भारत में राजनीतिक बहस की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यहाँ हर पार्टी धर्म निरपेक्ष होने का दावा करती है और विपक्ष को सांप्रदायिक होने का आरोप मढ़ती हैं।
धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व के रहस्य को सुलझाने का श्रेय लाल कृष्ण अडवाणी जी को जाता है, सबसे पहले उन्होंने ही अपने विरोधियों को निशाना बनाते हुए "छद्म धर्मनिरपेक्षता" को व्याख्यायित किया था। यूँ तो धर्मनिरपेक्षता को भारतीय राजनीति में एक धारदार हथियार की तरह प्रयुक्त किया जाता है किन्तु इसका उद्देश्य कभी राजनीतिक कम और संवैधानिक अधिक था। आज संवैधानिक कम और राजनीतिक अधिक है। वैसे भी इंदिरा गांधी जी के नेतृत्व वाली सरकार के द्वारा 'पंथनिरपेक्ष' शब्द की संविधान के उद्देशिका में स्थापना ही अपने आप में लोकतंत्र की अंधभक्ति थी जिसका खामियाज़ा जनता भुगत रही है। आम जनता का ध्यान रोजी-रोटी में लगा रहता है आवाम को फुरसत ही कब है धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के पेचीदा मामलों फसने की पर राजनीति कब किसे सुकून से रहने देती है?
ब्रिटिश काल में कांग्रेसी पंथनिरपेक्षता को राष्ट्रीयता से जोड़कर देखते थे उस समय साम्प्रदायिकता सच्चे अर्थों में राष्ट्रियता के विपरीत था। अन्य हिन्दू और मुस्लिम विचारधारा वाली पार्टियाँ न प्रसिद्धि पा सकीं न ही जनसंवेदना; निःसंदेह धर्मनिरपेक्षता ही कांग्रेस के शुरूआती सफलता का कारण था।
हाँ, अलग बात है कि कुछ वर्षों बाद पार्टी में विषमता आई और इसके बड़े भयावह परिणाम हुए।
आज़ादी के बाद से ही धर्मनिरपेक्षता साम्प्रदायिकता पर हावी होने लगी,केंद्र सरकार साम्प्रदायिकता का पक्षधर नहीं रहा अपितु राष्टीयता की भवन जन-जन के मन में घर कर चुकी थी, लेकिन यह काल अधिक समय तक एक जैसा नहीं रहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सम्प्रदायवाद को पृथक रखा और अपने कैबिनेट में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और रफ़ी अहमद किदवई साहब को महत्वपूर्ण पद दिए। मतलब साथ था कि ये देश न हिंदुओं का है न मुसलमानों का। इस देश पर सबका समान अधिकार है, सबने स्वाधीनता संग्राम में अपने प्राणों की बाजी मिलकर लगायी है। नेहरू जी बापू के सपनों के भारत को साकार कर रहे थे तब देश को संप्रदाय की नहीं सहयोग की जरुरत थी, सांप्रदायिक संकीर्णता की नहीं अपितु राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता थी। किन्तु भारतीय राजनीति के करवट बदलने का समय आ गया था। कुछ नए पार्टियों का बनना एक संकेत था आने वाले दिनों के लिए।
देशभक्ति का नशा लोगों के सर से उतरा तो परिणाम अप्रत्याशित हुआ।
लोकतंत्र का एक सामान्य सा नियम है कि कुछ भी अधिक दिनों तक एक सा नहीं रहता। कुछ सुधार होते हैं तो कुछ बुराइयां भी आती हैं। धीरे-धीरे राजनीति ने एक नयी करवट ली।
दो बड़ी पार्टियां उभर कर सामने आयीं। कांग्रेस का अस्तित्व तो आज़ादी के पहले से था पर परिवर्तन साल दर साल आते गए मूल पार्टी कहीं खो सी गयी और भारतीय जनता पार्टी दूसरी बड़ी पार्टी बनी। ये दोनों एक दुसरे के प्रबलतम प्रतिद्वंदी हैं और इनके टकराव में तमाम प्रदेशिक और छोटी पार्टियां अपने आपको सेक्युलर कह कर अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं।
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों का सेक्युलर वार आज भारतीय जनमानस में क्रांति के शोले भरता है।
सही मायने मे भारतीय राजनीति में सेक्युलर शब्द का सबसे अधिक दुरूपयोग होता है भले ही आधुनिक लोग अपने आपको तथाकथित सेक्युलर कहते हों पर संप्रदाय को कंठ में बसा कर चलते हैं। जानते हैं कि चुनाव में जाति और संप्रदाय दोनों लाभदायक युक्ति हैं।
आज सेक्युलर का सीधा सा मतलब है वोट बैंक। मुस्लिम इस बात से खुश की उन्हें तवज्जो दी जा रही है और हिन्दू इस बात से खुश की उनकी तो सरकार ही है।
पार्टी चाहे कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी या क्षेत्रीय पार्टियां सबको भोली जनता को गुमराह करना आता है। दो-चार मीठी बातें और सांप्रदायिक गतिविधियों की आलोचना करके बड़े आराम से इनका काम बन जाता है।
भारतीय जनता पार्टी अक्सर सभी तथाकथित सेक्युलर पार्टियों का निशाना बनती है। कांग्रेस,सपा,बसपा,माकपा सबका एक सधा-साधया तीर होता है कि भाजपा सांप्रदायिक है। हो भी क्यों न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ जो है।संघ का और भाजपा का रिश्ता तो चिर पुरातन है। संघ मानता है की हिंदुत्व और राष्ट्रीयता एक-दुसरे के पर्याय हैं। भारत हिंदुओं का राष्ट्र है और जो हिन्दू है वही देशभक्त है। वास्तविकता यह है कि ये संघ के विचार हैं न की भाजपा के पर माना यही जाता है की भाजपा ही इन बयानों के लिए उत्तरदायी है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जिसके कार्यकर्ता वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी रहे हैं आज प्रधानमंत्री पद पर आसीन हैं तो ऐसे में संघ का सक्रिय होना प्रासंगिक ही है।
संघ; एक ऐसी संस्था जिसका अनुशासन समस्त भारतीयों के लिए अनुकरणीय है। भारतीय संस्कृति और देशभक्ति की भावना को बढ़ाना सच्चे अर्थों में इस संस्था का मुख्य उद्देश्य है। संघ द्वारा संचालित विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे किस हद तक राष्ट्रवादी होते हैं इसका पता आप आसानी से किसी पास के विद्या मंदिर में जाकर लगा सकते हैं। देश को जानने की जो जिजीविषा उनमें होती है अन्यत्र कहीं कठिनाई से मिलती है। आज नरेंद्र मोदी के जिस व्यक्तित्व से सब प्रभावित है वो कहीं न कहीं संघ की ही देन है।
एक बात जो मन को कचोटती है वो यह है कि संघ तथाकथित संप्रदाय से ऊपर उठ राष्ट्रवाद की बात करने लगे और इस राष्ट्रवाद में केवल हिंदुत्व ही न हो अपितु सभी भारतीय धर्मावलंबी हों तो देश का कल्याण हो जाए। एक प्रसिद्द सूक्ति है-'अनुशासन ही देश को महान बनाता है।' यही अनुशासन तो संघ का ध्येय है तो क्यों न संघ को सेक्युलर कह दिया जाए? नहीं न ये बात गले से नीचे नहीं उतरती। संघ और सेक्युलर कैसे? इसी तरह अनुशासन मदरसों में भी होता है ।उनका भी कोई संघ बने जो राष्ट्रवाद और सेक्युलर होने की बात करे उसे भी गले से नीचे उतार पना बड़ा कठिन है।
सेक्युलर और संप्रदायिकता दोनों विकसित लोकतंत्र के लिए व्यर्थ और अप्रासंगिक हैं क्योंकि इनका सम्बन्ध नितांत राजनीतिक है। सेक्युलर सबसे विवादित शब्द है जो संवैधानिक कम और राजनीतिक हथकंडा ज्यादा है। जिसका दाँव लगता है वही सेक्युलर हो जाता है।
भारतीय राजनीति राष्ट्रवादी न होकर सेक्युलर,साम्प्रदायिकता और आरक्षण के इर्द-गिर्द अधिक घूमती है। दुःख इस बात का है कि शिक्षित वर्ग भी इस छुद्र राजनीतिक युक्तियों से उबर नहीं पा रहा है। ये महज़ शब्द न होकर ऐसी विचारधारा बन चुके हैं जो प्रगति के मार्ग के सबसे बड़ा कंटक है। जनता इन भ्रामक शब्दों के व्याख्या में न पड़कर एकजुट होकर देश के विकास के लिए कार्य करे तो सार्थकता समझ में आती है पर यह अंतरकलह देखकर लगता है कि चारो तरफ सबसे ज्यादा बेवक़ूफ़ बनने की प्रतिस्पर्धा लगी है और प्रतिस्पर्धा में हर भारतीय विजेता बनने के लिए संकल्पित है। वर्तमान को देखकर डर लग रहा है, मन इस बात की गवाही नहीं दे रहा है कि अच्छे दिन आने वाले हैं....