अच्छे दिनों की बुराई इतनी सी है कि उनका प्रभाव बहुत क्षणिक होता है. बुरे वक़्त से दो दिनों के लिए ही भेंट हो जाए तो महीनों के अच्छे दिन निष्प्रभावी हो जाते हैं. दुख के दो दिन, महीनों, वर्षों के अच्छे दिनों पर भारी पड़ जाते हैं.
मन बस यही कहता है कि कब दिन बहुरेंगे.
अब दु:ख सहा नहीं जाता. पानी नाक तक आ गया है, अगर डूबे तो फिर नहीं उबरेंगे.
जीवन की सारी सुखद स्मृतियां कहीं बीत जाती हैं, जिनकी रत्तीभर याद नहीं आती.
लगता है सब कुछ ख़त्म. कुछ शेष नहीं. इच्छाएं, अनिच्छाएं, कुछ भी स्थाई नहीं रह जाती हैं. दिन बीतता नहीं है, रात कटती नहीं है. ठहरने का मन करता है, लेकिन मन न जाने किस दिशा में यात्रा करता है, तभी एक झपकी आती है. विराम.
(फोटो साभार- https://wallpaperaccess.com/sunrise) |
दिनों की व्यग्रता...पलों में ओझल होती है.
मन खिलता है...कुछ याद नहीं रहता.
लगता है कि कोई बोझ था, उतर गया. अब सब कुछ नया. सब कुछ फिर से. जैसे मन उर्जस्वित हो गया हो...जैसे मनचाहा वर मिल गया हो...जैसे किसी ने कह दिया हो- का चुप साधि रहा बलवाना.....अजर अमर गुननिधि सुत होऊ.....
फिर क्या....
लगने लगता है......दिन बहुर गए हैं.
दिन बहुरते हैं.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-09-2019) को "स्वर-व्यञ्जन ही तो है जीवन" (चर्चा अंक- 3454) पर भी होगी।--
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 10 सितम्बर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सटीक प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक.... लाजवाब...।
जवाब देंहटाएंसही कहा बुरा समय ज्यादा प्रभावी होता है।
वाह!!बहुत खूब!!
जवाब देंहटाएं