''चलते चलते कितनी दूर ,
निकल आया मैं
खुद से दूर,
पता ही नहीं चला,
की खुद को
ख़ोज रहा हूँ या मंजिल को।
अनजान से सवाल
बेमन से जवाब
अधूरे रिश्ते
और रिश्तों में अजीब सी
बेचैनी,
जो न छुपा पता हूँ,
न बता पता हूँ।
शाम हो तो,
रात लगती है,
रात हो तो सुबह,
कैसे ये सिलसिले हैं ये,
जो ख़त्म ही नहीं होते,
उलझता रहता हूँ कभी
खुद में,
कभी सवालों में।
दिल की बात,
दिल में ही रह जाती है,
बोलूँ तो डर लगता है,
छुपाऊं तो घुटन होती है,
कैसी है ये मेरी
बेचैनी?
जो हर पल
उलझती ही जाती है।''
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें