२6 oct 1947, जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय का ऐतिहासिक दिन, दिन ही नहीं भारत के पूर्ण होने का समय जब भारत के नक़्शे में एक अखण्ड मुकुट जुड़ा, भारतीय गणतंत्र में एक और विशाल प्रदेश जुड़ा। यह प्रदेश न केवल भारतिय श्रद्धा का संगम था वरन मानव कल्पनाओं में वर्णित स्वर्ग को मूर्त रूप प्रदान करता था। कश्मीर प्रकृति के वरदान को साकार करता एक स्वप्नलोक कब हुक्मरानों के सियासत में पिसकर राष्ट्र के एकता और अखंडता पर एक सवाल बन बैठा पता न चला। विलय की शर्तें क्या थीं अब यह कोरा इतिहास बन चुका है जिसे मिटाकर कुछ नया करने की अपार संभावनाएं हैं पर हर बार सरकार भारतियो के भावनाओं का उपहास उड़ाती है।
कभी-कभी संदेह होता है कि हमारा देश वास्तव में एक सम्प्रभु राष्ट्र है अथवा टुकड़ों में बाटे भू-भाग के अतिरिक्त और कुछ नहीं जहाँ सियासत के नाम पर देश तक की सौदेबाज़ी होती है।
कभी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का नासूर जो हमारे समर्थ होने के कल्पित आभास पर एक काला धब्बा है असीम कष्ट देता है तो कभी जम्मू और कश्मीर के नागरिकों का पाकिस्तान प्रेम जो हमें भीतर से खोखला करता है ।
पाकिस्तान वर्षों से अपनी आतंकी और कुटिल छवि को बरक़रार रखे हुए है। अक्सर अपने कुटिलता का सबूत भी देता है। बात चाहे 1947 की हो या 1965,1971 और 1999 के कारगिल युद्ध की हो पाकिस्तान ने अपनी सधी -सधाई फितरत को हर बार अंजाम दिया है। बेशर्म इतना है कि तीन बार करारी हार के बाद भी लड़ने का एक मौका नहीं छोड़ना चाहता।
कश्मीर का भारत में विलय होना पाकिस्तान की नजरों में हमेशा खटकता है कि कैसे एक मुस्लिम बाहुल्य प्रांत एक हिन्दू बाहुल्य राष्ट्र का हिस्सा हो सकता है?
कौन समझाए इन पाकिस्तानियों को राष्ट्र धर्म से नहीं सद्भावना से से बनता है।
ये तो पाकिस्तान की बात हुई अब भारत की बात करते हैं।
ऐसा क्या है जो आजादी के छः दशक बाद भी 'जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अस्थायी उपबन्ध' अनुच्छेद 370 आज तक हट न सका या संशोधित न हो सका?
एक राष्ट्र और ''दो संविधान" सुनकर कितना बुरा लगता है न?
अधिकतर 'एक्ट' जो भारत सरकार पास करती है वे जम्मू और कश्मीर में शून्य होते हैं। आप कुछ महत्वपूर्ण एक्ट्स के सेक्शन पढ़ सकते हैं उनमे अधिकतर जम्मू और कश्मीर में अप्रभावी होने की बात कही गयी है। उदहारण के लिए "भारतीय दण्ड संहिता" के धारा 1 को देखते हैं-
संहिता का नाम और उसके प्रवर्तन का विस्तार- यह अधिनियम भारतीय दण्ड संहिता कहलायेगा और इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत पर होगा।
भारत के सबसे बड़े और प्रभावी एक्ट का ये हाल है तो सामान्य एक्ट्स की बात ही क्या की जाए।
यह कैसी संप्रभुता है भारत देश की?
किसी राज्य को विशेष दर्जा कब तक दिया जाना उचित है? जवाब निःसंदेह यही होगा कि जब तक वो प्रदेश सक्षम न हो जाए। अब किस तरह की सक्षमता का इंतज़ार देश को है?
एक देश और दो संविधान क्यों है? कहीं न कहीं यह हमारे तंत्र की विफलता है कि हम अपनों को अपना न बना सके।
कश्मीर के निवासियों से पूछा जाए कि आपकी राष्ट्रीयता क्या है तो अधिकांश लोगों का जवाब होगा 'कश्मीरी'। अपने आपको भारतीय कहना शायद उनके मज़हब और मकसद की तौहीन होती है।
हमारे देश के नागरिक होकर उनका पाकिस्तान प्रेम अक्सर छलक पड़ता है ख़ास तौर से जब कोई पाकिस्तानी नेता भारत आये या भारत और पाकिस्तान का क्रिकेट मैच चल रहा हो, कश्मीरी नौजवानों को पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने का मौका मिल जाता चाहे वो कश्मीर में हों या दिल्ली एअरपोर्ट पर या मेरठ के सुभारती विश्वविद्यालय में। कश्मीरियों का लगाव पाकिस्तान से कुछ ज्यादा ही है क्योंकि अराजकता और जिहाद का ठेका पाकिस्तान बड़े मनोयोग से पूरा करता है।
संयोग से अलगाव वादियों को पाकिस्तान भरपूर समर्थन भी दे रहा है और ज़िहाद के नाम पर मुस्लिम युवकों को गुमराह भी कर रहा है। 70 हूरों के लिए 700 लोगों को बेरहमी से मारना केवल यहीं जायज हो सकता है।
अलगाव वादियों की ऑंखें पाकिस्तान के आतंरिक मसलों को देख कर नहीं खुलतीं; राजनीतिक अस्थिरता, गृह युद्ध की स्थिति, आतंकवाद और भुखमरी के अलावा पाकिस्तान में है क्या?
एक अलग राष्ट्र की संकल्पना करने वाले लोग गिनती के हैं पर उनके समर्थन में खड़ी जनता को भारत का प्रेम नहीं दिखता या आतंकवाद की पट्टी आँखों को कुछ सूझने नहीं देती।
उमर् अब्दुल्लाह, कश्मीर के कुछ दिन पहले तक मुख्यमंत्री और कद्दवार नेता हैं या पाकिस्तान के आधिकारिक एजेंट समझ में नहीं आता। अनुच्छेद 370 विलोपन के सम्बन्ध में बहस पर उनकी दो टूक प्रतिक्रिया होती है कि यदि ऐसा होता है तो 'कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं होगा' ऐसी प्रतिक्रिया आती है, भारतीय संप्रभुता पर इससे बढ़कर और तमाचा क्या होगा?
केंद्र सरकार कब तक विश्व समुदाय के भय से अपने ही हिस्से को अपना नहीं कहेगी? अनुच्छेद 370 को कब तक हम "कुकर्मो की थाती की तरह ढोएंगे? एक भूल जो नेहरू जी ने की थी कि अपने देश की समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए और दूसरी भूल हमारी सरकारें कर रही हैं जो कल के भूल को आज तक सुधार नहीं पायी । हमारे आतंरिक मसले में भला तीसरे संगठन का क्या काम?
भारत सरकार जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा के लिए अरबों पैसे खर्च करती है पर बदले में क्या मिलता है, सैनिकों की नृषंस हत्या? जनता का दुत्कार और उपेक्षा? सुनकर हृदय फटता है कि सैनिकों की हत्या के पीछे सबसे बड़ा हाथ वहां की जनता का है। जो उनकी हिफाज़त के लिए अपनों से दूर मौत के साए में दिन-रात खड़ा है उसे ही मौत के सुपुर्द कर दिया जाता है। क्या हमारे जवानों के शहादत का कोई मतलब ही नहीं? कब तक हमारे सैनिकों का सर कटा जाएगा? कब तक भारतीय नारी वैधव्य की पीड़ा झेलेगी सियासत की वजह से? कम से कम शहादत पर सियासत तो न हो।
हमेशा देश के विरुद्ध आचरण करने वाली जम्मू-कश्मीर की प्रदेश सरकार जो कुछ दिन पहले तक सत्ता में थी जब महाप्रलय आया तो हाथ खड़े कर दिया और केंद्र सरकार से मदद मांगी। सेना ने अपने जान पर खेल कर कश्मीरियों की जान बचाई पर सुरक्षित होने पर प्रतिक्रिया क्या मिली? सैनिकों पर पत्थर फेंके गए, जान बचाने का प्रतिफल इतना भयंकर?
कभी-कभी कश्मीरियों की पाकिस्तान-परस्ती देख कर ऐसा लगता है कि ये हमारे देश के हैं ही नहीं, फिर हम क्यों इनके लिए अपने देश के जाँबाज़ सैनिको की बलि देते हैं? एक तरफ पाकिस्तान का छद्म युद्ध तो दूसरी तरफ अपनों का सौतेला व्यवहार आम जनता को कष्ट नहीं होगा तो और क्या होगा? अनुच्छेद 370 का पुर्नवलोकन नितांत आवश्यक है और विलोपन भी अन्यथा पडोसी मुल्क बरगला कर कश्मीरियों से कुछ भी करा सकता है अप्रत्याशित और बर्बरता के सीमा से परे।
एक तरफ हमारा पडोसी मुल्क चीन है जो सदियों से स्वतंत्र राष्ट्र "तिब्बत" को अपना हिस्सा बता जबरन अधिकार करता है तो दूसरी ओर हम हैं जो अपने अभिन्न हिस्से पर कब्ज़ा करने में काँप रहे हैं। यह कैसी कायरता है जो इतने आज़ाद होने के बाद भी नहीं मिटी।
दशकों बाद भारत में बहुमत की सरकार बनी है, वर्षों बाद कोई सिंह गर्जना करने वाला व्यक्ति प्रधान मंत्री बना है तो क्यों न जनता के वर्षों पुराने जख़्म पर मरहम लगाया जाए कौन सी ऐसी ताकत है जो भारत के विजय अभियान में रोड़ा अटका सके? इस बार तो कोई निर्णायक फैसला होना चाहिए, सैनिकों के शहादत का कोई प्रतिफल आना चाहिए। यदि फिर धोखा मिला तो जनता हुक्मरानों को कभी माफ़ नहीं करेगी और ये समझ लेगी कि धोखा और फरेब का नाम ही राजनीति है और कश्मीर मसले का हल केवल और केवल एक दिवा स्वप्न है।
कभी-कभी संदेह होता है कि हमारा देश वास्तव में एक सम्प्रभु राष्ट्र है अथवा टुकड़ों में बाटे भू-भाग के अतिरिक्त और कुछ नहीं जहाँ सियासत के नाम पर देश तक की सौदेबाज़ी होती है।
कभी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का नासूर जो हमारे समर्थ होने के कल्पित आभास पर एक काला धब्बा है असीम कष्ट देता है तो कभी जम्मू और कश्मीर के नागरिकों का पाकिस्तान प्रेम जो हमें भीतर से खोखला करता है ।
पाकिस्तान वर्षों से अपनी आतंकी और कुटिल छवि को बरक़रार रखे हुए है। अक्सर अपने कुटिलता का सबूत भी देता है। बात चाहे 1947 की हो या 1965,1971 और 1999 के कारगिल युद्ध की हो पाकिस्तान ने अपनी सधी -सधाई फितरत को हर बार अंजाम दिया है। बेशर्म इतना है कि तीन बार करारी हार के बाद भी लड़ने का एक मौका नहीं छोड़ना चाहता।
कश्मीर का भारत में विलय होना पाकिस्तान की नजरों में हमेशा खटकता है कि कैसे एक मुस्लिम बाहुल्य प्रांत एक हिन्दू बाहुल्य राष्ट्र का हिस्सा हो सकता है?
कौन समझाए इन पाकिस्तानियों को राष्ट्र धर्म से नहीं सद्भावना से से बनता है।
ये तो पाकिस्तान की बात हुई अब भारत की बात करते हैं।
ऐसा क्या है जो आजादी के छः दशक बाद भी 'जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अस्थायी उपबन्ध' अनुच्छेद 370 आज तक हट न सका या संशोधित न हो सका?
एक राष्ट्र और ''दो संविधान" सुनकर कितना बुरा लगता है न?
अधिकतर 'एक्ट' जो भारत सरकार पास करती है वे जम्मू और कश्मीर में शून्य होते हैं। आप कुछ महत्वपूर्ण एक्ट्स के सेक्शन पढ़ सकते हैं उनमे अधिकतर जम्मू और कश्मीर में अप्रभावी होने की बात कही गयी है। उदहारण के लिए "भारतीय दण्ड संहिता" के धारा 1 को देखते हैं-
संहिता का नाम और उसके प्रवर्तन का विस्तार- यह अधिनियम भारतीय दण्ड संहिता कहलायेगा और इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत पर होगा।
भारत के सबसे बड़े और प्रभावी एक्ट का ये हाल है तो सामान्य एक्ट्स की बात ही क्या की जाए।
यह कैसी संप्रभुता है भारत देश की?
किसी राज्य को विशेष दर्जा कब तक दिया जाना उचित है? जवाब निःसंदेह यही होगा कि जब तक वो प्रदेश सक्षम न हो जाए। अब किस तरह की सक्षमता का इंतज़ार देश को है?
एक देश और दो संविधान क्यों है? कहीं न कहीं यह हमारे तंत्र की विफलता है कि हम अपनों को अपना न बना सके।
कश्मीर के निवासियों से पूछा जाए कि आपकी राष्ट्रीयता क्या है तो अधिकांश लोगों का जवाब होगा 'कश्मीरी'। अपने आपको भारतीय कहना शायद उनके मज़हब और मकसद की तौहीन होती है।
हमारे देश के नागरिक होकर उनका पाकिस्तान प्रेम अक्सर छलक पड़ता है ख़ास तौर से जब कोई पाकिस्तानी नेता भारत आये या भारत और पाकिस्तान का क्रिकेट मैच चल रहा हो, कश्मीरी नौजवानों को पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने का मौका मिल जाता चाहे वो कश्मीर में हों या दिल्ली एअरपोर्ट पर या मेरठ के सुभारती विश्वविद्यालय में। कश्मीरियों का लगाव पाकिस्तान से कुछ ज्यादा ही है क्योंकि अराजकता और जिहाद का ठेका पाकिस्तान बड़े मनोयोग से पूरा करता है।
संयोग से अलगाव वादियों को पाकिस्तान भरपूर समर्थन भी दे रहा है और ज़िहाद के नाम पर मुस्लिम युवकों को गुमराह भी कर रहा है। 70 हूरों के लिए 700 लोगों को बेरहमी से मारना केवल यहीं जायज हो सकता है।
अलगाव वादियों की ऑंखें पाकिस्तान के आतंरिक मसलों को देख कर नहीं खुलतीं; राजनीतिक अस्थिरता, गृह युद्ध की स्थिति, आतंकवाद और भुखमरी के अलावा पाकिस्तान में है क्या?
एक अलग राष्ट्र की संकल्पना करने वाले लोग गिनती के हैं पर उनके समर्थन में खड़ी जनता को भारत का प्रेम नहीं दिखता या आतंकवाद की पट्टी आँखों को कुछ सूझने नहीं देती।
उमर् अब्दुल्लाह, कश्मीर के कुछ दिन पहले तक मुख्यमंत्री और कद्दवार नेता हैं या पाकिस्तान के आधिकारिक एजेंट समझ में नहीं आता। अनुच्छेद 370 विलोपन के सम्बन्ध में बहस पर उनकी दो टूक प्रतिक्रिया होती है कि यदि ऐसा होता है तो 'कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं होगा' ऐसी प्रतिक्रिया आती है, भारतीय संप्रभुता पर इससे बढ़कर और तमाचा क्या होगा?
केंद्र सरकार कब तक विश्व समुदाय के भय से अपने ही हिस्से को अपना नहीं कहेगी? अनुच्छेद 370 को कब तक हम "कुकर्मो की थाती की तरह ढोएंगे? एक भूल जो नेहरू जी ने की थी कि अपने देश की समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए और दूसरी भूल हमारी सरकारें कर रही हैं जो कल के भूल को आज तक सुधार नहीं पायी । हमारे आतंरिक मसले में भला तीसरे संगठन का क्या काम?
भारत सरकार जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा के लिए अरबों पैसे खर्च करती है पर बदले में क्या मिलता है, सैनिकों की नृषंस हत्या? जनता का दुत्कार और उपेक्षा? सुनकर हृदय फटता है कि सैनिकों की हत्या के पीछे सबसे बड़ा हाथ वहां की जनता का है। जो उनकी हिफाज़त के लिए अपनों से दूर मौत के साए में दिन-रात खड़ा है उसे ही मौत के सुपुर्द कर दिया जाता है। क्या हमारे जवानों के शहादत का कोई मतलब ही नहीं? कब तक हमारे सैनिकों का सर कटा जाएगा? कब तक भारतीय नारी वैधव्य की पीड़ा झेलेगी सियासत की वजह से? कम से कम शहादत पर सियासत तो न हो।
हमेशा देश के विरुद्ध आचरण करने वाली जम्मू-कश्मीर की प्रदेश सरकार जो कुछ दिन पहले तक सत्ता में थी जब महाप्रलय आया तो हाथ खड़े कर दिया और केंद्र सरकार से मदद मांगी। सेना ने अपने जान पर खेल कर कश्मीरियों की जान बचाई पर सुरक्षित होने पर प्रतिक्रिया क्या मिली? सैनिकों पर पत्थर फेंके गए, जान बचाने का प्रतिफल इतना भयंकर?
कभी-कभी कश्मीरियों की पाकिस्तान-परस्ती देख कर ऐसा लगता है कि ये हमारे देश के हैं ही नहीं, फिर हम क्यों इनके लिए अपने देश के जाँबाज़ सैनिको की बलि देते हैं? एक तरफ पाकिस्तान का छद्म युद्ध तो दूसरी तरफ अपनों का सौतेला व्यवहार आम जनता को कष्ट नहीं होगा तो और क्या होगा? अनुच्छेद 370 का पुर्नवलोकन नितांत आवश्यक है और विलोपन भी अन्यथा पडोसी मुल्क बरगला कर कश्मीरियों से कुछ भी करा सकता है अप्रत्याशित और बर्बरता के सीमा से परे।
एक तरफ हमारा पडोसी मुल्क चीन है जो सदियों से स्वतंत्र राष्ट्र "तिब्बत" को अपना हिस्सा बता जबरन अधिकार करता है तो दूसरी ओर हम हैं जो अपने अभिन्न हिस्से पर कब्ज़ा करने में काँप रहे हैं। यह कैसी कायरता है जो इतने आज़ाद होने के बाद भी नहीं मिटी।
दशकों बाद भारत में बहुमत की सरकार बनी है, वर्षों बाद कोई सिंह गर्जना करने वाला व्यक्ति प्रधान मंत्री बना है तो क्यों न जनता के वर्षों पुराने जख़्म पर मरहम लगाया जाए कौन सी ऐसी ताकत है जो भारत के विजय अभियान में रोड़ा अटका सके? इस बार तो कोई निर्णायक फैसला होना चाहिए, सैनिकों के शहादत का कोई प्रतिफल आना चाहिए। यदि फिर धोखा मिला तो जनता हुक्मरानों को कभी माफ़ नहीं करेगी और ये समझ लेगी कि धोखा और फरेब का नाम ही राजनीति है और कश्मीर मसले का हल केवल और केवल एक दिवा स्वप्न है।
एक टसल तो पिछले ६५ से चल रही है ... पता नहीं कुछ होगा बी या ऐसे ही चलता रहेगा ये खेल ... कम से कम राजनीति तो चलती रह्रती है ...
जवाब देंहटाएंहाँ, दुखद तो है ।
जवाब देंहटाएंआखिर क्यों और कब अभिशप्त रहे हम ये सब झेलने को ।
*आखिर क्यों और कब तक अभिशप्त रहे हम ये सब झेलने को ।
जवाब देंहटाएंबहुत दुखद, लेकिन आशा नहीं कि इस विषय पर राजनीति के अलावा कुछ सार्थक हो पायेगा...
जवाब देंहटाएंउम्मीद की किरण तो दिख रही है सार्थक बदलाव के लिए...
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