पर्वत -पर्वत भटक रहा हूँ
हे शिव तुमको पाने को,
वन-वन भटका विहग बन रहा
द्वार तुम्हारे आने को,
किंतु तुम्हारे पग चिह्नों पर
श्वेत-श्वेत सा दिखता क्या है?
जो तुम ढ़क लेते हो खुद को
बोलो इससे मिलता क्या है??
पैर भले असमर्थ हो रहे
दृष्टि भले असहाय हुई है
लेकिन तुम तक आना मुझको
भक्ति नहीं निरुपाय हुई है
कहां छिपे घट-घट के वासी
कहां छिपी मेरे शिव की शिवता?
क्या वर्षों से नयन बन्द हैं
अथवा आई उनमें जड़ता?
पग-पग, डग-मग लिए कलश मैं
पर्वत पर नियमित बढ़ता हूं
मैं शिव की सीढ़ी चढ़ता हूं।।
हे शिव तुमको पाने को,
वन-वन भटका विहग बन रहा
द्वार तुम्हारे आने को,
किंतु तुम्हारे पग चिह्नों पर
श्वेत-श्वेत सा दिखता क्या है?
जो तुम ढ़क लेते हो खुद को
बोलो इससे मिलता क्या है??
पैर भले असमर्थ हो रहे
दृष्टि भले असहाय हुई है
लेकिन तुम तक आना मुझको
भक्ति नहीं निरुपाय हुई है
कहां छिपे घट-घट के वासी
कहां छिपी मेरे शिव की शिवता?
क्या वर्षों से नयन बन्द हैं
अथवा आई उनमें जड़ता?
पग-पग, डग-मग लिए कलश मैं
पर्वत पर नियमित बढ़ता हूं
मैं शिव की सीढ़ी चढ़ता हूं।।
-अभिषेक शुक्ल
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-07-2016) को "आया है चौमास" (चर्चा अंक-2398) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार सर!
हटाएंॐ नमह शिवाय :)
जवाब देंहटाएंऊँ।।
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिषेक जी..
जवाब देंहटाएं