शनिवार, 16 जुलाई 2016

मन बावला है।।



मन बावला है, मन बावला है
सोचे ये कुछ भी अजब मामला है।।
मुझको ख़बर है कि
ख़्वाहिश हुई है
कुछ तो मोहब्बत सी
साज़िश हुई है
कोई है गुम-सुम
ख़्यालों मे ख़ुद के
लगता है चाहत की
बारिश हुई है...
मन बावला है,मन बावला है
सोचे ये कुछ भी अजब मामला है।।
उसने कहा कुछ
मैंने सुना कुछ
सपने मे उसने
शायद बुना कुछ
फिर भी है गुम-सुम
ख़ुद में ही खोई
मिल के भी मुझसे
क्यों न कहा कुछ??
मन बावला है,मन बावला है
सोचे ये कुछ भी अजब मामला है।।
अब तो मोहब्बत का
इज़हार कर दो
हो न मोहब्बत तो
इंकार कर दो
सब कुछ पता है
मासूम दिल को
ख़ुद को भी चाहत की
कुछ तो ख़बर दो।।
मन बावला है,मन बावला है
सोचे ये कुछ भी अजब मामला है।।
-अभिषेक शुक्ल

शनिवार, 9 जुलाई 2016

जहां-जहां तक ये दृष्टि जाए वहां-वहां तक दिखेंगी राधा।।

भटक रहे हो मार्ग केशव! यहां से आगे
नहीं है राधा
मचा है मन में कैसा कलरव तुम्हारे
पथ में अनंत बाधा,
सहज से मन का मधुर सा भ्रम है कि तुम
सुपथ को कुपथ समझते
जहां-जहां तक ये दृष्टि जाए वहां-वहां
तक दिखेगी राधा।।
जो तुमको लगता है प्रेम सब कुछ तो प्रेम
सा कुछ नहीं है राधा
जगत का उपक्रम है योग केवल ये प्रेम
मानव के पथ की बाधा,
मैं मोक्ष लेकर भी क्या करुंगी मेरे तो
अधिपति हैं मेरे मोहन!
जो उनको ही मैं भूल बैठूं बताओ
कैसे रहूंगी राधा ??
- अभिषेक शुक्ल।।

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

कहां गए घट-घट के वासी

पर्वत -पर्वत भटक रहा हूँ
हे शिव तुमको पाने को,
वन-वन भटका विहग बन रहा
द्वार तुम्हारे आने को,
किंतु तुम्हारे पग चिह्नों पर
श्वेत-श्वेत सा दिखता क्या है?
जो तुम ढ़क लेते हो खुद को
बोलो इससे मिलता क्या है??
पैर भले असमर्थ हो रहे
दृष्टि भले असहाय हुई है
लेकिन तुम तक आना मुझको
भक्ति नहीं निरुपाय हुई है
कहां छिपे घट-घट के वासी
कहां छिपी मेरे शिव की शिवता?
क्या वर्षों से नयन बन्द हैं
अथवा आई उनमें जड़ता?
पग-पग, डग-मग लिए कलश मैं
पर्वत पर नियमित बढ़ता हूं
मैं शिव की सीढ़ी चढ़ता हूं।।
-अभिषेक शुक्ल