रविवार, 2 सितंबर 2012
.. अधूरा लगता है.........
अधूरा लगता है ये चाँद
जैसे इन तारों ने
अकेला छोड़ दिया हो
तन्हा सिर्फ तन्हा ;
चांदनी रात में
ठंडी हवाएं
जो कभी सुकून देती थी
अब आग लगती हैं ;
लफ्जों की हकीक़त
सामने आकर,
तन्हाई के लिबास में
सिसकियाँ भारती है
साथ है तो बस तान्हापन ;
वक़्त के थपेड़ों ने
जर्जर कर दिया है
न साँसे थमती हैं
न नब्ज;
सब कुछ ठहरा- ठहरा
क्यों लगता है ?
रेतों के मकान में रह- रह कर
जीना तो सीख लिया है
जीना तो सीख लिया है ,
कायनात की तबाही भी अब
अनजान नहीं है ;
वक़्त के दिए हजारों जख्म
अब भी दुखते हैं ;
हकीक़त के लहरों ने केवल तड़प दी है
वरना साहिल पे भटकना तो आदत है..............
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