मंगलवार, 14 मई 2019

हम परागों के निषेचन में फंसे हैं



रूप के उपमान आकुल हो गए हैं
दर्प भी उन्माद जितना छा गया है,
हम परागों के निषेचन में फंसे हैं
फूल के प्राणों पे संकट आ गया है।

सूख जाना फूल की अन्तिम नियति है
पर भंवर को कब हुआ है भान इसका,
प्यास अधरों की रहे बुझती परस्पर
लालसा में सच कहो क्या दोष किसका?

जीविका है या गले की फांस है यह
रोज़ इच्छाओं को कसती जा रही है,
दास हूं मैं या तनिक स्वायत्तता है
मति इसी संशय में फंसती जा रही है।

वृक्ष था अब ठूंठ बनकर रह गया हूँ
सूखने के वक़्त शायद आ गया है
मोक्ष ने फिर से मुझे धोखा दिया है
क्षीण हो जाना मुझे भी भा गया है।

-अभिषेक शुक्ल

(तस्वीर- @Philippe Donn)

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