अब भी दुखते हैं ; हकीक़त के लहरों ने केवल तड़प दी है वरना साहिल पे भटकना तो आदत है..............

बुधवार, 29 अगस्त 2012

.............तलाश ...........

इन हवाओं में नमी है शायद ये भी साथ हैं मेरे ; कहना चाहते हैं कुछ पर लफ्ज़ नहीं मिले ; दर लगता है कहीं ये नमी समंदर न बन जाए ; और साहिल पर रेत के अलावा कुछ न मिले इन आँखों का क्या है? बहती रहती हैं , कुछ जाने bina , किसी की तलाश में , किस्मत ही कुछ ऐसी है कि ; तलाश कभी ख़त्म ही नहीं होती.......... रेत के महल बनाकर गलती कर बैठा जानते हुए भी कि; एक झोका ही काफी है, बर्बाद करने के लिए ; अब तो आदत में , शामिल है जुड़ना , टूटना , और , फिर चलते रहना......................

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

...मेरी मिट्टी...

  मेरी   मिट्टी  पुकारती   मुझको ,           लौट  आओ  मेरे  अंचल  में ;  तेरी  आंखे  सूनी  सूनी  हैं ,   आजा  भर  दू  इनको  काजल  से ;   मेरी  गलियां  पुकारती  मुझको   लौट  आ तू  मेरी  राहों  में ;  उडती  धुल  मुझसे  कहती  है   सिमट  जा  आज  मेरी  बाहों  में ;  ये  खड़े  पेड़  मुझसे  कहते  हैं   मुझे  तुझ  से  बात  करनी  है ;  ज़रा  पास   से गुजर   जा  तू   मैं  जड़  हु  तू  मेरी  टहनी  है ;  हवाओं  ने  कहा  चुपके  से   ये  रात  सहमी  सहमी  है ;  तेरा  इंतज़ार  है  मुझ  को     मुझे  तुझ  से  बात  करनी  है.........

सोमवार, 5 मार्च 2012

क्यों............?

इन दिनों जाने क्यों ,
खुद से दूरी बढ़ी ,
मैं अलग हो गया ,
हर पल हर घडी ,
ये फलक ये जमी ,
है अधूरी सी क्यों ?
ये सड़क ये गली ,
सूनी सूनी सी क्यों ?
मेरे हर कदम ,
पड़ रहे हैं किधर ,
चल जाता हु मैं
मैं न जाता जिधर ,
कोई आवाज़ हरदम
बुलाती रही ,
तन्हाई में मुझको ,
सताती रही ,
अब मुझे मेरा रास्ता
बता दे खुदा ,
मैं क्यों हो गया हूँ खुद से जुदा ,
एक तस्वीर आँखों से हटती नहीं ,
उसे खोजता है मेरा दिल कही ,
उसको देखे सदियाँ गुज़रती गयी ,
देखने कि ख्वाहिस दबी है कही ,
मुझे मेरी मंजिल दिला दे खुदा ,
आज भी क्यों है तू मुझसे khafa
मेरी नज़रों से दूर न जाना कभी ,
मेरी मल्लिका तुम रहना यही ,
मेरी हसरत है तुम पास आती रहो ,
दूर से ही सही
मुस्कुराती रहो ....

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

........अभिमान ........

कदम कदम पे खतरा है ,
खतरों से खेलना ,
शत्रु के प्रहार को ,
वीरता से झेलना ,

क्या करेंगी युद्ध में ,
प्रेम की ये नीतियाँ ,
हर कदम पे रोकती हैं ,
देश की कुरीतियाँ ,

शत्रु से सजग रहो ,
देश का मान रख ,
प्रण करो विजय का ,
हाथ में जान रख ,

हार न हो कभी ,
वीरता का ध्यान धर ,
रक्त हीन विश्वा में ,
तू नवीन प्राण भर ,

अन्धकार युक्त जग है ,
सूर्य बन प्रकाश दे ,
ज्योत्स्ना हो जगत में ,
एक सुखद आभास
दे ,

जीवन की विषमता को ,हस कर स्वीकार कर,
चेतना का तुरंग बन
एक नया उपकार कर ,


"क्रांति एक स्वप्न है , स्वप्न को साकार कर ,
स्वयं को हे जीत ले
अहम् का संहार कर ...."

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

................हर पल ..............

" ये धुंधली सी तस्वीरें ,
जब भी याद आती
हैं ,
दिल में एक अजीब
ख्वाहिश ,
जाने क्यों तीस
भारती है ."


वो यादों के जो मेले थे ,
जिनमें हम अकेले
थे ,
वो हलकी सबनमी
बारिश ,
जिनमें पत्थर को झेले थे ,

वो बेचैन से
रस्ते ,
वो खुशनुमा मंज़र ,
नज़रें टिकी जब
उन पर ,
जैसे कुछ हुआ
अन्दर ,

जिन्हें हम खोजते हर
पल ,
देखा था उन्हें ही
कल ,
पहचाना नहीं मुझको ,
कहा कि बस चला
चल ,

जरुरत है नहीं उनकी ,
मुझे हर पल कोई
मिलता ,
चलने ki आदत है ,
बदलते हर पल नया रास्ता ...........