शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

ख़ामोशी

रात के अँधेरे मेँ,
ख़ामोशी
कुछ इस कदर
पाँव
पसारती है
कि,
समझना
मुश्किल हो जाता है
कि
ख़ामोश हम हैँ
या रातेँ ?

अनजान राहोँ पर,
ड़गमगाते
कदमो के सहारे
मँजिल तलाशना
मक्कारी
लगता है
फिर भी
हर रोज निकलता हूँ
तलाश मेँ,
कभी गिरता हूँ
कभी
गिरा दिया जाता हूँ ,
मीलोँ भटकता हूँ
पर
अफसोस
मँजिल फिर भी दूर लगती है.

रोशनी मिलती नहीँ,
अधेरे मेँ
कुछ सूझता नहीँ
पर
ज़िद है फिजा मेँ
घुली हुई विरानियोँ
के सहारे,
मँजिल पाने की
जानता हूँ
खामोशियाँ कुछ नहीँ कहतीँ
पर
इक उम्मीद है
कि
इनके बिना कहे,
सुन लुँगा
मँजिल की पुकार.
                                      (चित्र गूगल से साभार )

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

थकान

मिला था तुमसे
कुछ
उलझनो की पोटली
लेकर,
सुनाया था तुम्हे
कुछ पुराने
बेमतलब जज्बातों को,
सोचा था
 सुलझा दोगे
अपने उलझनो की तरह,
पर तुम तो मुझे
सुन भी नहीं पाये.
क्या सुनोगे?
हर कोई अपनी शिकायतें
थक -हार कर
लाता है तुम्हारे पास,
इस थकान में
भूल जाते हो
तुम अपनी थकान.
रो भी नहीं सकते,
हस भी नहीं सकते.
तुम्हारी जिंदगी भी
गुजरती होगी
तकलीफें
सह-सह कर.

जाने क्यों मेरे जेहन में
कौंधते है कुछ सवाल
बिजली बनकर.

हर पल
हर वक्त
हर लम्हे,
तलाशता हूँ जवाब
पर
मिलती है सिर्फ बेचैनी.
समझ में नहीं आता
मेरी उलझने
सुलझती क्यों नहीं?
क्यों हारता हुँ
अक्सर अपनी परेशानियों से?
डर लगता है अब
अपने आप से,
किस ओर जा रहे है मेरे कदम?
बिना मेरी मर्ज़ी के....


शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

जलील (नारी उत्पीड़न पर कटाक्ष )

बात एक दशक पहले की है, तब हमारे गाँव में पक्की सड़क नहीं थी ईंट के खडंजे हुआ करते थे. बारिशों में चलना मुश्किल होता था. गाडी तो दूर लोग साइकिल भी गाँव में घुसाने से डरते थे. चलने के लिए कोई ख़ास मुश्किल नहीं थी बस कपडे गीली मिट्टी से लथपथ हो जाते थे. इन सबसे बचने का एक ही उपाय था कि किसी तरह नहर के बाँध पर चढ़े  फिर कीचड़ से सुरक्षा हो जाती थी.हाँ अलग बात है कि कीचड़ की  जगह सुअरा (एक तरह का खर जो कपड़ों में बुरी तरह चिपक जाता है) पैरों में लगते थे जिन्हे छुड़ाने में जान निकल आती थी. स्कूल से आने के बाद यही एक काम मैं लगन से करता था.
                                    सड़क के दोनों किनारे शीशम के बड़े -बड़े पेड़ हुआ करते थे जिन पर गिध्दों का एकाधिकार हुआ करता था. कुल मिलकर १० से१२ पेड़ थे पर पेड़ पर पत्ते कम और गिद्ध अधिक. गाँव में जब कोई जानवर मरता था तो उसे घसीट कर नहर के पास छोड़ दिया जाता था. अब गिद्ध तो गिद्ध  ठहरे  यूँ ही उन्हें प्राकृतिक अपमार्जक नहीं कहा जाता. मांस देखते ही पहुँच जाते थे हजम करने. माल देखते ही लूट शुरू, पर गिद्धों का सरदार बड़ा न्यायप्रिय था सबको बराबर माल बांटता था, अलग बात है इन गिद्धों कि बारात में कौवे मज़ा  लूट लेते थे.
  अब गिद्ध  तो रहे नहीं इंसान ही गिद्ध हो गएँ हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि गिद्ध सिर्फ मारा मांस खाते थे, इंसान दोनों तरह के मांस खाता  है बस कुछ न कुछ होना चाहिए.इंसानों कि क्षुधा सिर्फ इतने से नहीं भरती अपने संतृप्ति के नए आयाम इंसान हर दिन गढ़ता है.इन गिद्धों के बीच कुछ कौवे भी हैं  जिन्हे आप मीडिया कह सकते हैं. कभी लोकतंत्र का एक मज़बूत स्तम्भ कही जाने वाली संस्था अब विदूषकों जैसा आचरण कर रही है. घटिया और सस्ती खबरे परोसना वो भी नमक मिर्च के साथ इसका स्वभाव बन गया है.आज ये कौवा उद्द्योगपतियों और नेताओं का गुणगान करने में जरा भी नहीं चूकता जहाँ रोटी दिखी पहुँच जाता है, और जहाँ रोटी नही मिली वहाँ अपनी कांव-कावं  वाली अपनी आवाज शुरू कर देता है.
      अभी कुछ महीने पहले भारत के विश्वविख्यात संत, क्षमा चाहता हूँ  कुख्यात संत आसाराम के कुकृत्य के लिए जबसे उन्हें कृष्ण जन्म भूमि में भेजा गया तबसे उनके नियमित नए -नए कारनामे सामने आ रहे हैं खैर आने भी चाहिए भारत में अवसर सबको सामान रूप से मिलता है किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं है हमारे यहाँ. हम बचपन से सुनते आये हैं  कि कोई कितना भी हत्यारा, लुटेरा या बलात्कारी क्यों न हो उसके मन में यही इच्छा पुष्ट  होती है कि उसका बच्चा आज्ञाकारी, सत्कर्मी तथा धर्मनिष्ठ बने, किन्तु हमारे असंत शिरोमणि आसाराम के कुपुत्र नारायण साईं बिलकुल अपने पिता पर गए हैं. बेटे पर पिता के वरद हस्त का परिणाम दिख रहा है. पिता १० नंबरी तो बेटा  १०० नम्बरी. अनुवांशिक गुणों  का इतना स्पष्ट स्थानांतरण अब तक विज्ञान ने कहीं नहीं देखा था, विज्ञान अचंभित है इन दिनों.
                                      अपने आपको भगवान् कृष्ण का अनुयायी कहने वाला आसाराम भगवान् से भी अधिक योग्यता रखता है. भगवान् ने तो आठ वर्ष  की  अवस्था में ''रास'' रचा था पर आसाराम ने जीवन के सातवें दशक में ''रास'' रच कर इतिहास रच दिया, देख लो भैया पुरुषत्व का प्रभाव.क्या दर्शन है बाप बेटों का. खैर क्या कहा जाए भारतीय जनता को जो अब भी ''पतितपावन आसाराम '' के भजन गा रही है. असंत आसाराम के पुत्र ''नारायण स्वामी'' ने नारायण तक को नहीं छोड़ा, घसीट  उठे भगवान् भी इसके चक्कर में.मंच पर स्वयं को कृष्ण ही समझता था ये असंत पुत्र. 'यूट्यूब' पर कई विडियो मिल जायेंगे पिता-पुत्र की मूनवॉक करते हुए. इनके नृत्य के आगे तो प्रभुदेवा  भी बगलें झाकने लगे. क्या मस्त राच रचते थे बाप-बेटे मंच पर.
       नारायण भी सोचते होंगे ऊपर से की क्या करूँ इनका, मेरा नाम धरातल पर बड़ा पवित्र समझा  जाता था. लोग अपने बच्चों के नाम मेरे नाम पर रखते थे पर अब लोग अपने बच्चों के नाम रावण, विभीषण, कुम्भकरण रख देंगे पर नारायण नहीं रखेंगे, खैर भगवान् की भी चिंता जायज है.
        इन बाप बेटों के कारनामे एक-एक करके खुलते गए, नारायण साईं पर दो बहनों के यौन शोषण का आरोप लगा, (५ वर्ष पूर्व का कृत्य) नारायण साईं ने खुद भी कबूला कि एक दासी का बेटा उसका खुद का बेटा है. और भी कई मामले सामने आये और धर्म से खिलवाड करने वाले जेल भी पहुचे. इन दिनों बड़ी नयी - नयी ख़बरें आ रही हैं पर ये समझ में नहीं आता इनका अत्याचार पिछले कई वर्षों से चल रहा था पर मीडिया खामोश क्यों थी?  क्या पांच साल पहले मीडिया, महिला आयोग, पुलिस, मानवाधिकार संगठन जैसी संस्थाएं नहीं थी क्या? या आसाराम के साम्राज्य में सर उठाने कि हिम्मत किसी में नहीं थी?
 पीड़िताओं के साथ जो पिछले कुछ वर्षों से हो रहा था वो क्या था? कोई साधना या आसाराम का सम्मोहन जो उसके जेल जाने के बाद टूटा? वजह का तो कुछ पता नहीं पर एक बात तो समझ में आ ही गयी कि पीड़िता ने थोड़ी सी हिम्मत दिखाई होती और मीडिया ने अपनी रूचि दिखायी होती तो नारायण साईं कब का अंदर हो चुका होता, समाज उसकी पूजा न करता. करतूतें तो इनकी बहुत दिनों से प्रकाश में आ रहीं थी पर शायद  मीडिया का पेट भरा जा रहा था, भाई पैसे किसको काटते हैं? पैसा बंद तो पूजा बंद. मीडिया को जब तक पैसे मिले तब तक खबरें सुर्ख़ियों में नहीं आयीं, पैसा न मिलते ही स्टिंग ऑपरेशन चालु हो गए.फिर क्या आसाराम ये आसाराम वो, टी.आर.पी के लिए हर दिन नए मसाले का जुगाड़.
  खैर आसाराम और नारायण साईं के गिरफ्तारी के बाद महिला संगठनों कि सक्रियता बढ़ी है, हालांकि यौन अपराधों की संख्या भी बढ़ी है.मीडिया का ये काम  अच्छा लगा कि अब थोड़ी सक्रियता आ गयी है या यों कहिए फुर्त हो गयी है. परिणामस्वरुप न्यायाधीश, वकील, लेखक, संपादक, पत्रकार और डॉक्टर सब नप गए हैं, जिनके भी खिलाफ  यौन उत्पीड़न  का मामला उठा सीधे जेल गए, और मीडिया भी पीछे पड़ गयी बिना किसी भेद भाव के. इतनी सक्रियता देखकर फख्र हो रहा है कि चलो इस अंधेर नगरी में किसी को न्याय तो मिला, वर्ना अन्याय देखने की तो हमे आदत पड़ गयी है.
           मीडिया के सक्रियता के चलते ही दिल्ली के सामाजिक कार्यकर्ता खुर्शीद अनवर ने आत्महत्या कर लिया, शायद बेइज्जती बर्दाश्त नहीं हुई. क्या था क्या नहीं ये तो राज ही रह गया पर अब कोई किसी लड़की की मदद करने से थोडा डरेगा कि क्या पता कब क्या आरोप लग जाए. विपद को कौन जनता है. एक आम आदमी होकर खुर्शीद अनवर में इतनी शर्म थी तो आसाराम और उसके बेटे में शर्म नदारद क्यों है? पतितों कि तरह अब भी जिन्दा हैं. क्या ये बाप-बेटे पैदाइशी  जलील हैं?
                               एक बात तो माननी पड़ेगी कि नारी सदियों से उपेक्षित और शोषित रही है; इसके लिए काफी हद तक नारी खुद जिम्मेदार है.मुंह में ताले और हाथों में बेडियाँ जकड़ी रहेंगी तो यही स्थिति वर्षों तक यथावत रहेगी. इंसानों को भी सोचना चाहिए कि वो इंसान हैं गिद्ध  नहीं, यदि खसोटना सीखेंगे तो विलुप्त हो जायेंगे, बेहतर होगा कुछ मानवीय गुण भी बचा के रखें. समाज को समझना चाहिए कि अधिकारों का उपयोग यदि उचित रूप से हो तो आसाराम जैसे लोग जेल में पहुँच जाते हैं और थोडा सा भी गलत तरीके से हो तो खुर्शीद अनवर जैसे लोगों से समाज भरा पड़ा है...

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

अज्ञात

प्रिय तुम मधु हो जीवन की,
तुम बिन कैसी मधुशाला?
जिसमे तुम न द्रवित हुए ,
किस काम की है ऐसी हाला?

तुम शब्द हो मेरे भावों के
तुम पर ही मैंने गीत लिखे,
तुमको सोचा तो जग सोचा,
और समर भूमि में प्रीत लिखे,

अवसाद तुम्ही, प्रमाद तुम्ही,
आशा और विश्वास तुम्ही ,
भावों के आपाधापी की
प्रशंसा और परिहास तुम्ही.

तुम्हे व्यक्त करूँ तो करूँ कैसे?
शब्द बड़े ही सीमित हैं,
किन भावों का उल्लेख करूँ?
जब भाव तुम्ही से निर्मित हैं.

तुम प्राण वायु तुम ही जीवन,
तुमको ही समर्पित तन-मन-धन,
जब -जब  भी तुम शून्य हुए
जीवन कितना निर्जन-निर्जन?





तुम व्यक्त, अव्यक्त या निर्गुण हो,
इसका मुझको अनुमान नहीं,
मेरे बिन खोजे ही  मिल जाना,
तुम बिन मेरी पहचान नहीं.

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

एहसास

बैठा था इंतज़ार में
पागलों कि तरह
 चुप चाप
तुम्हारी राहों में;
सोचा था
एक झलक मिल जायेगी
पर
दूर -दूर तक
तुम नजर नहीं आई
न तुम्हारी परछांई.
मेरे लिए
तुमसे होकर,
गुजरने वाली हवा ही
काफी थी;
पर
हवा ने भी मुझसे बेरुखी  कर ली,
अनजान से  ख्यालों में
खुद को खोता गया,
पर लोगों ने तो
मुझे
एक और नाम दे दिया
 ''पागल''
क्या करूँ?
किस से कहूँ
कि
ये पागलपन 
भी
खुदा कि नेअमत
है,
 तुमसे ,
 न रब से,
कोई शिकायत
नहीं;
जाने क्यों
    टुकड़ों  का प्यार
मुझे रास नहीं आता;
और
अधूरे कि आदत नहीं है.
तुम्हारी बेरुखी
भी
   तुम्हारी अदा लगती है,
और मेरी जिंदगी
भी
मुझे सजा लगती है.
   मेरे जज्बात
तो बस मेरे हैं,
 वो मुझे रुलाएं
या तड़पायें,
फर्क पड़ता क्या है?
मेरा क्या?
मझे अब
दर्द भी अपना लगता है,
खुशियां तो
तुम्हारे साथ
कब कि जा चुकी हैं,
अब है तो बस तन्हाई,
हर पल - हर लम्हा.
मेरे गम
और मेरी तन्हाई
हाँ बस यही है
मेरी जिंदगी.

आज एक अर्से के  बाद
सुकून मिला
जब किसी ने मुझसे कहा
कि
पत्थरों कि दुनिया में
रहते रहते
इंसान भी पत्थर
हो गए हैं.

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

अधूरी हसरत


जिनके याद में ताजमहल बना
उनकी रूह तो तड़पती होगी
संगमरमर की चट्टानों
के नीचे
जहा हवा भी आने से डरती है
वहां दो रूहें कैसे
एक साथ रहती होंगी ?
मुमताज को जीते जी तो कैद होना पड़ा
कंक्रीट की मोटी दीवारों में ,
सब कुछ तो था शायद
आजादी के अलावा ,
ख़ुशी के दो पल मिले हो या न मिले मिले हो
पर कैद तो जिन्दगी भर मिली

उन्हें आजाद कबूतरों को देख कर
उड़ने की चाहत तो थी
मगर सल्तनत की मल्लिका
सोने के पिंजड़े में
कैद थी .
शहंशाह ने उन्हें समझा तो एक खिलौना
उनसे खेला उन्हें चूमा ,
खिलौने के अलावा
कुछ और न थी
मुमताज बेगम ,
उनकी दीवानगी ही थी की
मौत को अपना हमसफ़र बना लिया
शायद मौत के आगोश में आजादी दामन थाम ले ,
शायद खुली हवा , और
प्रकृति के प्रेम का
सानिध्य मिले ,
पर हसरते कब पूरी होती हैं ?
दफ़न हुई तो वह पर भी
रूह तड़पती रह गयी

पथ्थरों नीचे

एक अधूरी टीस भारती ..........

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

प्रतिघात



मेरे मन में वेदना है
विस्मृत सी अर्चना है ;
आँखे ढकी हैं मेरी
मुझे विश्व देखना है.
नयनो पे है संकट
पलकें गिरी हुई हैं;
कुछ विम्ब भी न दिखता
दृष्टि बुझी- बुझी है.

संध्या भी बढ़ रही है
मुझे सूर्य रोकना है,
इस अन्धकार जग में,
नया तूर्य खोजना है.
नैराश्य की दिशा में ,
अब विश्व चल पड़ा है
नेत्र हीन होकर
बस युद्ध कर रहा है.
न मानव है कहीं पर
मानवता न शेष अब है,
आतंक के प्रहर में
भयभीत अब सब हैं.
कोई उपाय है जो
शान्ति को बचा ले?
भूले हुए पथिक को,
इक मार्ग फिर दिखा दे.
परिणाम हीन पथ पर
क्यों बढ़ रहे कदम कुछ?
ये विषाक्त मानव
क्या कर रहा नहीं कुछ?
भयाक्रांत हैं दिशाएँ
किसे दर्प हो रहा है?
किन स्वार्थों से मानव
अब सर्प हो रहा है?
मानव की बस्तियों में
विषधर कहाँ से आये?
सोये हुए शिशु को
चुपके से काट खाए?
क्या सीखें हम विपद से
असमय मृत्यु मरना?
या शक्तिहीन होकर,
असहाय हो तड़पना?
बिन लड़े मरे तो,
धिक्कार हम सुनेंगे,
कायर नहीं कभी थे,
तो आज क्यों रहेंगे?
हिंसा के पुजारी
हिंसा से ही डरेंगे,
प्रतिघात वो करेंगे,
संहार हम करेंगे.
.”प्रति हिंसा हिंसा न भवति” .

रविवार, 22 सितंबर 2013

फितरत



हम जीते हैं,
झूठे ख्वाबों के सहारे
जिन्दगी,
न कोई रास्ता
न कोई मंजिल
भटकना है,
अनजान राहों पर,

बसाना चाहते हैं,
इक नयी
दुनिया,
अपने
वजूद को मिटाकर ,
नफरत , धोका, फरेब,
घुटन सी होती है,
दुनिया को देखकर,
न वफ़ा ,
न सच्चाई,
हर तरफ,
नफरत, नफरत,
सिर्फ नफरत,
हैवानियत के आलम में,
पहचान खोती,
इंसानियत,
किश्तों में
दम तोड़ी ख्वाहिशें ,
अजीब सी बेचैनी,
जिन्दगी से
नफरत,
पर
बेपनाह मोहब्बत,
सुकून की तलाश,
पर मिलती ,
सिर्फ कशमकश,
कुछ होना

होने के जैसा है,
कैसी जिन्दगी है,
हम इंसानों की?

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

अज्ञात

रात होती तो ये लगता,
           नया होगा कुछ सवेरे ,
कर्म की प्रतिबद्धता में
            भाग्य लेगा पुनः फेरे,
यह सुहानी रात तो,
         हृदय तक आलस्य लाये
बंद कर पलकें हमारी,
            नित नए सपने दिखाए,
बंद आँखों से धरा की,
             जो गहन अनुभूति होती,
विधाता के राग-लाया में ,
              मानव की नेति-नेति,
वह विहंगम दृश्य  नभ का,
               निष्प्राण में भी प्राण लाये,
और बिन एक  शब्द बोले,
                शब्द अंतस तक समाये,
नमन है उस शक्ति को,
                 जिसने धरा पर प्राण फूकें,
जिनके अहैतुक कृपा से,
                  धरा निज उद्द्यान  सींचे.

शनिवार, 11 मई 2013

स्त्री तेरी यही कहानी


जिन तथ्यों से मैं अनभिज्ञ था विगत कुछ वर्षों से वही देख रहा हूँ. इतने समीप से कुछ न देखा था पर अब प्रायः  देखता हु, क्या कहूँ? भारत आदि काल से ऐसा था या अब हो गया है मेरी समझ से परे है, जिन आदर्शों का हम दंभ भरते हैं वह कहा हैं? किस कोने में?  मैं तो थक गया हूँ पर कहीं पद चिन्ह नहीं मिले उन आदर्श सिद्धांतों के जिन्हें हम विश्व समुदाय के सामने गर्व से कहते हैं.
                                                 क्या यह वही देश है जहाँ नारियों की पुजा होती थी, पर अब तो बलात्कार हो रहा है, मुझे नहीं लगता कि कभी नारी को उसका सम्मान मिला. अगर इतिहास में कभी हुआ हो तो द्रौपदी के साथ क्या हुआ था? क्या उस युग की महान विभूतियाँ दुर्योधन की सभा में द्रौपदी का सम्मान कर रहीं थीं?  अगर ये सम्मान है तो अपमान क्या था? वास्तविकता तो ये है की नारी कि जैसी दशा हजारों साल पहले थी वैसी ही अब भी है, फर्क इतना है की तब बहुत कम घटनाएं प्रकाश में आती थीं और अब अधिकतर घटनाएं संज्ञान में आ जाती हैं.
                 नारी युगों से शोषण  और उपेक्षा की विषय रही है, शरीर से शक्ति की अवधारणा केवल धर्म ग्रंथों में ही मिलती है जिसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता अब भी जब पुरुष इकठे होते हैं तो स्त्री देह उनके चर्चा का मुख्या विषय होती है, उनकी धार्मिक परिचर्चा कब नारी चर्चा में बदलती है कुछ पता ही नहीं लगता, चर्चा शुरू होते ही जो धर्म कर्म कि बात करते हैं सबसे पहले उनके ही ज्ञान कि पोथी खुलती है, फिर क्या जिनके पावँ कबर में होते हैं वे भी कान उटेर के सुनते हैं क्योंकि भारतीय गप्पे मरने के अलावा कुछ नहीं करते, जो कर्मठी  होते हैं वे यहाँ टिकते ही नहीं.
                                            हम पश्चिम को अकारण ही व्यभिचार और वासना का जनक कहते हैं, कम से कम वो जो करते हैं उनके जीवन का सामान्य हिस्सा है पर हम वासना और व्यभिचार ढ़ोते हैं और तर्क देते हैं अपने गौरव शाली अतीत का, जिन्हें हम कब का रौंद चुके हैं. २१ साल कि युवती हो या ५ साल कि छोटी बच्ची, हमारे यहाँ कोई सुरक्षित नहीं है. हम कितने गर्व से कहते हैं कि सबसे पुरानी  सभ्यता हमारी है, ये क्यों नहीं कहते कि वो पुरानी सभ्यता अब असभ्यता में बदल गयी है, कोई थोडा भी जागरूक विदेशी हो तो हमसे यही कहेगा कि तुम उसी भारत के हो जहाँ बलात्कार नियमित होते हैं  और जनता तमाशा देखती है, और  बलात्कार होने के बाद सरकार पर गुस्सा जाहिर करती है, पर बदलाव का कोई वादा नहीं खुद से करती है. ''निकम्मी जनता-निकम्मी सरकार''.
                     किसी विदेशी इतिहासकार ने क्या खूब कहा है की ,'' भारतीय स्वाभाव से ही दब्बू और भ्रष्ट होते हैं''. पढ़ कर कुछ अजीब लगा पर जब सोचा तो लगा की हमने खुद को साबित किया है नहीं तो कोई विदेशी हमें  ऐसा क्यों कहता. क्यों हम ऐसे हैं? दोहरा चरित्र क्यों जीते हैं हम? मुखौटे लगा के हर इंसान बैठा है व्यक्ति का वास्तविक रूप क्या है कुछ पता ही नहीं चलता. अध्यात्म का चोगा पहन कर मुजरा देखना तो फितरत बन गयी है.
                                              आज कल साधू -महात्मा भी कम नहीं हैं, आश्रमों की तलाशी ली जाए तो पता चलेगा कि ये साधू नहीं सवादु हैं और सारे अनैतिक कामों का  सबसे सुरक्षित अड्डा बाबाओं के पास ही है. न जाने कितने ढोंगी मंच पे नारी को माँ बुलाते हैं और प्रवचन के बाद उनका शोषण  करते हैं. फिर भी हाय! रे भारतीय जनता ढोंगियों को भी पलकों पे बिठा के रखती है.
     एक नारी जिन्दगी भर चीखती-बिलखती रहती है और पुरुष समाज कभी उसके देह से तो कभी भावना से खिलवाड़ करता है, अपने शैशव काल से ही दोयम दर्जे कि जिन्दगी जीती लड़की बड़ी होते ही घर वालों कि नज़रों में भले ही बच्ची रहे पर समाज उसे बड़ा कहना शुरू कर देता है, अपने खेलने खाने कि उम्र में भेड़ियों का या तो सिकार हो जाती है, या शादी करके ससुराल भेज दी जाती है. गरीब बाप में समाज  से लड़ने का दम नहीं होता और ससुराल में गुडिया को ढंग नहीं आता. दयनीय स्थिति तब होती है जब ससुराल में लड़की रुलाई जाती है कभी दहेज़ के लिए, तो कभी लड़की पैदा करने के लिए. नारी होना जिस समाज में अभिशाप हो उस समाज या राष्ट्र को महान कहना उचित है?
मैथिलि शरण गुप्त जी कि कविता बरबस याद आती है, ''अबला तेरी यही कहानी, अंचल में दूध आँखों में  पानी''. 
ये सत्य है कि एक औरत जिन्दगी भर रॊति बिलखती रहती है , पर पुरुष उसे निचा दिखाकर अपना पुरुषत्व सिद्ध करता है, इतना क्यों सहती है नारी? क्या महाकाली या चंडी माँ कि संकल्पना कॊरि कल्पना मात्र है? सहना  स्वाभाव है अथवा विवशता? 
''अबला तुझे समझना चाहा
पर 
समझ न सका, 
तेरे अनगिनत रूपों को देखा
पर एक को भी
पहचान न सका,
देख रहा हूँ सदियों से
तुझे पिसते, 
पर कभी 
नही देखा तुझे 
उफ़ तक करते.
बचपन में घर में 
भेदभाव,
समाज में 
भेड़ियों कि चुभती नज़रें,
सहती आई,
पर कोई प्रतिकार नहीं,
शांत समुद्र में भी
ज्वार और भाटा उठते हैं,
पर 
तू तो समुद्र होते हुए भी
चुप रहती है,
दोपहर में 
तपती धुप में
बर्तन धुलती 
आंगन में 
तू दिखती है, 
पाँव में पड़े छाले 
तुझे दुःख नहीं देते?
जो तू पगडंडियों 
पर पति के लिए ले जाती है
खाना,
वो खुद भी आ सकते थे,
पर तू उन्हें कैसे दुःख
दे सकती है,
जो तुझे आजीवन दुःख
देते हैं.
बच्चा बीमार हो तो तू,
ठीक हो जाती है,
पति कि मार सहती है,
पर
उसके लम्बी उम्र कि
कामना करती है,
माँ तू है क्या,
मैं न समझ सका
तू ही मुझे बता?''
क्या कहूँ एक नारी है जो सहती है, दबती है और एक पुरुष है जो भारत के अखंड गौरव को मिटने पर तुला है.
                               एक भारतीय होने के नाते मैं अंतिम दम तक भारत को महान कहूँगा पर एक इंसान होने के नाते मैं चाहूँगा कि मेरे देश में कुछ सुधार हो, और तब तक मैं इसे महान नहीं कहूँगा जब तक ये महान होगा नहीं, किसी देश कि जनता उस देश को महान बनती है, हम फिर क्यों अपने राष्ट्र कि अवमानना करने पर तुले हुए हैं?

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

मधुकर


मैंने देखा दिवा स्वप्न एक,
             जाने कौन कहाँ से आया?
कुछ पल ही नयनों में ठहरा
             फिर ओझल  हो गया पराया.
कहाँ  कोई यहाँ रुक पाता है?
              धर्मशाला ये हृदय नहीं है,
बड़े बड़े वीर लौटें हैं  
                सहज तनिक भी विजय नहीं है.
मैं ठहरा एक रमता जोगी
                 पल पल बनता नया बसेरा
सफ़र में ही रातें कट जातीं
                  मेरे लिए क्या सांझ सवेरा?

जितने मधुकर दीखते जग में
                          सब मेरे अनुयायी हैं
जिन जिन राहों से मैं गुजरा,
                    सारे पथ दुखदायी हैं.
बहुत दिनों की दीर्घ यात्रा
                     कदम कदम पीड़ा में गुजरा,
कहाँ कहाँ मधु मैंने खोजा,
                     अब तो मधुवन को भी खतरा.
बहुत प्रसून मिले मझे पथ पर
                      भौरे किन्तु थे बहुत प्रबल,
प्रयत्नों से व्यथित हो उठा
                        प्रतिद्वंदी  थे बहुत अटल.
आज फूलों ने मुझको घेरा,
                         अब मैं मधु ले आऊंगा,
कई मास कास्ट में बीते,
                         अब बैठे बैठे खाऊंगा.
मिल जाते सुन्दर प्रसून भी,
                           लगन रहे यदि पथ पर,
चाहे मैं जंगल में जाऊं,
                            मंडराता रहता कोई नभ पर.

बुधवार, 20 मार्च 2013

चूँ चूँ करती आई चिड़िया


एक पुरानी उक्ति है कि जैसे जैसे भौतिकता बढती जाती है हम नैसर्गिकता से दूर होते जाते हैं, फिर कश्मीर कि मनोरम घाटियाँ नहीं अपने वातानुकूलित कमरे अधिक मनोहर जान पड़ते हैं. विज्ञान ने हमे अनन्त सुख दिए हैं किन्तु कही न कही हमसे हमारे प्रकृति को छीन लिया है, प्लास्टिक कि चिड़िया हमारे गौरैया से अधिक अच्छी लगने लगती है, क्योंकि प्लास्टिक कि गौरैया हाथ आती है और असली गौरैया हमसे इतना डर गयी है कि हाथ नहीं आती और जो हाथ में नहीं उसका ध्यान इंसान क्यों रखे? आपने कहावत तो सुनी होगी न ''अंगूर खट्टे हैं''.


                           गौरैया बहुत ही व्यवहारिक पंछी है.जहा इंसानों कि बस्ती वहाँ गौरैया, पर अब इंसान ही नहीं रहे तो गौरैया कहाँ  से मिले? अभी कुछ साल पहले तक इनकी संख्या सामान्य थी पर पिछले कुछ वर्षों  से लुप्त होने के क़गार पर ये पहुँच चुकी हैं.पहले कच्चे घास फूस के मकानों में, खपड़े के घरों में, पुराने खंडहरों में बहुत दिखती थी. मुझे याद है जब मेरी छोटी बहन रोती थी तो मैं उसे लेकर आँगन में दौड़ पड़ता था गौरैया दीखाने, और गौरैया देखते ही वो चुप हो जाती थी क्योंकि उनकी लड़ाइयाँ  इतनी अच्छी लगती थी कि कोई भी  सब कुछ भूल कर  उन्हें देखने लग जाता था . मेरे घर आज भी गौरैया आती है क्योंकि गावों में आज भी शहरों कि अपेछा पर्यावरण अधिक स्वच्छ है.
     गौरैया के अचानक से विलुप्त होने के कई कारण हैं, उनमे से सबसे बड़ा कारण है कि पर्यावरण असंतुलन. शायद अन्य विलुप्तप्राय पंछियों कि तरह इसमें भी प्राकृत से संघर्ष करने कि छमता कम हो. बहुमंजिली इमारतें जिनमे चीटियों के रहने कि जगह होती नहीं है उनमे बेचारी गौरैया कहा से अटे? गावों में तो ये वर्षों तक यथावत रह सकती हैं क्योंकि सरकार आज भी गावों की उपेक्षा करती आ रही है, और कल भी करेगी जब भौतिकता नहीं, तो नैसर्गिकता तो रहनी ही चाहिए. दिल्ली सरकार ने तो शायद इसकी सुरक्षा के लिए इसे  राज्य पंछी घोषित कर दिया है, पर मुझे नहीं लगता जहाँ नारी सुरक्षित नहीं वहां  बेचारी गौरैया  सुरक्षित रहेगी?
                                   मानव इतना स्वार्थी हो गया है की अपने स्वार्थ और सुख  के लिए कुछ भी कर सकता है, भले ही ये सुख छणिक हो. कुछ उत्तेजक  दवा बनाने वाली कंपनियां इन छोटे पंछियों को मार कर उत्तेजक दवाएं बनती हैं जो कथित रूप से व्यक्ति की शारीरिक छमता बढ़ातीं हैं, इन दवाओं  की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत बहुत अधिक है, इंसान की फितरत है की वो पैसों के लिए कुछ भी कर सकता है. छाणिक शारीरिक सुख के लिए किसी के जीवन का अंत कहाँ उचित  है? वैसे भी पुरुषार्थ बढ़ने कि दवा बाजारों में नहीं मिलती, व्यक्ति इसे लेकर पैदा होता है.
       जिनके साथ हमारा बचपन बीता हम जिनके साथ हम बड़े हुए उनके बिना ही बुढापा आएगा ये तो तय है, हमारी आने वाली पीढियां बस किताबों में पढ़ेंगी की गौरैया नाम की चिड़िया हुआ करती थी.खैर उनकी रूचि भी जीवित जंतुओं में नहीं होंगी क्योंकि तब तक विज्ञान अपने चरम पे होगा और कृत्रिमता का प्रभाव और व्यापक होगा. फिर प्लास्टिक प्रकृति पर भारी पड़ेगा, इतना भारी की शनैः शनैः नैसर्गिक वस्तुएं  अपना अस्तित्व  खो देंगी.
    '' जब विज्ञान अपने चरम पर होता है तो विध्वंस भी अपने चरम पर होता है.'' देखते हैं प्रकृति की जीत होती है या पुरुष की? भौगोलिक असंतुलन से कोई अपरिचित नहीं है पर्यावरण वैज्ञानिक काम तो कर रहे हैं पर कागजों में, अन्य देश तो अपने चहुमुखी विकास की ऒर ध्यान दे रहे हैं किन्तु भारत में केवल बात होता  है, काम नहीं. पर्यावरण मंत्रालय जिनके हाथ में है उनका इससे कुछ भी लेना - देना नहीं है, जिस जगह पे वैज्ञानिक होना चाहिए वहां सरकार ने नेता बैठा दिया है, भारत में मेरे ख्याल से मंत्रालय निलाम होता है जो जितना अधिक दाम दे मंत्रालय उसका.
                 कब हमारी सोच व्यक्तिवादी न होकर राष्ट्रवादी होगी? जब हम लुट चुके होंगे या भिखारी बन चुके होंगे? आज गौरैया लुप्त हो रही है भारत से , कल भारत लुप्त होगा दुनिया से जागो भारत वासियों, क्यों पड़ते हो नेताओं के झूठे चक्कर में? कभी साम्प्रदायिकता में फंसते हो तो कभी वादों में. देश जितना नेताओं का है उससे कही अधिक हमारा है हम अपने देश की रक्षा करने में सक्षम हैं, देश के दुश्मनों को एकजुट होकर निकलते हैं,क्योंकि यदि हम कुछ और दिन शांत रहे तो ये हमें सदा के लिए शांत कर देंगे.
     कुछ काम हम सरकार के सहयोग के बिना भी कर सकते हैं, जैसे खाली जगहों पर पेड़ लगाकर, अवैध पेड़ों के काटन पर रोक  लगाकर,और लोगों को जागरूक कर के कि यदि प्रकृति नहीं रहेगी तो हम भी नहीं रहेंगे, हरियाली रहेगी तो समृद्धि भी रहेगी, मानव जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ है कि वह कृत्रिमता से ऊब जाता है, जो सुख प्रकृति में निहित है वह कही और नहीं, हम अपने पर्यावरण कि रक्षा कर के अपने आने वाले पीढ़ियों को सब कुछ वास्तविक  देंगे कृत्रिम नहीं क्योंकि कृत्रिमता कभी स्थायी नहीं होती, और हम भारतियों को कुछ भी अस्थायी पसंद नहीं आता.
                                       गौरैया घर-घर में आये खरीदना न पड़े, वैसे भी चीजें बहुत मंहगी हो गयी हैं फैसला आप कीजिये, कि गौरैया खरीदेंगे या बुलायेंगे?

बुधवार, 13 मार्च 2013

नारी…..एक वेदना


दिल्ली सरकार की निष्क्रियता और नपुंसकता में अधिक अंतर नहीं है, नपुंसकता व्यक्ति विशेष  की समस्या होती है किन्तु सरकार ने क़ानून को ही नपुंसक बना दिया है.न्याय , इन्साफ जैसे शब्द तो मात्र कल्पनाओं में रह गए हैं, कुछ दिन पहले दामिनी कांड ने देश को झकझोरा था, कुछ दिनों तक जनता और जनता में व्याप्त नरभक्षी चुप थे पर अभी कुछ दिनों से बलात्कार का सिलसिला थम ही नहीं रहा है, इंसान इस हद तक वहशी हो गया है की मासूमों तक को नहीं छोड़ रहा है.सरकार नपुंसक और जनता में पुरुषत्व का ह्रास और व्यभिचार की अधिकता. भारत का भाग्य लिख कौन रहा है?
               युग और सामाजिक परिस्थितियों  के अनुसार कानून बनाये जाते है किन्तु यहाँ तो क़ानून वर्षों पुराना है जो  वर्तमान परिवेश में अप्रासंगिक है,.कुछ और कठोर प्रावधानों की आवश्यकता है क्योंकि उन्नीसवीं  शताब्दी   की परिस्थितियां आज  से बहुत भिन्न थीं. भारत के जितने भी नियम क़ानून हैं सारे अंग्रेजों के ज़माने के हैं उनमें संशोधन  की आवश्यकता है.यह  कहना अनुचित नहीं है की भारत के अधिकतर क़ानून बासी हो गए हैं उन्हें संशोधित   कर कुछ कठोर क़ानून बनाने होंगे. '' जिस देश में अपराधियों के अपराध हेतु कठोर दंड न हो वह देश कभी उन्नति नहीं कर सकता.''
         देश का दुर्भाग्य तो देखिये इस देश में कोई देशभक्त नेता ही वर्षों से नहीं हुआ, जो देश के लिए कुछ करना चाहता है वो कुचल दिया जाता है और उसके अवसान में देश की जनता का सबसे बड़ा हाथ होता है. अब जनता अपने लिए अच्छा नहीं सोच सकती तो जिनकी रगों में बेईमानी भरी है वो क्या देश के लिए सोचेंगे. देश को रसातल में पहुंचाने में सबसे बड़ा योगदान नेताओं का है.
 हम नाम के गणतंत्र में रह रहे हैं, ये वास्विक गणतंत्र नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ के विधि को नियमित और नियंत्रित करने वालों में देश भक्ति जैसी कोई भावना नहीं है. हर व्यक्ति स्वार्थी और व्यभिचारी हो गया है. व्यभिचार तो इस हद तक बढ़ गया है कि मासूम बच्चियां तक नहीं छोड़ी जा रही हैं.घिन आती है अब अपने सरकार से. समझ में ये नहीं आता की हम उसी भारत में रह रहे हैं जहाँ के  कभी दर्शन और नीति विश्व के लिए अनुकर्णीय होता था?
 भूल गए हैं हम अपने संस्कारों को मर्यादा को. नारी आज भी शोषण की विषय बन के रह गयी है, चाहे वो घर हो, कार्यस्थल हो या सड़क बस महिलाओं के साथ , साथ होता है तो बस दुर्व्यवहार. उनकी नियति ही बन गयी है अवहेलना.
    यदि सरकार निष्क्रिय है तो नागरिकों को तो सक्रिय होना चाहिए. नारी का सम्मान तो कर सकते हैं, कैसे हम भूल जाते हैं किसी महिला पर भद्दी टिप्पणी  करते समय की हमारी भी माँ, बहन और बेटी है? उन पर कोई अश्लील टिप्पणी  करे तो कैसा लगेगा? जो हमारे लिए बुरी  हो वो किसी और के लिए अच्छी  कैसे हो सकती है? कब देंगे हम नारियों को उनका अधिकार?
                        हम सभ्य समाज में रहते हैं तो ये पशुवत व्यवहार क्यों? नारी भोग  की विषय वस्तु  नहीं है, नारी माँ  है, नारी से हमारा जीवन है कभी वो हमसफ़र बन हर कदम पर साथ होती है तो कभी माँ  के रूप में भगवन बन. फिर भी उसके हिस्से में ये अपमान क्यों? कुछ दिन पहले मैंने एक कविता लिखा था नारी को केंद्र में रख कर कविता कुछ यूँ है,
  ''दूर्वा हूँ, मै घास हूँ,
सदा से कुचली
जाती हूँ,
हर कोई  कुचल के
चला जाता है,
मैँ जीवन देने वाली
हूँ ,
पर मेरा जीवन
दासता मेँ बीतता है,
कभी पति की,
कभी सास की,
लोग ताने देते हैँ,
और मै सहती हूँ,
डर से नही
मेरा स्वभाव ही ऐसा है.
कष्ट मुझे तब होता है,
जब मेरा जन्मा बेटा ही,
 मुझे अपशब्द कहता है.
और मैँ बस
देखती रह जाती हूँ,
मुझे अब सहना बँद करना है,
क्योँकी सहने की एक सीमा होती है,
और उस सीमा को
पुरुष पार कर चुका है.
अब झुकी तो मिट जाऊँगी.''
                                      यदि हमे अपने पुरुषत्व पर इतना अहंकार है तो नारी से भय कैसा? हम उन्हें उनका अधिकार तो दे सकते हैं. कब तक संकीर्ण विचार धाराओं में सिमटे रहेंगे?



   
 

सोमवार, 11 मार्च 2013

अनजान

 ''चलते चलते कितनी दूर ,
   निकल आया मैं 
खुद से दूर,
पता ही नहीं चला,
की खुद को 
ख़ोज रहा हूँ  या मंजिल को।
   अनजान से सवाल 
बेमन से जवाब 
अधूरे रिश्ते 
और रिश्तों में अजीब सी 
बेचैनी,
जो न छुपा पता हूँ,
न बता पता हूँ।
शाम हो तो,
रात लगती है,
रात हो तो सुबह,
कैसे ये सिलसिले हैं ये,
जो ख़त्म ही नहीं होते, 
उलझता रहता हूँ कभी
खुद में,
कभी सवालों में।
दिल की बात,
दिल में ही रह जाती है, 
     बोलूँ  तो  डर  लगता  है,
छुपाऊं तो घुटन होती है, 
कैसी है ये मेरी 
बेचैनी?
जो हर पल 
उलझती ही जाती है।'' 

बुधवार, 23 जनवरी 2013

जीवन

''मैंने रातों में जग के देखा,  

 

             और दिनों में सो के देखा ,


दोनों में कुछ हम खोते हैं,

                  हँसते भी हैं रोते भी हैं।''

                    

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

गुमनाम

कितना अँधेरा है यहाँ ,
      राह चलते चेहरे गुम 
हो जाते हैं, 
 साथ चलने वाले 
 कब राह बदल दें ,
कुछ पता ही नहीं चलता ,
अँधेरा और बढ़ता जाता है, 
गुमनामी शुरू होती 
जाती है,
किसे अपना कहें , 
अपनी परछाईं साथ नहीं देती 
लोग तो फिर भी लोग हैं ...