मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

नव संवत्सर के स्वागत को इच्छुक फिर से मधुशाला

बिछुड़ रहा पल धीरे-धीरे समय
हो रहा मतवाला
काना-फूसि करता मुझसे खोज रहा है ये
प्याला,
कैसे हो ये जग फिर सुरभित मदिरा-मय में
विस्मृत सब
नव संवत्सर के स्वागत को इच्छुक
फिर से मधुशाला।

रविवार, 28 दिसंबर 2014

घर याद आता है मुझे

कितना मुश्किल है न
घर छोड़ना?
यादों से भागकर
यादें बन जाना
अपनों से
अजनबी हो जाना
थोड़े पैसे
और
शोहरत के लिए
दूर निकल आना
अपनी
मिट्टी से
जिसमे कैद है
बचपन की सुनहरी यादें;
उन नज़रों से
ओझल होना
कितना मुश्किल
है न
जिन्हें देखे बिना
अधूरी लगती हो
जिंदगी,
उन्हें तन्हा छोड़ कर
आगे बढ़ जाना
कितना
मुश्किल है न
घर छोड़ना?

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

राष्ट्रीयता, साम्प्रदायिकता और छद्म धर्मनिरपेक्षता

भारत में राजनीतिक बहस की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यहाँ हर पार्टी धर्म निरपेक्ष होने का दावा करती है और विपक्ष को सांप्रदायिक होने का आरोप मढ़ती हैं।

धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व के रहस्य को सुलझाने का श्रेय लाल कृष्ण अडवाणी जी को जाता है, सबसे पहले उन्होंने ही अपने विरोधियों को निशाना बनाते हुए "छद्म धर्मनिरपेक्षता" को व्याख्यायित किया था। यूँ तो धर्मनिरपेक्षता को भारतीय राजनीति में एक धारदार हथियार की तरह प्रयुक्त किया जाता है किन्तु इसका उद्देश्य कभी राजनीतिक कम और संवैधानिक अधिक था। आज संवैधानिक कम और राजनीतिक अधिक है। वैसे भी इंदिरा गांधी जी के नेतृत्व वाली सरकार के द्वारा  'पंथनिरपेक्ष' शब्द की संविधान के उद्देशिका  में स्थापना ही अपने आप में लोकतंत्र की अंधभक्ति थी जिसका खामियाज़ा जनता भुगत रही है। आम जनता का ध्यान  रोजी-रोटी में लगा रहता है आवाम को  फुरसत ही कब है धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता  के पेचीदा मामलों फसने  की पर राजनीति कब किसे सुकून से रहने देती है?
ब्रिटिश काल में कांग्रेसी पंथनिरपेक्षता को राष्ट्रीयता से जोड़कर देखते थे उस समय साम्प्रदायिकता सच्चे अर्थों में राष्ट्रियता के विपरीत था। अन्य हिन्दू और मुस्लिम विचारधारा वाली पार्टियाँ न प्रसिद्धि पा सकीं न ही जनसंवेदना; निःसंदेह धर्मनिरपेक्षता ही कांग्रेस के शुरूआती सफलता का कारण था।
हाँ, अलग बात है कि कुछ वर्षों बाद पार्टी में विषमता आई और इसके बड़े भयावह परिणाम हुए।
    आज़ादी के बाद से ही धर्मनिरपेक्षता साम्प्रदायिकता पर हावी होने लगी,केंद्र सरकार साम्प्रदायिकता का पक्षधर नहीं रहा अपितु राष्टीयता की भवन जन-जन के मन में घर कर चुकी थी, लेकिन यह काल अधिक समय तक एक जैसा नहीं रहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सम्प्रदायवाद को पृथक रखा और अपने कैबिनेट में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और रफ़ी अहमद किदवई साहब को महत्वपूर्ण पद दिए। मतलब साथ था कि ये देश न हिंदुओं का है न मुसलमानों का। इस देश पर सबका समान अधिकार है, सबने स्वाधीनता संग्राम में अपने प्राणों की बाजी मिलकर लगायी है। नेहरू जी बापू के सपनों के भारत को साकार कर रहे थे तब देश को संप्रदाय की नहीं सहयोग की जरुरत थी, सांप्रदायिक संकीर्णता की नहीं अपितु राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता थी। किन्तु भारतीय राजनीति के करवट बदलने का समय आ गया था। कुछ नए पार्टियों का बनना एक संकेत था आने वाले दिनों के लिए।
 देशभक्ति का नशा लोगों के सर से उतरा तो परिणाम अप्रत्याशित हुआ।
लोकतंत्र का एक सामान्य सा नियम है कि कुछ भी अधिक दिनों तक एक सा नहीं रहता। कुछ सुधार होते हैं तो कुछ बुराइयां भी आती हैं। धीरे-धीरे राजनीति ने एक नयी करवट ली।
दो बड़ी पार्टियां उभर कर सामने आयीं। कांग्रेस का अस्तित्व तो आज़ादी के पहले से था पर परिवर्तन साल दर साल आते गए मूल पार्टी कहीं खो सी गयी और भारतीय जनता पार्टी दूसरी बड़ी पार्टी बनी। ये दोनों एक दुसरे के प्रबलतम प्रतिद्वंदी हैं और इनके टकराव में तमाम प्रदेशिक और छोटी पार्टियां अपने आपको सेक्युलर कह कर अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं।
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों का सेक्युलर वार आज भारतीय जनमानस में क्रांति के शोले भरता है।
सही मायने मे भारतीय राजनीति में सेक्युलर शब्द का सबसे अधिक दुरूपयोग होता है भले ही आधुनिक लोग अपने आपको तथाकथित सेक्युलर कहते हों पर संप्रदाय को कंठ में बसा कर चलते हैं। जानते हैं कि चुनाव में जाति और संप्रदाय दोनों लाभदायक युक्ति हैं।
आज सेक्युलर का सीधा सा मतलब है वोट बैंक। मुस्लिम इस बात से खुश की उन्हें तवज्जो दी जा रही है और हिन्दू इस बात से खुश की उनकी तो सरकार ही है।
पार्टी चाहे कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी या क्षेत्रीय पार्टियां सबको भोली जनता को गुमराह करना आता है। दो-चार मीठी बातें और सांप्रदायिक गतिविधियों की आलोचना करके बड़े आराम से इनका काम बन जाता है।
भारतीय जनता पार्टी अक्सर सभी तथाकथित सेक्युलर पार्टियों का निशाना बनती है। कांग्रेस,सपा,बसपा,माकपा सबका एक सधा-साधया तीर होता है कि भाजपा सांप्रदायिक है। हो भी क्यों न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ जो है।संघ का और भाजपा का रिश्ता तो चिर पुरातन है। संघ मानता है की हिंदुत्व और राष्ट्रीयता एक-दुसरे के पर्याय हैं। भारत हिंदुओं का राष्ट्र है और जो हिन्दू है वही देशभक्त है। वास्तविकता यह है कि ये संघ के विचार हैं न की भाजपा के पर माना यही जाता है की भाजपा ही इन बयानों के लिए उत्तरदायी है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जिसके कार्यकर्ता वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी रहे हैं आज प्रधानमंत्री पद पर आसीन हैं तो ऐसे में संघ का सक्रिय होना प्रासंगिक ही है।
संघ; एक ऐसी संस्था जिसका अनुशासन समस्त भारतीयों के लिए अनुकरणीय है। भारतीय संस्कृति और देशभक्ति की भावना को बढ़ाना सच्चे अर्थों में इस संस्था का मुख्य उद्देश्य है। संघ द्वारा संचालित विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे किस हद तक राष्ट्रवादी होते हैं इसका पता आप आसानी से किसी पास के विद्या मंदिर में जाकर लगा सकते हैं। देश को जानने की जो जिजीविषा उनमें होती है अन्यत्र कहीं कठिनाई से मिलती है। आज नरेंद्र मोदी के जिस व्यक्तित्व से सब प्रभावित है वो कहीं न कहीं संघ की ही देन है।
एक बात जो मन को कचोटती है वो यह है कि संघ तथाकथित संप्रदाय से ऊपर उठ राष्ट्रवाद की बात करने लगे और इस राष्ट्रवाद में केवल हिंदुत्व ही न हो अपितु सभी भारतीय धर्मावलंबी हों तो देश का कल्याण हो जाए। एक प्रसिद्द सूक्ति है-'अनुशासन ही देश को महान बनाता है।' यही अनुशासन तो संघ का ध्येय है तो क्यों न संघ को सेक्युलर कह दिया जाए? नहीं न ये बात गले से नीचे नहीं उतरती। संघ और सेक्युलर कैसे? इसी तरह अनुशासन मदरसों में भी होता है ।उनका भी कोई संघ बने जो राष्ट्रवाद और सेक्युलर होने की बात करे उसे भी गले से नीचे उतार पना बड़ा कठिन है।
सेक्युलर और संप्रदायिकता दोनों विकसित लोकतंत्र के लिए व्यर्थ और अप्रासंगिक हैं क्योंकि इनका सम्बन्ध नितांत राजनीतिक है। सेक्युलर  सबसे विवादित शब्द है जो संवैधानिक कम और राजनीतिक हथकंडा ज्यादा है। जिसका दाँव लगता है वही सेक्युलर हो जाता है।
भारतीय राजनीति राष्ट्रवादी न होकर सेक्युलर,साम्प्रदायिकता और आरक्षण के इर्द-गिर्द अधिक घूमती है। दुःख इस बात का है कि शिक्षित वर्ग भी इस छुद्र राजनीतिक युक्तियों से उबर नहीं पा रहा है। ये महज़ शब्द न होकर ऐसी विचारधारा बन चुके हैं जो प्रगति के मार्ग के सबसे बड़ा कंटक है। जनता इन भ्रामक शब्दों के व्याख्या में न पड़कर एकजुट होकर देश के विकास के लिए कार्य करे तो सार्थकता समझ में आती है पर यह अंतरकलह देखकर लगता है कि चारो तरफ सबसे ज्यादा बेवक़ूफ़ बनने की प्रतिस्पर्धा लगी है और प्रतिस्पर्धा में हर भारतीय विजेता बनने के लिए संकल्पित है। वर्तमान को देखकर डर लग रहा है, मन इस बात की गवाही नहीं दे रहा है कि अच्छे दिन आने वाले हैं....

प्रगति की बयार(हवा)

कितने गर्व की अनुभूति होती है जब
विदेशी मीडिया हमारे देश के बारे में बात
करती है, उत्साह और बढ़ जाता है जब बातें
सकारात्मक हों। एक देश जो किसी न
किसी क्षेत्र में हमारा प्रतिद्वंद्वी है
वो सारे द्वंद्व भूलकर जब मुक्त कंठ से हमारे
विदेश नीतियों की, प्रगति की,
शिक्षा की प्रशंसा करे तो निःसंदेह
गौरवान्वित होना स्वभाविक है। संयोग से
एक बार फिर भारत हर क्षेत्र में प्रगति कर
रहा है और अब विकास हर जगह दिखाई दे
रहा है। बात चाहे देश में बुलेट ट्रेन के दौड़ने
की हो या मंगलयान के मंगल ग्रह पर पहुँचने
की हो भारतीय हर जगह नाम कर रहे हैं।
भारतीय वैज्ञानिकों ने हर बार ये साबित
किया है कि सीमित संसाधन कभी विकास
कार्यों में रोड़ा नहीं बनते बल्कि नए
संसाधनों के मार्ग प्रशस्त करते हैं।
इतिहास याद करें तो जो भी भारत
आया भारतीयता और भारतीय
संस्कृति को मिटाने ही आया,
जो यहाँ आया लूट कर ही गया, पर इतना लुटने
के बाद भी भारत आज भी समृद्ध है, सारे
लुटेरों के बराबर खड़ा है बल्कि कहीं न
कहीं उनसे बेहतर और मज़बूत स्थिति में।
आज तो देश के कपूतों ने देश की थोड़ी बहुत
दुर्गति मचाई है वरना कितने
प्रगति का पर्याय होता भारत।
खैर इतिहास साक्षी है विश्व का कोई
भी देश इतने झंझावात झेलने के बाद अस्तित्व में
नहीं रह सका पर भारत हर दिन बेहतर
हो रहा है।
हमारे प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रों को भारत
का बढ़ता वर्चस्व खल रहा है तभी तो आये
दिन अपने मन की भड़ास निकालते रहते हैं
कभी घुसपैठ करके तो कभी बमबारी करके पर
हर बार हमारी सेना इनके दांत खट्टे करती है,
हर बार पूरी दुनिया में अपनी थू-थू कराते हैं।
कल तक जिस भारत को विश्व सँपेरों का देश
कहता था जिन्हें भारत असभ्य और बर्बर
लोगों का देश लगता था उन्हें आज फिर से
भारत विश्व गुरु लगने लगा है। भारत आज
सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में दुनिया में सबसे आगे है।
चिकित्सा के क्षेत्र में तो आदिकाल से
सर्वश्रेष्ठ था अलग बात है कि हम
अपनी छवि को सुरक्षित नहीं रख पाए पर एक
बार फिर खुद को साबित कर रहे हैं।
दुनिया अपना आरोग्य योग में खोज रही है
यह भारतीय प्रतिभा का ही कमाल है
जो सुप्त पड़ चुकी कला को पुनर्जीवित
किया और विश्व में प्रचारित और प्रसारित
किया।
न्याय क्षेत्र में हमारे अधिवक्ता और
विधिवेत्ताओं की प्रसिद्धि दिन प्रतिदिन
बढ़ रही है। जिस कानून की पढ़ाई के लिए पहले
भारतीय विदेश जाते थे आज
विदेशियों को क़ानून पढ़ने के लिए भारत
आना पड़ रहा है यह भारतियों के बौद्धिक
क्षमता का करिश्मा है।
कोई भी ऐसा क्षेत्र
नहीं जहाँ हिन्दुस्तानियों के कदम मज़बूती से
टिके न हों।
हम तेज़ी से महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हैं।
हमारी जलसेना, थलसेना और वायुसेना आज
विश्व के सबसे सशक्त सेनाओं में से एक है।
हमारे स्वतंत्रा सेनानियों के
सपनों का भारत आज अस्तित्व में हैं।
कमियां तो हर देश में हैं, कोई परिपूर्ण राष्ट्र
कैसे बन सकता है? गर्व है की हमारा देश अनंत
विडम्बनाओं के बावजूद भी प्रगति का पर्याय
प्रतीत हो रहा है। कुछ कमियां दूर करनी हैं पर
ये दायित्व तो हम भारतियों का है जिसे
मिलकर,एकजुट होकर सुधारना है। हमें अपने देश
को विश्वगुरु बनाना है, पूर्वजों के सपनों के
साकार करने का समय आ गया है चलो मिल
कर बनाते हैं अपने देश को सबसे बेहतर, ले चलते हैं
सबसे आगे अपने देश को जिससे पूरे विश्व
का सामूहिक स्वर हो-
“सारे जहाँ से अच्छा
हिंदुस्ताँ हमारा।”
चलो बढ़ाते हैं एक कदम हमारे सपनों के भारत
की ओर ”हम सबके सपनों के भारत की ओर।”

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

बचपन और राष्ट्र का भविष्य (बिलखता बचपन...उलझते सपने)


पूरे विश्व की लगभग एक तिहाई जनसंख्या उन बच्चों की है जिनकी आयु एक वर्ष से चौदह वर्ष तक के बीच की है। एक तिहाई जनसंख्या ऐसी है जिसे प्रत्यक्ष रूप से अपने अभिभावकों के आश्रित हो जीवन सीखना है। बचपन उम्र का ऐसा पड़ाव जहाँ से व्यक्ति के भविष्य का निर्धारण होता है; उनका सम्पूर्ण विकास, उनके सोचने का स्तर, बुद्धिमत्ता के  निर्माण का प्रारंभ इसी अवस्था में होता है।
घर ,प्ले स्कूल और स्कूल ये सारी जगहें तो इनके सीखने के लिए ही तो होती हैं। हर अभिभावक, माता-पिता का स्वप्न होता है कि उनके बच्चों का सर्वांगीण विकास हो ताकि बड़े होकर कामयाब इंसान बने और माँ-बाप का नाम रौशन करें। स्कूल कुछ और नहीं इसी स्वप्न को साकार करने का साधन है। यह शिक्षा ही तो है जो विकसित व्यक्तित्व को खाद पानी देती है। किसी भी राष्ट्र का भविष्य वहां के भावी कर्णधार(बच्चों) पर टिका होता है। बच्चे तो भविष्य निर्माता होते हैं  किन्तु यही भविष्य जब सड़कों पर भीख मंगाते मिलें, कैंटीन में बर्तन धुलते मिलें या सड़क पर कूड़ा बिटोरते मिलें तो भविष्य से कैसी प्रत्याशा हो? क्या अनुमान लगाएं हम राष्ट्र और उनके भविष्य को लेकर? मासूमों बच्चों को कूड़ा-करकट साफ़ करने की मशीन समझें, कैंटीन में बर्तन धुलने की मशीन समझें या फुटपाथ पर सोने वाले माँ-बाप के लिए ए.टी.एम मशीन जो भीख मांग कर अपने घर की खर्ची चलाते हैं?
देश की एक बड़ी आबादी जिनके बच्चे स्कूल का मुँह तक नहीं देख पाते, स्कूल होता क्या है जिन्हें बिलकुल भी नहीं पता है।
ऐसी क्या मूलभूत कमी है जिसकी वजह से सरकार के इतने व्यापक नीतियों के बाद भी मासूमों के साथ केवल और केवल उत्पीड़न हो रहा है?
शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतें तक नहीं पूरी हो पाती हैं, कहीं न कहीं ये हमारे खोखले तंत्र की उपज हैं जिसका गिरना तय है। अब तो उम्मीद करना ही बेकार है की इन बच्चों के भी कभी अच्छे दिन आएंगे।
सरकार को पता नहीं क्यों एहसास नहीं है कि जब जनता की बुनियादी जरूरतें नहीं पूरी होती हैं विद्रोह तभी होता है, प्रजातान्त्रिक देश में विद्रोह का सीधा अर्थ बंटवारा होता है, क्या हम सोच लें या मानसिक रूप से विभाजन के लिए तैयार रहें? अशिक्षित और शोषित वर्ग को भड़काना बहुत आसान काम है; हमारे कमजोरी का लाभ लेने के लिए हमारे पडोसी इच्छुक हैं..एक बार का विभाजन आज तक हम झेल रहे हैं अब और विभाजन कैसी झेल पाएंगे...काश सरकार को ये समझ जाये और सर्व शिक्षा अभियान को और अधिक उदार करे, भारत के भविष्य को एक सकारात्मक और ऊर्जावान राह दिखाए।

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

उम्मीद

अब उम्मीद नहीं कर पता मैं
कुछ पाने की
जहाँ से
क्योंकि
कुछ पाने की उधेड़बुन में
मैं
बहुत कुछ खोता हूँ।

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

जम्मू-कश्मीर(सियासत और शहादत)

२6 oct 1947, जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय का ऐतिहासिक दिन, दिन ही नहीं  भारत के पूर्ण होने का समय जब भारत के नक़्शे में एक अखण्ड मुकुट जुड़ा, भारतीय गणतंत्र में एक और विशाल प्रदेश जुड़ा। यह प्रदेश न केवल भारतिय श्रद्धा का संगम था वरन मानव कल्पनाओं में वर्णित स्वर्ग को मूर्त रूप प्रदान करता था। कश्मीर प्रकृति के वरदान को साकार करता एक स्वप्नलोक कब हुक्मरानों के सियासत में पिसकर राष्ट्र के एकता और अखंडता पर एक सवाल बन बैठा पता न चला। विलय की शर्तें क्या थीं अब यह कोरा इतिहास बन चुका है जिसे मिटाकर कुछ नया करने की अपार संभावनाएं हैं पर हर बार सरकार भारतियो के भावनाओं का उपहास उड़ाती है।
कभी-कभी संदेह होता है कि हमारा देश वास्तव में एक सम्प्रभु राष्ट्र है अथवा टुकड़ों में बाटे भू-भाग के अतिरिक्त और कुछ नहीं जहाँ सियासत के नाम पर देश तक की सौदेबाज़ी होती है।
कभी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का नासूर जो हमारे समर्थ होने के कल्पित आभास पर एक काला धब्बा है असीम कष्ट देता है तो कभी जम्मू और कश्मीर के नागरिकों का पाकिस्तान प्रेम जो हमें भीतर से खोखला करता है ।
 पाकिस्तान वर्षों से अपनी आतंकी और कुटिल छवि  को बरक़रार रखे हुए है। अक्सर अपने कुटिलता का सबूत भी देता है। बात चाहे 1947 की हो या 1965,1971 और 1999 के कारगिल युद्ध की हो पाकिस्तान ने अपनी सधी -सधाई फितरत को हर बार अंजाम दिया है। बेशर्म इतना है कि तीन बार करारी हार के बाद भी लड़ने का एक मौका नहीं छोड़ना चाहता।
कश्मीर का भारत में विलय होना पाकिस्तान की नजरों में हमेशा खटकता है कि कैसे एक मुस्लिम बाहुल्य प्रांत एक हिन्दू बाहुल्य राष्ट्र का हिस्सा हो सकता है?
कौन समझाए इन पाकिस्तानियों को राष्ट्र धर्म से नहीं सद्भावना से से बनता है।
 ये तो पाकिस्तान की बात हुई अब भारत की बात करते हैं।
ऐसा क्या है जो  आजादी के छः दशक बाद भी 'जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अस्थायी उपबन्ध' अनुच्छेद 370 आज तक हट न सका या संशोधित न हो सका?
एक राष्ट्र और ''दो संविधान" सुनकर कितना बुरा लगता है न?
अधिकतर 'एक्ट' जो भारत सरकार पास करती है वे जम्मू और कश्मीर में शून्य होते हैं। आप कुछ महत्वपूर्ण एक्ट्स के सेक्शन पढ़ सकते हैं उनमे अधिकतर जम्मू और कश्मीर में अप्रभावी होने की बात कही गयी है। उदहारण के लिए "भारतीय दण्ड संहिता" के धारा 1 को देखते हैं-
संहिता का नाम और उसके प्रवर्तन का विस्तार- यह अधिनियम भारतीय दण्ड संहिता कहलायेगा और इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत पर होगा।
भारत के सबसे बड़े और प्रभावी   एक्ट का ये हाल है तो सामान्य एक्ट्स की बात ही क्या की जाए।
यह कैसी संप्रभुता है भारत देश की?
किसी राज्य को विशेष दर्जा कब तक दिया जाना उचित है? जवाब निःसंदेह यही होगा कि जब तक वो प्रदेश सक्षम न हो जाए। अब किस तरह की सक्षमता का इंतज़ार देश को है?
एक देश और दो संविधान क्यों है? कहीं न कहीं यह हमारे तंत्र की विफलता है कि हम अपनों को अपना न बना सके।
कश्मीर के निवासियों से पूछा जाए कि आपकी राष्ट्रीयता क्या है तो अधिकांश लोगों का जवाब होगा 'कश्मीरी'। अपने आपको भारतीय कहना शायद उनके मज़हब और मकसद की तौहीन होती है।
हमारे देश के नागरिक होकर उनका पाकिस्तान प्रेम अक्सर छलक पड़ता है ख़ास तौर से जब कोई पाकिस्तानी नेता भारत आये या भारत और पाकिस्तान का क्रिकेट मैच चल रहा हो, कश्मीरी नौजवानों को पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने का मौका मिल जाता चाहे वो कश्मीर में हों या दिल्ली एअरपोर्ट पर या मेरठ के सुभारती विश्वविद्यालय में। कश्मीरियों का लगाव पाकिस्तान से कुछ ज्यादा ही है क्योंकि अराजकता और जिहाद का ठेका पाकिस्तान बड़े मनोयोग से पूरा करता है।
संयोग से अलगाव वादियों को पाकिस्तान भरपूर समर्थन भी दे रहा है और ज़िहाद के नाम पर मुस्लिम युवकों को गुमराह भी कर रहा है। 70 हूरों के लिए 700 लोगों को बेरहमी से मारना केवल यहीं जायज हो सकता है।
अलगाव वादियों की ऑंखें पाकिस्तान के आतंरिक मसलों  को देख कर नहीं खुलतीं; राजनीतिक अस्थिरता, गृह युद्ध की स्थिति, आतंकवाद और भुखमरी के अलावा पाकिस्तान में है क्या?
एक अलग राष्ट्र की संकल्पना करने वाले लोग गिनती के हैं पर उनके समर्थन में खड़ी जनता को भारत का प्रेम नहीं दिखता या आतंकवाद की पट्टी आँखों को कुछ सूझने नहीं देती।
उमर् अब्दुल्लाह, कश्मीर के कुछ दिन पहले तक मुख्यमंत्री और कद्दवार नेता हैं या पाकिस्तान के आधिकारिक एजेंट समझ में नहीं आता। अनुच्छेद 370 विलोपन के सम्बन्ध में बहस पर उनकी दो टूक प्रतिक्रिया होती है कि यदि ऐसा होता है तो 'कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं होगा' ऐसी प्रतिक्रिया आती है, भारतीय संप्रभुता पर इससे बढ़कर और तमाचा क्या होगा?
केंद्र सरकार कब तक विश्व समुदाय के भय से अपने ही हिस्से को अपना नहीं कहेगी? अनुच्छेद 370 को कब तक हम "कुकर्मो की थाती की तरह ढोएंगे? एक भूल जो नेहरू जी ने की थी कि अपने देश की समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए और दूसरी भूल हमारी सरकारें कर रही हैं जो कल के भूल को आज तक सुधार नहीं पायी । हमारे आतंरिक मसले में भला तीसरे संगठन का क्या काम?
भारत सरकार जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा के लिए अरबों पैसे खर्च करती है पर बदले में क्या मिलता है, सैनिकों की नृषंस हत्या? जनता का दुत्कार और उपेक्षा? सुनकर हृदय फटता है कि सैनिकों की हत्या के पीछे सबसे बड़ा हाथ वहां की जनता का है। जो उनकी हिफाज़त के लिए अपनों से दूर मौत के साए में दिन-रात खड़ा है उसे ही मौत के सुपुर्द कर दिया जाता है। क्या हमारे जवानों के शहादत का कोई मतलब ही नहीं? कब तक हमारे सैनिकों का सर कटा जाएगा? कब तक भारतीय नारी वैधव्य की पीड़ा झेलेगी सियासत की वजह से? कम से कम शहादत पर सियासत तो न हो।
हमेशा देश के विरुद्ध आचरण करने वाली जम्मू-कश्मीर की  प्रदेश सरकार जो कुछ दिन पहले तक सत्ता में थी जब महाप्रलय आया तो हाथ खड़े कर दिया और केंद्र सरकार से मदद मांगी। सेना ने अपने जान पर खेल कर कश्मीरियों की जान बचाई पर सुरक्षित होने पर प्रतिक्रिया क्या मिली? सैनिकों पर पत्थर फेंके गए, जान बचाने का प्रतिफल इतना भयंकर?
कभी-कभी कश्मीरियों की पाकिस्तान-परस्ती देख कर ऐसा लगता है कि ये हमारे देश के हैं ही नहीं, फिर हम क्यों इनके लिए अपने देश के जाँबाज़ सैनिको की बलि देते हैं? एक तरफ पाकिस्तान का छद्म युद्ध तो दूसरी तरफ अपनों का सौतेला व्यवहार आम जनता को कष्ट नहीं होगा तो और क्या होगा? अनुच्छेद 370 का पुर्नवलोकन नितांत आवश्यक है और विलोपन भी अन्यथा पडोसी मुल्क बरगला कर कश्मीरियों से कुछ भी करा सकता है अप्रत्याशित और बर्बरता के सीमा से परे।
एक तरफ हमारा पडोसी मुल्क चीन है जो सदियों से स्वतंत्र राष्ट्र "तिब्बत" को अपना हिस्सा बता जबरन अधिकार करता है तो दूसरी ओर हम हैं जो अपने अभिन्न हिस्से पर कब्ज़ा करने में काँप रहे हैं। यह कैसी कायरता है जो इतने आज़ाद होने के बाद भी नहीं मिटी।
दशकों बाद भारत में बहुमत की सरकार बनी है, वर्षों बाद कोई सिंह गर्जना करने वाला व्यक्ति प्रधान मंत्री बना है तो क्यों न जनता के वर्षों पुराने जख़्म पर मरहम लगाया जाए  कौन सी ऐसी ताकत है जो भारत के विजय अभियान में रोड़ा अटका सके? इस बार तो कोई निर्णायक फैसला होना चाहिए, सैनिकों के शहादत का कोई प्रतिफल आना चाहिए। यदि फिर धोखा मिला तो जनता हुक्मरानों को कभी माफ़ नहीं करेगी और ये समझ लेगी कि धोखा और फरेब का नाम ही राजनीति है और कश्मीर मसले का हल केवल और केवल एक दिवा स्वप्न है।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

एक ख़त तुम्हारे नाम

कुछ कहना चाहता हूँ तुमसे, कुछ सुनाना चाहता हूँ तुम्हे शायद मेरा बोझ हल्का हो जाए तुम्हे कुछ सुनाकर।
बातें तो ढेर सारी हैं सुनाया तो महीनों गुजर जायेंगे। जानता हूँ तुम अपने दुनिया में मसरूफ़ हो मुझे सुनने के लिए तुम्हारे पास वक्त कहाँ?
ख़ुशी है क़ि तुम्हारी मसरूफियत बढ़ रही है साथ ही साथ मुझसे अजनबियत भी।
सुना है क़ि वक़्त बहुत तेज़ी से बदलता है और वक्त का पीछा करते-करते कभी-कभी इंसान भी बदल जाते हैं। बदलाव कभी भी अप्रत्याशित नहीं होता बल्कि परिस्थितिजन्य होता है। तुम्हारी जगह अगर मैं भी होता तो शायद बदल गया होता पर क्या करूँ मुझे मेरे  हालात से मोहब्बत जो है बदलता कैसे?
तुम्हे देखकर एहसास होता है कि कामयाबी होती क्या है। तुमने मुझे कामयाब और नाकामयाब लोगों के "अपनों" का मतलब समझाया वरना अब तक इस बड़े फर्क से मैं अनजान रह जाता।
एक कामयाब इंसान के लिए "अपनों" का मतलब माँ-बाप, पत्नी और बच्चों तक सिमटा होता है वहीं नाकामयाब इंसान पूरी दुनिया को अपना मानता है और शायद यही वजह है उम्मीदों के टूटने का। हर कोई अपना तो नहीं हो सकता न? खैर ग़लतफ़हमी की कुछ तो सजा मिलनी चाहिए।
इंसान की एक फितरत होती है कि उसे परेशानी में अपने कुछ ज्यादा ही याद आते हैं। बात खुद के परेशानी की हो तो तो किसी के मदद की जरुरत नहीं पड़ती, मुसीबतों से उबरने का हुनर इंसान सीख कर पैदा होता है पर जब बात किसी 'अपने' के जिंदगी की हो तो डर लगता है कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए। इंसान  डरता है तो सिर्फ अपनों की वजह से वरना गुरुर तो पुरखों की धरोहर होती है।
हम मदद उसी से मांगते हैं जिसे खुद से बेहतर पाते हैं तुम्हे बेहतर मानना मेरे जिंदगी की बड़ी गलती थी। तुम्हारे बेहतर कामयाबी के वजह की वज़ह नहीं जानी।
शुक्रिया! इस तल्ख़ हक़ीक़त से रूबरू कराने के लिए कि " कामयाबी मिलने पर 'अपनों' की परिभाषा सीमित और नाकामयाब होने पर व्यापक हो जाती है।"
परेशानियां किसके जिंदगी में नहीं आतीं? इस दौर से कभी तुम भी गुजरे हो, हज़ारों जख़्म तुम्हे भी लगे हैं...अवसाद में तुम भी पागल हुए हो जहाँ तक मैं तुम्हे जानता हूँ।
अतीत को टटोलो तो शायद तुम्हे मेरे आज का एहसास हो जाए।
तुम्हारे संघर्ष के दिनों में भेजी गयी चिट्ठियों को मैंने आज भी सहेज कर रखा है जब अवसाद तुम पर हावी था और तुम असहाय बन वक़्त को कोस रहे थे, तुम्हारा कन्धा थपथपाने वालों में शायद सबसे करीब मैं था।
आज मुझे तुम्हारी जरुरत थी और तुमने मुझे सुनना तक ठीक नहीं समझा।
तुमसे क्या कहूँ तुम तो व्याख्याता हो। तुम्हारे दृष्टान्त तो सजीव प्रतीत होते हैं लोग खो जाते हैं तुम्हारे शब्दों के सम्मोहन में; तुम्हारी तुलना में मैं तो कहीं नहीं ठहरता  पर तुम्हे एक राय देना चाहता हूँ सुन लेना अगर मन करे तो। मेरे लिए बोलना मुश्किल है आख्यान कहाँ दे पाऊंगा फिर भी कोशिश कर रहा हूँ।
जानते हो, "जब सूरज तपता है तो  ढलता है।" विधाता का शाश्वत नियम है 'उत्थान और पतन।' सीधे शब्दों में जो उठता है वो गिरता जरूर है और जो गिरता है उसका उठना भी तय है। जीवन उत्थान और पतन का समुच्चय है, महत्वपूर्ण है उत्थान और पतन का समन्वयन। नीति कहती है कि अहंकार पतन का हेतु है। अहंकार मत आने दो भले ही सफलता के सर्वोच्च शिखर पर कदम हों,सही मायने में तब सही समय होता है अपने कदम और मज़बूती से जमाने का, स्थिर होने का क्योंकि जो शिखर से गिरता है वो गर्त में जाता है। शिखर पर होना बहुत आम बात है। कोई भी परिश्रम करके वहां पहुँच सकता है, ख़ास बात है शिखर पर टिकना-शिखर का पर्याय हो जाना।
सफलता सहेजी जाती है सहेजना ही सफलता को अमरत्व देती है। इस अमरत्व की औषधि क्या है पता है?? "विनम्रता"।
जो विनम्र नहीं उसकी सफलता छड़िक होती है तुम्हे तो ऊपर जाना था फिर यह ओछी हरकत क्यों??
शायद तुम मुझे ये कहो कि "लोग अपनी कमियों को छिपाने के लिए दर्शन का सहारा लेते हैं"। ऐसा मत सोचना ये दर्शन नहीं यथार्थ है।
तुम मेरे नितांत अपने हो, अगाध प्रेम है तुमसे। हाँ! तुम मुझे अपना मानो ऐसी प्रत्याशा नहीं है मेरी। चाहता हूँ तुम सफलता के पर्याय बनो पर तुम्हारा व्यवहार मुझे शशंकित करता है।आगे तुम्हारी इच्छा।
     ये निरर्थक बातें मैं तुमसे न कहता तो मन पर एक बोझ रहता आज कह कर थोड़ी राहत मिली है।
एक एहसान है तुम्हारा मुझ पर। तुमने मुझे हकीकत से रूबरू कराया, मुझे मेरी औकात दिखाई शायद तुम मेरे काम आते तो मैं निष्क्रिय रह जाता। अब तो चोट लगी है मरहम खुद ही लगाना है।
हो सकता था कि मैं परिजीवी बन जाता पर अब आत्मनिर्भर होने की धुन सवार है मुझ पर। विश्व के आश्रयदाता तो  भगवान हैं उनके अलावा किसी और के होने का सवाल ही नहीं पैदा होता, सोच रहा हूँ इस पुनीत कार्य का माध्यम बन जाऊँ।
हाँ! तुम्हारा एहसान मुझे याद है आज ही निभा दिया तो कृतघ्नता होगी और मैं कृतज्ञ बनना चाहता हूँ कृतघ्न नहीं।
जब तुम्हे मेरी जरुरत होगी मैं नरक से भी दौड़ा आऊँगा आख़िर तुम मेरे अपने जो हो।
शुक्रिया! मुझे आईना दिखाने के लिए।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

ख़्वाब

 कभी-कभी ख़्वाब भी 
  बिखरे पत्तों की 
 तरह होते हैं 
 कहीं भी-कभी भी 
 बहक जाते हैं 
 हवाओं से, 
 वजूद  तो है 
 पर 
  बेमतलब  
 खोटे सिक्के की तरह 
  जो होता तो है 
  पर 
 चलता नहीं 
 पत्तों का क्या है 
  इकठ्ठे  
 हो सकते हैं  
 लेकिन ख़्वाब? 
  हों भी कैसे 
 इतने टुकड़ों में  
 टूटतें हैं  
 कि 
 आवाज तक नहीं आती. 
 टूटे ख़्वाब  
 दुखते तो हैं  
 पर  
 जोड़ने की   
 हिम्मत नहीं होती 
 जाने क्यों 
 खुद की  
 बनाई हुई  
  कमज़ोरी 
 हावी हो जाती है  
 खुद पर, 
 ख़्वाब सहेजे   
 नही जाते  
 जिंदगी कैसे  
 सम्भले 
 हम इंसानों से?? 

प्रच्छन्न

 जब रहें हमको छोड़ चुकें 
 कदम थके और हारे हों, 
 जब अंतस में पीड़ा कौंधे  
 और जग प्रतिकूल हमारे हो,  
 तब मन प्रच्छन्न नास्तिकता की 
 मैली चादर को ढ़ोता है,  
 पीड़ा की सरिता बहती है 
 और हृदय अनवरत रोता है।। 

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

निष्पक्ष मीडिया की अनिवार्यता

एक लोकतान्त्रिक देश में लोकतंत्र के चार मुख्य  स्तम्भ कहे गए हैं, जो क्रमशः हैं- कार्यपालिका, न्यायपालिका(सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट,जिला अदालतें ), विधायिका तथा "मीडिया.'' यदि लोकतंत्र की चारो शक्तियां एक ही राग अलापने लगें तो राष्ट्र उन्नति  नहीं कर सकता, इसीलिए "शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त'' को राज्य की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलने के लिए तथा शक्तियों के परस्पर समन्वयन के लिए प्रायः व्याख्यायित किया जाता है. इस सिद्धांत के अनुसार राज्य की तीनो शक्तियों को अलग-अलग तथा सामान स्वतंत्रता प्रदान की जाती हैं जिससे कि यदि शासक भी निरंकुश होना  चाहे तो उस पर लगाम कसा जा सके. दुर्भाग्य से भारत में भारत की तीन स्तम्भ तो सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में पहले से हैं और चौथा स्तम्भ सरकार के गुणगान में व्यस्त है, सरकार क्या कहें केवल और केवल प्रधानमंत्री "नरेंद्र दामोदर दस मोदी'' जी के गुणगान में व्यस्त है.
व्यक्तिवादी मीडिया का होना गणतंत्र के हित में नहीं होता है, एक कुशल शासक को अपने गुणगान सुन कर निरंकुश होने में देर नहीं लगती, मीडिया का काम सरकार की नीतियों पे खुल कर बहस करने का है, क्या गलत है क्या सही है इस पर मंथन करने का काम है न कि प्रधान मंत्री के गुणगान का,  पर आज-कल तो मोदी-मोदी के अलावा कुछ और सुनाई नहीं देता. निःसंदेह मोदी जी एक आदर्श प्रधान मंत्री हैं, विदेशी नीतियों में  उनकी परिपक्वता जनता भली भांति समझ रही है पर परिणाम आने शेष  हैं. जिस तरह पूरी दुनिया में मोदी को दूसरा ओबामा(सिर्फ ओबामा ही नहीं अमेरिका का कोई भी राष्ट्राध्यक्ष दुनिया का सबसे बड़ा डॉन होता  है) बनाकर पेश किया जाता है वह कहीं न कहीं हास्यपद लगता है.किसी भी क्षेत्र में हम चाइना या अमेरिका से आगे नहीं हैं और न ही इन राष्ट्रों  की कोई मज़बूरी है भारत के सामने झुकने की पर मीडिया में हंगामा कुछ इस तरह का है कि पूरी दुनिया शरणागत है भारतीय प्रधान मंत्री के आगे. दुसरे ग्रह से कुछ विध्वंसकारी शक्तियां आ गयी हैं और हमारे प्रधानमंत्री जी सुपर हीरो हैं बस धरती को विनाशकारी शक्तियों से ये ही बचा सकते हैं.
चाटूत्कारिता के लिए पहले राजा-महाराजा लोग दरबारी कवि रखते थे, रखें भी भला क्यों न भारत का विनाश जो करना था पर आज मामला उल्टा है. दरबारी कवि का काम मीडिया कर रही है. सिर्फ मीडिया ही नहीं इंटरनेट, ब्लॉग. फेसबुक, ट्विटर के महारथियों ने अकेले जिम्मेदारी उठाई है मोदी जी के यशगान  की वो भी बिलकुल मुफ्त, धन्य हो भारतीय वीरों.
साहित्यकारों को क्या कहा जाए उनका तो धर्म ही है, "जिसका खाना-उसका गाना''. निस्पक्ष पत्रकारिता की कमी खलती है. ऐसे पत्रकार हाशिये पर क्यों हैं जिनकी कलम सच्चाई की जुबान बोलती है. कोई युग द्रष्टा पत्रकार या साहित्यकार मिलता क्यों नहीं, कलम वही है जो यथार्थ लिखे, किसी की प्रशंसा करे तो अनुशंसा भी करे. किसी  की कमियां देखकर आँख मूँद लेना तो पक्षपात है न?  या होण लगी है एक ही राग अलापने की "हर-हर मोदी,घर-घर मोदी की.
भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में देश की प्रगति और विकास के लिए राज्य के सभी स्तम्भों का समन्वयन जरूरी है, ईमानदारी जरूरी है. यदि ईमानदारी नहीं तो विकास नहीं. सरकार की उपलब्धियों की प्रशंसा  न करके यदि  मीडिया सरकार का ध्यान उन क्षेत्रों की तरफ ले जाए जहाँ आज भी गरीबी-भुखमरी और लाचारी है तो कितना बेहतर होगा.
शहरों में झुग्गी-झोपडी वालों की सरकार को सुधि नहीं हैं और देश में काशी को टोकियो और रेलवे लाइन पर बुलेट ट्रेन चलाने की बात हो रही है.एक बात समझ से पर है कि बुलेट ट्रेन में सफर कौन करेगा? किसी तरह माध्यम वर्ग के कुछ लोग या धनाढ्य व्यक्ति जो टिकट खरीदने की औकात रखते हैं. निम्नवर्ग का क्या? ये सुविधाएँ तो धर्मशास्त्रों में वर्णित कल्पित स्वर्ग की तरह हैं जहाँ जाने मरने के बाद ही होता है. किस्मत को कोसें, सरकार को या अपने पूर्वजों को जिनकी वजह से आज भी गरीबी से उबार नहीं पा रहे. गरीब, गरीब क्यों है? कहीं न कहीं वजह ये भी है की उसे अमीर होने का मौका  ही नहीं मिला. एक गरीब अपना पेट भर ले वही बहुत है मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखने की उसकी औकात कहाँ? या तो सरकार अंधी है या निचले तबके को देश का हिस्सा नहीं मानती. वोट लेने का काम बस नेताओं का है पर इनके उत्थान के लिए किसी को फुर्सत नहीं है. हो भी भला क्यों न गरीबी की कुछ तो सजा भुगतनी पड़ती है.
एक निवेदन आप सबसे है कि निष्पक्ष लिखें, मीडिया से अनुरोध है की आप बेशक सरकार की उपलब्धियों को जनता तक पहुचाएं पर जनता को ना भूल जाएँ. एक तबका आज भी है जो न हिन्दू है न मुसलमान है, न सिख है और न ईसाई है वो बस गरीब है, हाँ यही उसकी एक मात्र जाति है. १९४७ से लेकर अब तक देश ने लम्बा सफर तै किया है पर इस सफर में हमारे कुछ साथी  बहुत पीछे छूट गए हैं, उन्हें समाज की मुख्य धारा में लेन की कोशिश तो कीजिये. आजादी तो सबके लिए है न? सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, चन्द्र शेखर आजाद, महात्मा गांधी और न जाने कितने अनगिनत नाम जिन्होंने अपना सब कुछ इस देश के लिए कुर्बान किया, भारतीयता के लिए लड़े उनके स्वप्न में आज का गरीब भारत तो नहीं था न ? उनके शहादत को बेकार जाने न दिया जाए तो बेहतर होगा अन्यथा कृतघ्नता का बोझ हमे जीने नहीं देगा.
दीपावली आ रही है,आइये मिलकर प्रयत्न करते हैं अँधेरा मिटने का....आइये बढ़ाते हैं एक कदम हमारे सपनों के भारत की ओर..फिर से दुहराते हैं "सर्वे भवन्तु सुखिनः का राग....भारतीयता का राग!!!

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

आज का रावण



विजय दशमी; पाप पर पुण्य की विजय गाथा जिसे भारतीय सदियों से मनाते चले रहें हैं हर साल बुराई के सबसे बड़े प्रतीक की प्रतिमा जलाई जाती है पर वह प्रतीक अमर है. कभी मरता ही  नहीं जैसे अजन्मा हो. हर साल रावण दहन होता है पर कलियुग में शायद रावण की प्रवित्ति बदल गयी है अथवा उसने स्वर्ग में जाकर रक्तबीज से संधि कर ली है कि जितने  व्यापक स्तर पर रावण का वध होता है उतने ही रावण उसे जलता देख तैयार होते हैं, रक्तबीज का तो रक्त धरती पर गिरता था तब नया रक्तबीज पैदा होता था पर कलियुग में तो मामला उल्टा है. यहाँ देखने मात्र से रावण जन्म लेते हैं. रावण भले ही विदेशी हो पर उसके अनुयायी शत -प्रतिशत स्वदेशी हैं. लंका में तो भारत से कम नारी उत्पीड़न के मामले सुनने को मिलते हैं मतलब साफ़  है कि वहां वाले रामभक्त बन गए हैं और भारतीय रावण. अगर आज के रावण की तुलना कल के रावण से की जाए तो आज वाले रावण में त्रेता युग के रावण से कहीं अधिक राक्षसता दिखती है. रावण के दस सर थे तब तो उसने एक सीता को हरा पर आज का रावण तो बस एक सर का है पर जाने कितनी सीताओं की अस्मिता हरी जाती है.तब एक रावण था और एक राम थे पर आज रावण ही रावण हैं और राम कहीं दिखते भी नहीं. आज का रावण इतना शक्तिशाली है की राम उसके भय से किसी अज्ञात  पर्वत पर किसी सुग्रीव की गुफा में शरणार्थी हैं.
     रामायण, रामचरित मानस दोनों ग्रंथों में कहीं भी रावण की अशुचिता नहीं दिखती, रावण का व्यभिचार भी कहीं नहीं दिखता, रावण वंचक तो अवश्य था पर बलात्कारी नहीं. आज के रावण में ये भी खूबी है. अभद्रता तो जन्मजात गुण है बाकी जो बचता है वह उपार्जित है. अब तो समाज के इन कलंकों की तुलना लंकाधिपति रावण से करने में भय लगता है कहीं रावण बुरा मान जाए कि; "मेरी तुलना इन पापियों से की जा रही है जबकि मैं इनसे बहुत पवित्र हूँ.'' आजकल राम, हनुमान,सुग्रीव, अंगद या जामवंत जन्मे या जन्मे पर रावण और  विभीषण हर घर में पैदा हो रहे हैं, पर रावण का पडला भरी देख उसी से चिपके रहते हैं. घर बनते हैं, परिवार टूटते हैं, छोटा भाई बड़े भाई को रावण कहता है पर राम  के काम नहीं आता. निःसंदेह यही तथ्य है जिसकी वजह से कोई अपने संतान का नाम विभीषण नहीं रखता.
      हनुमान जी को अमर कह जाता है.रामचरित मानस में अवधी में बड़ी सुन्दर चौपाई है जब अशोक वाटिका में माँ  सीता हनुमान जी से प्रभु श्री राम का कुशल-क्षेम पूछती हैं, और सब जानने के बाद हनुमान जी को वरदान देती हैं-
"अजर, अमर, गुणनिधि, सुत होहु' करहु बहुत रघुनायक छोहू''.
वरदान माँ सीता का है तो निष्फल होने का औचित्य  ही  नहीं है. राम भगवान भले ही महाप्रयाण कर चुके हों पर हनुमान जी तो धरती पर हैं फिर क्यों नहीं किसी सीता की अस्मिता बचाने आते हैं? क्या बस भगवान श्री राम के जीवन तक ही उनका शौर्य था? क्या महाबली भी अब शक्तिहीन हैं या समाज में राक्षसों के कृत्यों को  मूक दर्शक बन देखते रहना चाहते हैं? अथवा कलियुगी मानव कापियों से यह कहना चाहते हैं कि "उठो, अब तो अन्याय के विरूद्ध लड़ो, कब तक राम की प्रतीक्षा में कायर बने रहोगे, तब तो लंका की दिशा अनभिज्ञ थी पर अब तो गली -गली में लंका है, संगठित हो और विध्वंश कर दो रावण सहित लंका का.''
  हर शहर में जाने कितनी महिलाएं, युवतियां और जाने कितनी छोटी, मासूम बच्चियों को जबरन वेश्यालयों में बिठाया जाता है, धकेला जाता है उन्हें हवस के पुजारियों के आगे, चीखती हैं, पिसती हैं समाज के दरिंदों के हाथों में, पर कुछ दिन बाद वो शून्य हो जाती हैं.जिन्दा तो होती हैं पर एक अभिशाप की तरह. भले ही भारत में भारतीय दंड संहिता के धरा ३७२ और ३७३ में  वेश्यालय संचालकों  को और दलालों   को पकडे जाने पर "दस वर्ष के सश्रम कारावास की सजा'' हो पर हाथ कोई नहीं आता. पुलिस को मोटी-तगड़ी रकम मिलती है फिर कौन बोलने जाए. दुनिया की सबसे निकम्मी कौम भारतीय  पुलिस ही है. जिसके बारे में अक्सर देखने और सुनने को मिल जाता है.इन लंकाओं में फसी हुई लड़कियों के उद्धार के लिए कोई राम या हनुमान नहीं आते क्योंकि ये लड़कियां किसी राजा की पत्नी, बेटी या बहन नहीं होती, जनता को मतलब नहीं होता और प्रशासन दुःशासन का भाई है वह ऐसे काम क्यों करे उसे तो बस धन चाहिए.
  यदि आज कोई राम नहीं बन सकता, हनुमान के पदचिन्हों पर चल नहीं सकता तो बंद करो ये तमाशा. मत जलाओ रावण को, अगर रावण को राक्षस कहते हो तो उससे करोड़ गुनी राक्षसता तो तुम ढोते हो, फिर खुद को क्यों नहीं जलाते? रावण ने जो किया उसकी सजा उसे त्रेता युग में ही मिल गयी थी पर आप जो करते हो उसके बारे में कभी सोचा है?