पीढ़ियों का टकराना स्वाभाविक है। जहां अलग-अलग काल,खण्ड और परिस्थितियों के लोग एक ही छत के नीचे रहते हों और सबको अपने-अपने युग की धार में बहने की आदत हो वहां परस्पर अन्तर्द्वन्द्व का होना अप्रत्याशित नहीं है.
कभी-कभी वैचारिक समता के आभाव में सम्बन्धों में कटुता जन्म लेती है जिससे एक-दूसरे के प्रति केवल ऐसी धारणा बनती है जो परिवार को विखण्न की ओर ले जाती है।
युवता की अलग ही धार होती है। होनी भी चाहिए क्योंकि जो अपने युवा काल में स्वच्छंद नहीं रहा वह प्रौढ़ होकर भी स्वतंत्र निर्णय लेने से डरता है। उच्छृंखलता कभी-कभी शुभ फल देने वाली होती है।
किसी भी पिता कभी भी यह इच्छा नहीं होती है कि पुत्र साहसी बने। बच्चे के निर्भीक होने से हज़ार समस्याओं के आने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
यदि कोई अपने पिता के वचनों का अक्षरशः पालन करे तो वह जीवन में कभी सफल नहीं हो सकता। हर बात मानी ही नहीं जाती और पिता को भी यह समझना चाहिए कि हर बात मनवाई नहीं जाती।
युवता ऐसी मन:स्थिति है जिसमें व्यक्ति स्वाभाव से ही क्रांतिकारी होता है। क्रांतिकारी नहीं विद्रोही सही शब्द है। परम्परा रुढ़ि लगती है, सीख स्वीकार्य नहीं होती है। ऐसी स्थिति में जो युवा करे, वही सही लगता है। सही लगना भी चाहिए। मैं उस व्यक्ति का धुर विरोधी हूं जिसकी यह धारणा होती है कि दूसरों की असफलताओं से सीखो। क्यों भाई? अपनी सफलता स्वीकार है, असफलता नहीं? बचपन से बताया जाता है कि आग छूओगे तो जलोगे, पानी में गहरे उतरोगे तो डूबोगे। मैं किसी और के जलने का अनुभव क्यों लू्ं? मुझे जलना भी खुद है और डूबना भी।
युवता से प्रौढ़ता की प्रत्याशा रखना किसी महापाप से कम नहीं है। किसी भी सोच को पुष्ट होने में समय लगता है। गम्भीरता एक उम्र के बाद स्वत: ही आती है ऐसे में किसी के अल्हड़पन को अवगुण समझना नैतिक अपराध है।
कोई ये प्रत्याशा करे कि में महत्वपूर्ण विषयों पर अपने पिता की भांति वैचारिक दृढ़ता दिखाऊँगा तो यह कहाँ सम्भव है? मैं समस्याओं का समाधान अपने पिता की तरह कुशलतापूर्वक कर ले जाऊँगा, यदि ऐसा कोई सोचता है तो केवल उसका मुझ पर अटूट विश्वास ही होगा अन्यथा मैं स्वयं को इतना सक्षम नहीं समझता कि मैं ऐसा कुछ कर पाऊंगा।
गम्भीरता,कुशलता,वैचारिक दृढ़ता और व्यवहारिकता अनुभव से आती है, जो कम उम्र में किसी ईश्वरीय प्रसाद से ही आ सकती है, जो कहीं से भी स्वाभाविक नहीं होगी.
बच्चों में जो प्रतिभा है उसे निखारा जाना सही है या जो उनमें दोष है उन पर सामूहिक परिचर्चा करना?
अच्छाई किसी को भी बुराई से दूर कर सकती है, बेहतर होगा कि अच्छाई की इतनी प्रशंसा हो कि बच्चा कुछ बुरा करते डरने लगे. उसे डर लगने लगे कि उसके इस कृत्य से उसकी छवि धूमिल हो सकती है।
हर मां बाप को अपने बच्चों से शिकायत होती है। कोई किसी की अपेक्षाओं पे खरा नहीं उतरता। मुझसे भी मेरे अभिभावकों को शिकायतें होंगी। मेरे पढ़ाई को लेकर, व्यवहार को लेकर, मैं कोशिश करता हूं कि सबकी अपेक्षाओं पर खरा उतरूँ, पर नहीं हो पाता मुझसे। अब इसे लेकर मुझमें कुण्ठा हो या मेरे अभिभावकों को तो क्या यह उचित होगा?
अभिभावक अपने बच्चों में कुण्ठा न पनपने दें और बच्चे अपने अभिभावकों को कुण्ठित न होने दें तो परिवार खुशहाल रह सकता है, अन्यथा एक-दूसरे की कमियां देखने में परिवार कलह की भेंट चढ़ जाएगा और खुशियाँ चौखट पर आकर भी लौट जाएंगी, फिर पूरे परिवार में एक खास प्रकार का सांस्कृतिक कार्यक्रम होगा, दर्शन का.....कभी दोष दर्शन तो कभी दरिद्र दर्शन।
ये दोनों स्थितियां घातक हैं. ये दोनों दर्शन घातक हैं बेहतर है इनसे बचा जाए. खुशियाँ तलाशनी पड़ती हैं, समेटनी पड़ती हैं, लेकिन आप को रोना ही अच्छा लगे तो आपको ईश्वर सदबुद्धि दें।
( प्रकाशित, दैनिक जागरण,२०/०५/२०१६)
-अभिषेक शुक्ल
(तस्वीर- www.lifeofdad.com)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " हिंदी भाषी होने पर अभिमान कीजिये " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर ।
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