रविवार, 28 दिसंबर 2014

घर याद आता है मुझे

कितना मुश्किल है न
घर छोड़ना?
यादों से भागकर
यादें बन जाना
अपनों से
अजनबी हो जाना
थोड़े पैसे
और
शोहरत के लिए
दूर निकल आना
अपनी
मिट्टी से
जिसमे कैद है
बचपन की सुनहरी यादें;
उन नज़रों से
ओझल होना
कितना मुश्किल
है न
जिन्हें देखे बिना
अधूरी लगती हो
जिंदगी,
उन्हें तन्हा छोड़ कर
आगे बढ़ जाना
कितना
मुश्किल है न
घर छोड़ना?

5 टिप्‍पणियां:

  1. कितना
    मुश्किल है न
    घर छोड़ना?
    ------------------------------ सच्ची अभिव्यक्ति

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  2. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (30-12-2014) को "रात बीता हुआ सवेरा है" (चर्चा अंक-1843) "रात बीता हुआ सवेरा है" (चर्चा अंक-1843) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सच में घर छोड़ने का दर्द कभी पीछा नहीं छोड़ता...बहुत सुन्दर

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