मुक्ति के द्वार पर दासता को लिए
प्रार्थना कर रहे
मित्र तुम किस लिए?
स्वर्ग से भी परे मोक्ष के मार्ग पर
अर्चना कर रहे
एक तुम्हारे लिए।।
कंठ अवरूद्ध है
ईश क्यों क्रुद्ध है?
मन मेरा कह रहा
तन कहां बुद्ध है??
सांसों को त्यागकर वर्जना पार कर
साधना कर रहे
मित्र तुम किस लिए?
रुढ़ियां तोड़ कर सर्जना छोड़कर
याचना कर रहे
एक तुम्हारे लिए।।
भावना गौण है
गर्जना मौन है
तुम बिना हे सखे!
अब व्यथित कौन है??
स्नेह का त्याग कर गेह परित्याग कर
कल्पना कर रहे
मित्र तुम किस लिए??
नित्य अह्वान कर प्रीत का गान कर
अल्पना कर रहे
एक तुम्हारे लिए।।
-अभिषेक शुक्ल
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (11-05-2016) को "तेरी डिग्री कहाँ है ?" (चर्चा अंक-2339) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर ।
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