मंगलवार, 24 मई 2016

तुम जहां भी गए श्रृंखला बन गई

प्रीत के मन्त्र सारे धरे रह गए
गीत आंसू बने नीर से बह गए,
तुम जहां भी गए श्रृंखला बन गई
हम जहां भी गए सब परे रह गए।।
गीत जितने लिखे सब तुम्हारे लिए
रात दिन हम तुम्हें गुनगुनाते रहे
चुप रहो मौन! हो विश्व ने यह कहा
सारे आघात सह तुमको गाते रहे
मन की पीड़ा सभी से छिपाते रहे
अश्रु मधुमय हुए पर खरे रह गए
गीत अधरों पे मेरे धरे रह गए
तुम जहां भी गए श्रृंखला बन गई
हम जहां भी गए सब परे रह गए।।
प्रीत तुमसे लगी जग ये विस्मृत हुआ
तृप्ति मुझको मिली मन ये हर्षित हुआ,
प्रेयसी तुम समझ से परे ही रही
चेतना त्यागकर मन समर्पित हुआ
किंतु तुम तो मलय सी विचरने लगी
हम हिमालय के जैसे खड़े रह गए
 कामना ने कहा,भावना ने किया
प्रीत कर हम ठगे के ठगे रह गए
हम निर्झर थे निर्झर बने रह गए,
तुम जहां भी गए श्रृंखला बन गई
हम जहां भी गए सब परे रह गए।।
-अभिषेक शुक्ल

शुक्रवार, 13 मई 2016

इसलिए टकराती हैं पीढ़ियां




 पीढ़ियों का टकराना स्वाभाविक है। जहां अलग-अलग काल,खण्ड और परिस्थितियों के लोग एक ही छत के नीचे रहते हों और सबको अपने-अपने युग की धार में बहने की आदत हो वहां परस्पर अन्तर्द्वन्द्व का होना अप्रत्याशित नहीं है.

कभी-कभी वैचारिक समता के आभाव में सम्बन्धों में कटुता जन्म लेती है जिससे एक-दूसरे के प्रति केवल ऐसी धारणा बनती है जो परिवार को विखण्न की ओर ले जाती है।

युवता की अलग ही धार होती है। होनी भी चाहिए क्योंकि जो अपने युवा काल में स्वच्छंद नहीं रहा वह प्रौढ़ होकर भी स्वतंत्र निर्णय लेने से डरता है। उच्छृंखलता कभी-कभी शुभ फल देने वाली होती है।

किसी भी पिता कभी भी यह इच्छा नहीं होती है कि पुत्र साहसी बने। बच्चे के निर्भीक होने से हज़ार समस्याओं के आने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।

यदि कोई अपने पिता के वचनों का अक्षरशः पालन करे तो वह जीवन में कभी सफल नहीं हो सकता। हर बात मानी ही नहीं जाती और पिता को भी यह समझना चाहिए कि हर बात मनवाई नहीं जाती।

युवता ऐसी मन:स्थिति है जिसमें व्यक्ति स्वाभाव से ही क्रांतिकारी होता है। क्रांतिकारी नहीं विद्रोही सही शब्द है। परम्परा रुढ़ि लगती है, सीख स्वीकार्य नहीं होती है। ऐसी स्थिति में जो युवा करे, वही सही लगता है। सही लगना भी चाहिए। मैं उस व्यक्ति का धुर विरोधी हूं जिसकी यह धारणा होती है कि दूसरों की असफलताओं से सीखो। क्यों भाई? अपनी सफलता स्वीकार है, असफलता नहीं? बचपन से बताया जाता है कि आग छूओगे तो जलोगे, पानी में गहरे उतरोगे तो डूबोगे। मैं किसी और के जलने का अनुभव क्यों लू्ं? मुझे जलना भी खुद है और डूबना भी।

युवता से प्रौढ़ता की प्रत्याशा रखना किसी महापाप से कम नहीं है। किसी भी सोच को पुष्ट होने में समय लगता है। गम्भीरता एक उम्र के बाद स्वत: ही आती है ऐसे में किसी के अल्हड़पन को अवगुण समझना नैतिक अपराध है।

कोई ये प्रत्याशा करे कि में महत्वपूर्ण विषयों पर अपने पिता की भांति वैचारिक दृढ़ता दिखाऊँगा तो यह कहाँ सम्भव है? मैं समस्याओं का समाधान अपने पिता की तरह कुशलतापूर्वक कर ले जाऊँगा, यदि ऐसा कोई सोचता है तो केवल उसका मुझ पर अटूट विश्वास ही होगा अन्यथा मैं स्वयं को इतना सक्षम नहीं समझता कि मैं ऐसा कुछ कर पाऊंगा।

गम्भीरता,कुशलता,वैचारिक दृढ़ता और व्यवहारिकता अनुभव से आती है, जो कम उम्र में किसी ईश्वरीय प्रसाद से ही आ सकती है, जो कहीं से भी स्वाभाविक नहीं होगी.

बच्चों में जो प्रतिभा है उसे निखारा जाना सही है या जो उनमें दोष है उन पर सामूहिक परिचर्चा करना?



अच्छाई किसी को भी बुराई से दूर कर सकती है, बेहतर होगा कि अच्छाई की इतनी प्रशंसा हो कि बच्चा कुछ बुरा करते डरने लगे. उसे डर लगने लगे कि उसके इस कृत्य से उसकी छवि धूमिल हो सकती है।

हर मां बाप को अपने बच्चों से शिकायत होती है। कोई किसी की अपेक्षाओं पे खरा नहीं उतरता। मुझसे भी मेरे अभिभावकों को शिकायतें होंगी। मेरे पढ़ाई को लेकर, व्यवहार को लेकर, मैं कोशिश करता हूं कि सबकी अपेक्षाओं पर खरा उतरूँ, पर नहीं हो पाता मुझसे। अब इसे लेकर मुझमें कुण्ठा हो या मेरे अभिभावकों को तो क्या यह उचित होगा?

अभिभावक अपने बच्चों में कुण्ठा न पनपने दें और बच्चे अपने अभिभावकों को कुण्ठित न होने दें तो परिवार खुशहाल रह सकता है, अन्यथा एक-दूसरे की कमियां देखने में परिवार कलह की भेंट चढ़ जाएगा और खुशियाँ चौखट पर आकर भी लौट जाएंगी, फिर पूरे परिवार में एक खास प्रकार का सांस्कृतिक कार्यक्रम होगा, दर्शन का.....कभी दोष दर्शन तो कभी दरिद्र दर्शन।

ये दोनों स्थितियां घातक हैं. ये दोनों दर्शन घातक हैं बेहतर है इनसे बचा जाए. खुशियाँ तलाशनी पड़ती हैं, समेटनी पड़ती हैं, लेकिन आप को रोना ही अच्छा लगे तो आपको ईश्वर सदबुद्धि दें।



( प्रकाशित, दैनिक जागरण,२०/०५/२०१६)

-अभिषेक शुक्ल


(तस्वीर- www.lifeofdad.com)

मंगलवार, 10 मई 2016

एक तुम्हारे लिए!!



मुक्ति के द्वार पर दासता को लिए
प्रार्थना कर रहे
मित्र तुम किस लिए?
स्वर्ग से भी परे मोक्ष के मार्ग पर
अर्चना कर रहे
एक तुम्हारे लिए।।
कंठ अवरूद्ध है
ईश क्यों क्रुद्ध है?
मन मेरा कह रहा
तन कहां बुद्ध है??
सांसों को त्यागकर वर्जना पार कर
साधना कर रहे
मित्र तुम किस लिए?
रुढ़ियां तोड़ कर सर्जना छोड़कर
याचना कर रहे
एक तुम्हारे लिए।।
भावना गौण है
गर्जना मौन है
तुम बिना हे सखे!
अब व्यथित कौन है??
स्नेह का त्याग कर गेह परित्याग कर
कल्पना कर रहे
मित्र तुम किस लिए??
नित्य अह्वान कर प्रीत का गान कर
अल्पना कर रहे
एक तुम्हारे लिए।।
-अभिषेक शुक्ल

मंगलवार, 3 मई 2016

ध्वस्त धर्मध्वज

तोड़ दिया मैंने खाली पड़े
 खण्डहरों को
ध्वस्त इमारतों को
धर्मध्वजों को
क्योंकि
सब निष्प्रयोज्य थे;
गौरवशाली अतीत देखकर
अहंकार हो रहा था मुझे
किंतु
वर्तमान उन्माद की भेंट
चढ़ जाता था,
सनातन,चिरंतन, अद्वितीय
संस्कृति का स्वांग
धूमिल कर देता था
मेरे जीवन के प्रत्येक क्षण को,
आज! अद्भुत आह्लाद है
ह्रदय में
मिट्टी को मिट्टी में मिलाकर;
लाल,केसरिया,हरा,सफेद
ध्वजों को
रंग दिया मैंने एक रंग में
तोड़ दिया उन सभी स्तम्भों को जिनमें
लहरा रहे थे
परस्पर विद्वेष के कारक,
अब न कोई कोलाहल है
न ही अंर्तद्वन्द्व
एक शाश्वत शांति है
दशो दिशाओं में
दूर कहीं सुनाई पड़ रही है
रणभेरी
दासता पर स्वच्छंदता के
विजयनाद की।।
-अभिषेक