जून में अम्मा की वार्षिकी थी. मैं घर गया था. अम्मा को गए हुए 6 महीने बीत गए थे. पाले काका से मिलने उनके पास गया. काका, जीवन में पहली बार बीमार लगे थे. बहुत असहाय भी. इतने असहाय कि जैसे भगवान भी उनकी पीड़ा न हर सकें. उन पर रौब जंचता था, लेकिन काका डरे-डरे से लगे.
ऐसा लगा कि जैसे नियति ने जाने की तिथि तय कर दी है, और अब वे अपने आख़िरी दिन गिन रहे हैं. जैसे वक़्त ने चाल दिया हो बहुत भीतर तक, जहां से आत्मा आर-पार होने की स्थिति में पहुंच जाए. लग गया था कि अब काका का बुलावा आ गया है. फिर भी मन नहीं मान रहा था कि काका भी चले जाएंगे.
उनकी बातों से तो बिल्कुल भी नहीं लगा. वही रौब, वही अंदाज़ जिसे हम बचपन से देखते-सुनते आए हैं.
अच्छे वाले मन ने कहा कि काका ठीक हो जाएंगे. पहले की तरह ही जैसे वे घोड़ा टमटम टॉनिक पीने के बाद हो जाते थे.
कुछ ठीक नहीं हुआ. काका की तबियत खराब होती चली गई गई.
मुझे याद नहीं, काका एकादशी छोड़कर कोई व्रत रहे हों. मम्मी की ज़िद पर काका कभी-कभार जन्माष्टमी और एकादशी के दिन व्रत रख लेते थे. नहीं तो दोनों वक़्त भरपेट खाने वाले लोगों में से एक मेरे पाले काका भी थे. सुना कि काका ने 23 जून के बाद खाना ही नहीं खाया. कुछ खा ही नहीं पा रहे थे, शायद खाना ही नहीं चाह रहे थे.
जीवन भर का व्रत, जीवन के अंतिम दिनों में कर बैठे, भले विवशता से ही सही. व्रत पूरा हुआ, काका चले गए.
बचपन में काका से डर लगता था फिर भी काका बुरे नहीं लगते थे. बिलकुल बाबा की तरह, काका की भी डांट अच्छी लगती थी. कई बार डांट खाने के लिए ही सही, उन्हें हम लोग जानकर ग़ुस्सा दिलाते थे. कभी बहुत देर तक खेलते रहे तो काका का पारा चढ़ जाता था. कहते, अच्छा चलो, अब पढ़ो. बहुत खेल होइ गय. पढ़ना न लिखना, दिन्न भर उहै बैट.
बद्री, बलराम, परदेसी और बड्डू काका के डांट के बाद खिसक लेते थे, हम भी दबे मन से घर में स्टंप उठाकर चल देते थे. काका ने डांटा तो फ़ाइनल. गेंद-बल्ले का उठना तय.
फिर अगले ही दिन मौका मिलता खेलने को.
काका की डांट मुझे ही नहीं, भइया को भी पड़ी है. भइया की घर में न टिकने की आदत से दो लोग परेशान थे. अम्मा और काका. मम्मी को कुछ ख़ास फ़र्क़ पड़ता नहीं था. बाबा भी अपनी धुन में मस्त रहते थे. पापा देर से आते तो भइया घर में मिलते. लेकिन अम्मा और काका को बहुत दिक़्क़त थी भइया के घूमने से. काका जहां मिलते, सुनाकर भइया को घर ही भेजते. घर में घुसते ही अम्मा फ़ायर.
काका भ्रमणकारी थे. पांव नहीं टिकते थे उनके. गांव में घूमने निकलो तो कहीं न कहीं मिल जाते. जहां मिलते, वहीं टोकते. फिर घर वापस आना पड़ता.
भइया और मेरा पूरा बचपन 'पाले काका हो!' चिल्लाते बीता है. दरअसल काका दिन भर घर रहते थे, लेकिन जब खाने का वक़्त होता, काका निकल लेते थे. अम्मा किसी को खाना ले जाने नहीं देती, जब तक पाले काका खाना न खा लें. मजबूरन हमें चिल्लाना पड़ता. सुबह-शाम दोनों वक़्त. हमारे साथ पापा भी चिल्लाते थे. आस-पड़ोस में भी बच्चे मज़े लेकर चिल्लाते. सबको पता चल जाता कि घर में खाना बन गया है.
उस वक़्त मोबाइल वाला ज़माना नहीं था कि कॉल कर दें. जब मोबाइल वाला ज़माना आया, तब भी काका मोबाइल नहीं रखते, उन्हें ऐसे ही चिल्लाकर बुलाना पड़ता था. काका का फ़ोन, इंद्रजित ही चलाता, काका के हाथ में फोन नहीं रहा. तीन-चार बार काका ने ख़ुद के लिए फ़ोन ख़रीदा होगा. फिर ख़रीदना ही छोड़ दिया. इसलिए काका-काका चिल्लाना हमारी आदत में शुमार हो गया.
पापा चिल्लाते, पाले...पाले हो, ये पाले...
हमें भी हंसी आती. हम भी पापा का साथ देने आ जाते.
काका बस चाय के टाइम पर मौजूद रहते थे. शाम की चाय, उनके आने पर ही बनती थी.
पाले काका, अम्मा के सबसे ख़ास थे. कहां कौन सा खेत, कौन काट-बो रहा है, सबकी ख़बर काका ही रखते. किसे खेत बटइया पर देना है, किसे नहीं देना है, सब काका के हाथ में था. अम्मा का बस अप्रूवल होता था. अम्मा उन्हें बहुत मानती. शायद तभी, अम्मा के जाने के 6 महीने के भीतर काका भी वहीं पहुंच गए जहां अम्मा है. शायद वहां, अम्मा का राज-काज देखने वाला कोई सहयोगी नहीं पहुंचा था, जो भरोसेमंद हो. काका भी वहीं चले गए.
पापा की आदत है कि जब वे खेती करते हैं, तो केवल दो से तीन बार ही खेत जाते हैं. पहली बार जिस दिन बुवाई होती है. दूसरी बार जब फसल कटती है. कभी-कभार तब चले जाते हैं, जब खेत में पानी चल रहा हो. शेष दिनों में क्या हो रहा है, इससे ख़ास मतलब नहीं होता. सारी ज़िम्मेदारी पाले काका की होती थी फिर. भइया शाम को टहलने भले ही चले जाते हैं, खेत देखने के मक़सद से शायद ही कभी जाते हों. ऐसा इसलिए होता था, क्योंकि पाले काका थे. पापा जब कचहरी से लौटते थे, दिन भर की सारी बातें, वहीं आंगन में पापा से बताते. पापा हूं-हूं करके सुनते रहते.
कुछ पूछते जो काका को ख़राब लगता तो कहते, भै बाबू, तुहूं उहै मेर कहत हौ. यस नाहीं है. फिर काका अपनी कहानी बताने लगते.
सच बात थी, पापा भी उनका बहुत लिहाज़ करते थे. अम्मा, बड़ी बुआ के बाद, पापा ने शायद उन्हीं की सलाह मानी हो.
सुबह-शाम एक चक्कर खेत का मारे बिना काका को चैन नहीं. जाने से दो महीने पहले तक पाले काका की नियमित दिनचर्या में शामिल था खेत जाना. लेकिन फिर बीमार रहने लगे. उस तरीके से घूम नहीं पाते थे. भगवान नारद की तरह कभी एक जगह न बैठने का वरदान मिला था काका को. जाते वक़्त काका ने खाट पकड़ ली थी. उन्होंने घूमना कम कर दिया था. तभी अम्मा की वार्षिकी थी, और काका उस दिन घर नहीं आ सके. वे अपने घर पर ही लेटे रहे.
लग गया था कि काका अब ज़्यादा दिन के मेहमान नहीं हैं.
बचपन के हर क़िस्से में काका शामिल हैं. उनके अध्याय को छोड़कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता. जीवन में पहली बार मेला घूमने काका के साथ ही गया हूं. काका मुझे और भइया को बहुत दिनों तक मेला दिखाने ले जाते. तब तक ले गए हैं, जब तक हम बहुत बड़े नहीं हो गए.
शोहरतगढ़, लेदवां, माधवपुर, काका जहां तक जा पाते, हमें मेला ले जाते. मेला में जलेबी, समोसा और उसके बाद गुब्बारा. हमारा इतना ही मेला होता था. फिर काका गट्टा खरीदते. वहीं से कुछ न कुछ सबके लिए काका खरीदकर लाते. अम्मा सबको मेला करने का पैसा बांटती थी. उसमें काका का भी हिस्सा होता था.
काका को दुनिया का कोई भी डॉक्टर दवा लिखकर दे दे, विश्वास नहीं होता. उनकी वैद्य मम्मी ही थी. मम्मी के बिना अप्रूवल के काका कोई दवा नहीं खाते. चाहे एमडी लिखे काका के लिए दवाई. कहते रुको दुलहिन के देखाय ली तब दवइया खाब न.
एक दिन मैं घर के बाहर क्रिकेट खेल रहा था. सामने गेंद चली गई, उठाने गया तो कुतिया ने काट लिया. ज़रा सा भी ख़ून नहीं निकला था लेकिन काका परेशान हो गए. गांव में ऐसी मान्यता है कि जिसे कुत्ते ने काटा हो, उसे कुआं झंका दिया जाए तो कुत्ते के काटने का प्रभाव कम हो जाता है. काका ने हाथ पकड़कर पूरे गांव का चक्कर लगवा दिया. 52 से ज़्यादा कुएं हैं मेरे गांव में. मैं चिल्लाता ही रहा कि कुत्ते ने नहीं काटा है, काका ने एक न सुनी. काका तो काका थे, उन्हें रोक कौन सकता था.
रिश्ते केवल ख़ून वाले ही सच नहीं होते. भावनाओं के रिश्ते भी उतने ही पवित्र होते हैं, उनकी भी निकटता वैसी ही होती है. कुछ भी अंतर नहीं होता. ऐसे में किसी अपने का चले जाना, बहुत दुखता है. कुछ टूटता है, बेहद भीतर तक.
कहा जा सकता है कि काका को असह्य पीड़ा से मुक्ति मिली, लेकिन मन किसी को भी मुक्त करना कहां चाहता है. अपनों को कौन खोना चाहता है.
काका से जुड़ी हुई कितनी यादें हैं. लेकिन अब वे सिर्फ़ यादें हैं. काका जा चुके हैं. हैं से थे होने की दूरी उन्होंने तय कर ली है.
काका अब स्मृति बन चुके हैं. घर जाने पर उनकी खाट दिख सकती है, जहां रहते थे, वो घर दिख सकता है, उनकी लाठी दिख सकती है, लेकिन काका नहीं दिख सकते. मिल नहीं सकते, बात नहीं कर सकते.
कहीं वो आवाज़ सुनाई नहीं दे सकती कि, हो लाला, तू कब पंहुच्यौ. हम अगोरित रहेन न.
काका इस बार भी शायद इंतज़ार करते रह गए होंगे. लेकिन अब का. जब चले गए तो चले गए. जीवन के दूसरे छोर पर जहां समावर्तन के लिए राह नहीं होती. वहां जाने के पदचिन्ह मिलते हैं, और आने की स्मृतियां. इनके बीच कुछ भी शेष नहीं रहता. कुछ भी....
ऐसा लगा कि जैसे नियति ने जाने की तिथि तय कर दी है, और अब वे अपने आख़िरी दिन गिन रहे हैं. जैसे वक़्त ने चाल दिया हो बहुत भीतर तक, जहां से आत्मा आर-पार होने की स्थिति में पहुंच जाए. लग गया था कि अब काका का बुलावा आ गया है. फिर भी मन नहीं मान रहा था कि काका भी चले जाएंगे.
उनकी बातों से तो बिल्कुल भी नहीं लगा. वही रौब, वही अंदाज़ जिसे हम बचपन से देखते-सुनते आए हैं.
अच्छे वाले मन ने कहा कि काका ठीक हो जाएंगे. पहले की तरह ही जैसे वे घोड़ा टमटम टॉनिक पीने के बाद हो जाते थे.
कुछ ठीक नहीं हुआ. काका की तबियत खराब होती चली गई गई.
मुझे याद नहीं, काका एकादशी छोड़कर कोई व्रत रहे हों. मम्मी की ज़िद पर काका कभी-कभार जन्माष्टमी और एकादशी के दिन व्रत रख लेते थे. नहीं तो दोनों वक़्त भरपेट खाने वाले लोगों में से एक मेरे पाले काका भी थे. सुना कि काका ने 23 जून के बाद खाना ही नहीं खाया. कुछ खा ही नहीं पा रहे थे, शायद खाना ही नहीं चाह रहे थे.
जीवन भर का व्रत, जीवन के अंतिम दिनों में कर बैठे, भले विवशता से ही सही. व्रत पूरा हुआ, काका चले गए.
बचपन में काका से डर लगता था फिर भी काका बुरे नहीं लगते थे. बिलकुल बाबा की तरह, काका की भी डांट अच्छी लगती थी. कई बार डांट खाने के लिए ही सही, उन्हें हम लोग जानकर ग़ुस्सा दिलाते थे. कभी बहुत देर तक खेलते रहे तो काका का पारा चढ़ जाता था. कहते, अच्छा चलो, अब पढ़ो. बहुत खेल होइ गय. पढ़ना न लिखना, दिन्न भर उहै बैट.
बद्री, बलराम, परदेसी और बड्डू काका के डांट के बाद खिसक लेते थे, हम भी दबे मन से घर में स्टंप उठाकर चल देते थे. काका ने डांटा तो फ़ाइनल. गेंद-बल्ले का उठना तय.
फिर अगले ही दिन मौका मिलता खेलने को.
काका की डांट मुझे ही नहीं, भइया को भी पड़ी है. भइया की घर में न टिकने की आदत से दो लोग परेशान थे. अम्मा और काका. मम्मी को कुछ ख़ास फ़र्क़ पड़ता नहीं था. बाबा भी अपनी धुन में मस्त रहते थे. पापा देर से आते तो भइया घर में मिलते. लेकिन अम्मा और काका को बहुत दिक़्क़त थी भइया के घूमने से. काका जहां मिलते, सुनाकर भइया को घर ही भेजते. घर में घुसते ही अम्मा फ़ायर.
काका भ्रमणकारी थे. पांव नहीं टिकते थे उनके. गांव में घूमने निकलो तो कहीं न कहीं मिल जाते. जहां मिलते, वहीं टोकते. फिर घर वापस आना पड़ता.
भइया और मेरा पूरा बचपन 'पाले काका हो!' चिल्लाते बीता है. दरअसल काका दिन भर घर रहते थे, लेकिन जब खाने का वक़्त होता, काका निकल लेते थे. अम्मा किसी को खाना ले जाने नहीं देती, जब तक पाले काका खाना न खा लें. मजबूरन हमें चिल्लाना पड़ता. सुबह-शाम दोनों वक़्त. हमारे साथ पापा भी चिल्लाते थे. आस-पड़ोस में भी बच्चे मज़े लेकर चिल्लाते. सबको पता चल जाता कि घर में खाना बन गया है.
उस वक़्त मोबाइल वाला ज़माना नहीं था कि कॉल कर दें. जब मोबाइल वाला ज़माना आया, तब भी काका मोबाइल नहीं रखते, उन्हें ऐसे ही चिल्लाकर बुलाना पड़ता था. काका का फ़ोन, इंद्रजित ही चलाता, काका के हाथ में फोन नहीं रहा. तीन-चार बार काका ने ख़ुद के लिए फ़ोन ख़रीदा होगा. फिर ख़रीदना ही छोड़ दिया. इसलिए काका-काका चिल्लाना हमारी आदत में शुमार हो गया.
पापा चिल्लाते, पाले...पाले हो, ये पाले...
हमें भी हंसी आती. हम भी पापा का साथ देने आ जाते.
काका बस चाय के टाइम पर मौजूद रहते थे. शाम की चाय, उनके आने पर ही बनती थी.
पाले काका, अम्मा के सबसे ख़ास थे. कहां कौन सा खेत, कौन काट-बो रहा है, सबकी ख़बर काका ही रखते. किसे खेत बटइया पर देना है, किसे नहीं देना है, सब काका के हाथ में था. अम्मा का बस अप्रूवल होता था. अम्मा उन्हें बहुत मानती. शायद तभी, अम्मा के जाने के 6 महीने के भीतर काका भी वहीं पहुंच गए जहां अम्मा है. शायद वहां, अम्मा का राज-काज देखने वाला कोई सहयोगी नहीं पहुंचा था, जो भरोसेमंद हो. काका भी वहीं चले गए.
पापा की आदत है कि जब वे खेती करते हैं, तो केवल दो से तीन बार ही खेत जाते हैं. पहली बार जिस दिन बुवाई होती है. दूसरी बार जब फसल कटती है. कभी-कभार तब चले जाते हैं, जब खेत में पानी चल रहा हो. शेष दिनों में क्या हो रहा है, इससे ख़ास मतलब नहीं होता. सारी ज़िम्मेदारी पाले काका की होती थी फिर. भइया शाम को टहलने भले ही चले जाते हैं, खेत देखने के मक़सद से शायद ही कभी जाते हों. ऐसा इसलिए होता था, क्योंकि पाले काका थे. पापा जब कचहरी से लौटते थे, दिन भर की सारी बातें, वहीं आंगन में पापा से बताते. पापा हूं-हूं करके सुनते रहते.
कुछ पूछते जो काका को ख़राब लगता तो कहते, भै बाबू, तुहूं उहै मेर कहत हौ. यस नाहीं है. फिर काका अपनी कहानी बताने लगते.
सच बात थी, पापा भी उनका बहुत लिहाज़ करते थे. अम्मा, बड़ी बुआ के बाद, पापा ने शायद उन्हीं की सलाह मानी हो.
सुबह-शाम एक चक्कर खेत का मारे बिना काका को चैन नहीं. जाने से दो महीने पहले तक पाले काका की नियमित दिनचर्या में शामिल था खेत जाना. लेकिन फिर बीमार रहने लगे. उस तरीके से घूम नहीं पाते थे. भगवान नारद की तरह कभी एक जगह न बैठने का वरदान मिला था काका को. जाते वक़्त काका ने खाट पकड़ ली थी. उन्होंने घूमना कम कर दिया था. तभी अम्मा की वार्षिकी थी, और काका उस दिन घर नहीं आ सके. वे अपने घर पर ही लेटे रहे.
लग गया था कि काका अब ज़्यादा दिन के मेहमान नहीं हैं.
बचपन के हर क़िस्से में काका शामिल हैं. उनके अध्याय को छोड़कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता. जीवन में पहली बार मेला घूमने काका के साथ ही गया हूं. काका मुझे और भइया को बहुत दिनों तक मेला दिखाने ले जाते. तब तक ले गए हैं, जब तक हम बहुत बड़े नहीं हो गए.
शोहरतगढ़, लेदवां, माधवपुर, काका जहां तक जा पाते, हमें मेला ले जाते. मेला में जलेबी, समोसा और उसके बाद गुब्बारा. हमारा इतना ही मेला होता था. फिर काका गट्टा खरीदते. वहीं से कुछ न कुछ सबके लिए काका खरीदकर लाते. अम्मा सबको मेला करने का पैसा बांटती थी. उसमें काका का भी हिस्सा होता था.
काका को दुनिया का कोई भी डॉक्टर दवा लिखकर दे दे, विश्वास नहीं होता. उनकी वैद्य मम्मी ही थी. मम्मी के बिना अप्रूवल के काका कोई दवा नहीं खाते. चाहे एमडी लिखे काका के लिए दवाई. कहते रुको दुलहिन के देखाय ली तब दवइया खाब न.
एक दिन मैं घर के बाहर क्रिकेट खेल रहा था. सामने गेंद चली गई, उठाने गया तो कुतिया ने काट लिया. ज़रा सा भी ख़ून नहीं निकला था लेकिन काका परेशान हो गए. गांव में ऐसी मान्यता है कि जिसे कुत्ते ने काटा हो, उसे कुआं झंका दिया जाए तो कुत्ते के काटने का प्रभाव कम हो जाता है. काका ने हाथ पकड़कर पूरे गांव का चक्कर लगवा दिया. 52 से ज़्यादा कुएं हैं मेरे गांव में. मैं चिल्लाता ही रहा कि कुत्ते ने नहीं काटा है, काका ने एक न सुनी. काका तो काका थे, उन्हें रोक कौन सकता था.
रिश्ते केवल ख़ून वाले ही सच नहीं होते. भावनाओं के रिश्ते भी उतने ही पवित्र होते हैं, उनकी भी निकटता वैसी ही होती है. कुछ भी अंतर नहीं होता. ऐसे में किसी अपने का चले जाना, बहुत दुखता है. कुछ टूटता है, बेहद भीतर तक.
कहा जा सकता है कि काका को असह्य पीड़ा से मुक्ति मिली, लेकिन मन किसी को भी मुक्त करना कहां चाहता है. अपनों को कौन खोना चाहता है.
काका से जुड़ी हुई कितनी यादें हैं. लेकिन अब वे सिर्फ़ यादें हैं. काका जा चुके हैं. हैं से थे होने की दूरी उन्होंने तय कर ली है.
काका अब स्मृति बन चुके हैं. घर जाने पर उनकी खाट दिख सकती है, जहां रहते थे, वो घर दिख सकता है, उनकी लाठी दिख सकती है, लेकिन काका नहीं दिख सकते. मिल नहीं सकते, बात नहीं कर सकते.
कहीं वो आवाज़ सुनाई नहीं दे सकती कि, हो लाला, तू कब पंहुच्यौ. हम अगोरित रहेन न.
काका इस बार भी शायद इंतज़ार करते रह गए होंगे. लेकिन अब का. जब चले गए तो चले गए. जीवन के दूसरे छोर पर जहां समावर्तन के लिए राह नहीं होती. वहां जाने के पदचिन्ह मिलते हैं, और आने की स्मृतियां. इनके बीच कुछ भी शेष नहीं रहता. कुछ भी....
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-07-2019) को "चिट्ठों की किताब" (चर्चा अंक- 3390) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर... नमन!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति। लेखन कला अप्रतिम।
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