दिल्ली सरकार की निष्क्रियता और नपुंसकता में अधिक अंतर नहीं है, नपुंसकता व्यक्ति विशेष की समस्या होती है किन्तु सरकार ने क़ानून को ही नपुंसक बना दिया है.न्याय , इन्साफ जैसे शब्द तो मात्र कल्पनाओं में रह गए हैं, कुछ दिन पहले दामिनी कांड ने देश को झकझोरा था, कुछ दिनों तक जनता और जनता में व्याप्त नरभक्षी चुप थे पर अभी कुछ दिनों से बलात्कार का सिलसिला थम ही नहीं रहा है, इंसान इस हद तक वहशी हो गया है की मासूमों तक को नहीं छोड़ रहा है.सरकार नपुंसक और जनता में पुरुषत्व का ह्रास और व्यभिचार की अधिकता. भारत का भाग्य लिख कौन रहा है?
युग और सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार कानून बनाये जाते है किन्तु यहाँ तो क़ानून वर्षों पुराना है जो वर्तमान परिवेश में अप्रासंगिक है,.कुछ और कठोर प्रावधानों की आवश्यकता है क्योंकि उन्नीसवीं शताब्दी की परिस्थितियां आज से बहुत भिन्न थीं. भारत के जितने भी नियम क़ानून हैं सारे अंग्रेजों के ज़माने के हैं उनमें संशोधन की आवश्यकता है.यह कहना अनुचित नहीं है की भारत के अधिकतर क़ानून बासी हो गए हैं उन्हें संशोधित कर कुछ कठोर क़ानून बनाने होंगे. '' जिस देश में अपराधियों के अपराध हेतु कठोर दंड न हो वह देश कभी उन्नति नहीं कर सकता.''
देश का दुर्भाग्य तो देखिये इस देश में कोई देशभक्त नेता ही वर्षों से नहीं हुआ, जो देश के लिए कुछ करना चाहता है वो कुचल दिया जाता है और उसके अवसान में देश की जनता का सबसे बड़ा हाथ होता है. अब जनता अपने लिए अच्छा नहीं सोच सकती तो जिनकी रगों में बेईमानी भरी है वो क्या देश के लिए सोचेंगे. देश को रसातल में पहुंचाने में सबसे बड़ा योगदान नेताओं का है.
हम नाम के गणतंत्र में रह रहे हैं, ये वास्विक गणतंत्र नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ के विधि को नियमित और नियंत्रित करने वालों में देश भक्ति जैसी कोई भावना नहीं है. हर व्यक्ति स्वार्थी और व्यभिचारी हो गया है. व्यभिचार तो इस हद तक बढ़ गया है कि मासूम बच्चियां तक नहीं छोड़ी जा रही हैं.घिन आती है अब अपने सरकार से. समझ में ये नहीं आता की हम उसी भारत में रह रहे हैं जहाँ के कभी दर्शन और नीति विश्व के लिए अनुकर्णीय होता था?
भूल गए हैं हम अपने संस्कारों को मर्यादा को. नारी आज भी शोषण की विषय बन के रह गयी है, चाहे वो घर हो, कार्यस्थल हो या सड़क बस महिलाओं के साथ , साथ होता है तो बस दुर्व्यवहार. उनकी नियति ही बन गयी है अवहेलना.
यदि सरकार निष्क्रिय है तो नागरिकों को तो सक्रिय होना चाहिए. नारी का सम्मान तो कर सकते हैं, कैसे हम भूल जाते हैं किसी महिला पर भद्दी टिप्पणी करते समय की हमारी भी माँ, बहन और बेटी है? उन पर कोई अश्लील टिप्पणी करे तो कैसा लगेगा? जो हमारे लिए बुरी हो वो किसी और के लिए अच्छी कैसे हो सकती है? कब देंगे हम नारियों को उनका अधिकार?
हम सभ्य समाज में रहते हैं तो ये पशुवत व्यवहार क्यों? नारी भोग की विषय वस्तु नहीं है, नारी माँ है, नारी से हमारा जीवन है कभी वो हमसफ़र बन हर कदम पर साथ होती है तो कभी माँ के रूप में भगवन बन. फिर भी उसके हिस्से में ये अपमान क्यों? कुछ दिन पहले मैंने एक कविता लिखा था नारी को केंद्र में रख कर कविता कुछ यूँ है,
''दूर्वा हूँ, मै घास हूँ,
सदा से कुचली
जाती हूँ,
हर कोई कुचल के
चला जाता है,
मैँ जीवन देने वाली
हूँ ,
पर मेरा जीवन
दासता मेँ बीतता है,
कभी पति की,
कभी सास की,
लोग ताने देते हैँ,
और मै सहती हूँ,
डर से नही
मेरा स्वभाव ही ऐसा है.
कष्ट मुझे तब होता है,
जब मेरा जन्मा बेटा ही,
मुझे अपशब्द कहता है.
और मैँ बस
देखती रह जाती हूँ,
मुझे अब सहना बँद करना है,
क्योँकी सहने की एक सीमा होती है,
और उस सीमा को
पुरुष पार कर चुका है.
अब झुकी तो मिट जाऊँगी.''
यदि हमे अपने पुरुषत्व पर इतना अहंकार है तो नारी से भय कैसा? हम उन्हें उनका अधिकार तो दे सकते हैं. कब तक संकीर्ण विचार धाराओं में सिमटे रहेंगे?
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (17-03-2013) के चर्चा मंच 1186 पर भी होगी. सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार, मैं प्रतीक्षा करूँगा
जवाब देंहटाएंकविता बहुत अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसुरत विचार ,सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग का अनुशरण करें ख़ुशी होगी
latest postऋण उतार!
आप सबको बहुत बहुत धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपके अमूल्य शब्द मुझे हिँदी की सेवा हेतु सदैव प्रेरित करेँगे।