शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

मरते-मरते मुंशी ने ऐसा क्या किया जो गांव भर की हाथों में लग गईं हथकड़ियां

किसी गांव में एक मुंशी रहता था, नाम था खटेसर लाल। बहुत धूर्त और काइंया किस्म का आदमी था। जितनी भद्दी शक्ल उतनी ही बुरी अक्ल। गांव वाले उसे राक्षस कहते थे। पाई-पाई का हिसाब रखता था। गांव भर में सूद पर पैसे बांटता फिर उगाही करता। दादा ले पोता बरते। हाल यह था कि बगेदू के बाबा ने खटेसर के दादा से कर्ज़ लिया था लेकिन सूद और मूलधन की भरपाई बगेदू का पोता कर रहा था। लाला से जिसने लिया कर्ज़ बढ़ा उसका मर्ज़। समय से कर्ज़ न चुकाने वाले की खाल उधेड़ लेता था खटेसर।

यह बात दो-चार कोस में मशहूर थी कि खटेसर मुंशी ने जिसे कर्ज़ दिया उसके ख़ानदान की सारी धन-दौलत गई मुंशी के हाथों में।

खटेसर अकसर कहता कि जब मैं मरूंगा तो गांव भर रोएगा। किसी के घर चूल्हा नहीं जलेगा। लोग उसके पीछे होते ही कहते घंटा! गांव भर उत्सव मनाएगा। पटाखा छूटेगा, छुरछुरियां छूटेंगी। इस निशाचर के आगे-पीछे है ही कौन रोने वाला? उधार पर दिए गए पैसों का ब्याज़? क़फ़न में जेब थोड़े ही होती है।

बात इतने पर ही नहीं ख़त्म होती। देश-दुनिया का कोई पाप बचा नहीं था जो मुंशी ने न किया हो।चोरी, डकैती, सेंधमारी, बलात्कार, छेड़खानी सब मुंशी के दाएं हाथ का खेल था। मरने के कुछ दिन पहले ही भंसूती की बिटिया का दिन दहाड़े हाथ दबोच लिया था। नातिन के उम्र की रही होगी। बेचारी चीखती रह गई लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि बढ़कर बिटिया को छुड़ा दें। थाना-पुलिस सब में उठक-बैठक थी खटेसर की। गरीब की छोकरी की कौन इज़्ज़त?

खटेसर मुंशी सुबह-सुबह मैदान मार कर आ रहा था तभी भकन्दर का अटैक हुआ और नील-टीनोपाल लगी सफ़ेद खादी की धोती लाल लाल हो गई। गांव में हल्ला मचा कि खटेसरा का पाप फूट रहा है। कोई कहता कोढ़ हो गया है तो कोई कहता कैंसर हो गया है। खटेसर मुंशी ने खाट पकड़ ली। झरखू बहू बर्तन मांजने आती थी मुंशी यहां। पति था शराबी लेकिन बच्चे पैदा किया आठ। छह बेटी, दो बेटा। दोनों लड़के अभी चार साल से कम उम्र के थे। गांव में हल्ला मचता कि दोनों औलाद खटेसर के हैं। रंग रूप भी वही पाए थे। बहुत हरामी था मुंशी। डरा-धमका कर रखता था सबको। किसी की हिम्मत जो उसके ख़िलाफ़ कोई मुक़दमा लिखवा दे।

झरखू को पत्नी से जरा भी प्रेम न था। उसे बस पैसे चाहिए थे। खटेसर जो पैसे उसकी बहुरिया को देता उसे झरखू छीन कर दारू खरीद लाता। जैसे-तैसे ज़िंदगी कट रही थी।

खटेसर की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती चली जा रही थी। जिस पर दयू(भगवान) की मार पड़ती है उसे कौन बचा सकता है। डॉक्टर-वैद्य किसी की दवाई खटेसर के काम नहीं आ रही थी।

झरखू बहू ने भी सबको बता दिया कि अब मुंशी खटिया पर ही पैखाना-पेशाब करता है। बड़बड़ाता रहता है कि मैंने गांव वालों को बहुत सताया है उनसे कहो कि मुझे माफ़ कर दें। हफ़्तों झरखू की बहुरिया मोहल्ले में घूम-घूम कर यही कहती रही। गांव वाले पसीज गए। गांव के चौकीदार कल्लू मुंशी यहां पहुंचे। ख़ूब छनती थी दोनों की। शाम होते ही दोनों महुआ का ठर्रा लगाते थे। खटेसर के बाप ने मरते वक़्त उसे क़सम दिलाई थी कि मर जाना पर अपने पैसे से शराब न पीना। सो शराब लाने की ज़िम्मेदारी थी चौकीदार की। थाने में दरबारी करने का यही लाभ चौकीदार को मिलता था कि दरोगा दारू मुफ़्त में देता था लेकिन चखना और भरपेट भोजन का जुगाड़ करता था मुंशी खटेसर।

गांव में चौकीदार कल्लू ही उसके घर से कुछ पाया था वर्ना सब उसे देते ही थे लेकिन जब बिमारी की मार पड़ी तो दोस्ती टूट गई। कल्लू और खटेसर की यारी, यारी नहीं रहगुजारी थी। कल्लू खटेसर को बिस्तर पर लेटे देखा रो पड़ा। जिसकी धोती में लाट नहीं लगती थी उसकी धोती में बवासीर के धब्बे। दूर से ही बदबू मार रहा था बेचारा। मुंह से अकस्मात निकला पाप ऐसे ही सड़ता है।

खटेसर कल्लू को देखते ही कहा, “दोस्त! एक काम कर दो। आज दरोगा जी को बुला दो। बहुत किरपा होगी। वकील साहब को भी बुला लाना। एक वसीयत लिखवानी है गांव वालों के नाम।”

कल्लू ने सोचा मरते वक़्त तो आदमी अगर पश्चाताप कर ले तो उसके पाप कम हो जाते हैं। हो सकता है कि खटेसर मौत नज़दीक देख बदल गया हो। सही में गांव के लिए कुछ करके मरना चाहता हो। माफ़ी मांगना चाह रहा हो।

कल्लू पसीज गया। दरोगा साहब और वकील साहब को खटेसर के घर लेते आया। खटेसर ने कहा दोस्त अब तुम जाओ कुछ बात करनी है दरोगा साहब से। कल्लू ने बात मान ली, चला गया।

खटेसर ने दरोगा साहब से न जाने क्या-क्या लिखवाया। दरोगा साहब तो अपने बाप की मय्यत में भी न जाते, मरते खटेसर से भी वसूल लिया 500। वकील साहब ने एक वसीयत लिखी। बिना स्टांप पेपर के, सादे काग़ज़ पर लिख कर वकील साहब तीर्थ यात्रा पर चले गए। वकील साहब से खटेसर की पुरानी यारी थी तो यह काम उन्होंने मुफ़्त में किया।

एक दिन बड़े सबेरे ख़बर फैली कि खटेसर मर गया। गांव भर में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी। झिनकी, बितनी, झगरू, मंगरू सबके घर में उल्लास फैल गया। सबको लगा अब तो ज़िंदगी संवर जाएगी न ब्याज़ देना होगा न मूलधन। कर्ज़ से राहत।

गांव के पुरोहित खटेसर के घर पहुंचे। खटेसर की तकिया के नीचे एक वसीयत लिखी थी। वसीयत क्या कहें आख़िरी इच्छा थी खटेसर की।

खटेसर ने वकील साहब से लिखवाया था, “जब मैं मरूं तो मुझे घाट तक घसीटते हुए ले जाया जाए। गांव के बच्चे मेरे शव के साथ खटेसर मुर्दाबाद का नारा लगाते हुए चलें। मुझे क़फ़न न ओढ़ाया जाए, न ही मेरे लिए टिकठी का इंतज़ाम किया जाए। मेरी कुंडली में लिखा है कि इससे मेरे पाप कम हो जाएंगे। जब गांव के मर्द घसीटते हुए मुझे घाट पर ले जाएं तो उनकी पत्नियां मेरी लाश को झाड़ू से मारें। इससे मेरे पाप ख़त्म हो जाएंगे और मुझे मोक्ष मिल जाएगा। मेरे मरने के बाद मेरी सारी संपत्ति गांव वालों के नाम कर दी जाए। ”

गांव के पुरोहित ने कहा कि मरते वक़्त अगर आदमी कुछ कह के मरा हो तो उसकी बात मान लेनी चाहिए। इससे आत्मा भी तृप्त होती है और परमात्मा भी तृप्त हो जाते हैं।

पुरोहित की बात गांव वालों ने मान ली। खटेसर मुंशी को खटिया से नीचे घसीटा गया। गांव वाले हो हल्ला मचाने लगे। महिलाएं झाड़ू बरसाने लगीं। खटेसर की लाश खून से लथपथ। उधर कल्लू चौकीदार को ख़बर मिली की खटेसर मर गया तो भागते हुए थाने पहुंचा। दरोगा को बताया कि खटेसर मर गया और उसकी लाश गांव वाले पीटते हुए घाट पर ले जा रहे हैं। दरोगा साहब ने दल-बल बुला लिया और कल्लू चौकीदार के साथ गांव की ओर निकल पड़े।

जैसे ही गांव के किनारे पहुंचे देखते हैं कि खटेसर की लाश को लोग पीटे जा रहे हैं। गांव वालों में उल्लास पसरा है। खटेसर मुर्दाबाद के नारे लग रहे हैं। दरोगा साहब जैसे ही पास पहुंचे जीप से कूद पड़े। पुरोहित पर बंदूक तान दी। दरोगा साहब के साथ कई सिपाही भी थे। गांव वालों को पुलिस ने घेर लिया था।

दरोगा साहब दहाड़े, “ बीमार पड़े खटेसर मुंशी को तुम लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला जिससे तुम्हें कर्ज न देना पड़े। निहायत भले आदमी का जीना तुम लोगों ने हराम कर दिया था। वो तो भला हुआ कि उसने मुझे पहले ही इत्तिला दी थी कि गांव वाले उसे मारना चाहते हैं। पूरी चिट्ठी लिख के मरा है खटेसर। आज अगर कल्लू चौकीदार न होता तो तुम लोग तो मामला निपटा चुके होते। गिरफ्तार कर लो सबको। इन सबको फांसी की सजा दिलवाऊंगा। निहायत ही दरिंदे हैं इस गांव के लोग।”

गांव वाले गिरफ्तार हो गए। बच्चों के सिवाय गांव में कोई न बचा। पूरा गांव ट्रक में लद कर थाने पहुंचा। गांव अनाथ हो गया। पुलिस वाले गांव वालों को उसी तरह पीट रहे थे, जैसे खटेसर अपनी भैंस पीटता था। कल्लू चौकीदार के घरवाले खटेसर की चिता तैयार कर रहे थे। लकड़ियां, गोबर, कंडा, चिपरी सबका बंदोबस्त हो गया था। खटेसर की चिता को आग लग चुकी थी। पूरा गांव सुलग रहा था। बच्चे भूखों मर रहे थे। सबके घरों में ताले लटके थे। गांव में सन्नाटा पसरा था। थाने में बंद गांव वालों की हड्डियां टूट रहीं थीं, खटेसर स्वर्ग से मुस्कुरा रहा था। गांव रो रहा था। बच्चे, बूढ़े सभी।
उसकी अंतिम इच्छा पूरी हो चुकी थी।

(यह कहानी मेरे गांव में बच्चे- बच्चे की ज़ुबान पर है।
चार लोग इकट्ठा होते हैं तो यही कहानी बांची जाती है। जनश्रुति है। असली कहानी की भाषा कुछ अलग तरह की है..जिसे उसके मूल रूप में लिखने के लिए जिस स्तर की प्रगतिशीलता चाहिए वैसी अभी मुझमें नहीं है।)

-अभिषेक शुक्ल


मंगलवार, 10 अप्रैल 2018

राजनीतिक पार्टियों की व्यर्थ संवेदना समाज के लिए घातक नहीं बल्कि जहर है

किसी के आप सच्चे हितैषी हैं तो उसके साथ सहानुभूति न रखें. सहानुभूति और संवेदनाएं किसी के राहों का कांटा जरूर बन सकती हैं ग्लूकोज का काम कतई नहीं करने वाली. सहानुभूति की तुलना आप जहर से कर सकते हैं. मीठा जहर. आज कल लोग बहुत संवेदनशील हो गए हैं. सवा सौ करोड़ की आबादी में सारे संवेदनशील जीव किसी खास प्लेटफॉर्म पर आपको मिल जाएंगे.

किसी के लिए दो कदम भी न चलने वाले लोगों में और ज्यादा संवेदना पाई जाती है. औसत से ज्यादा. इनकी प्रवृत्ति इतनी खराब है कि इन्हें पढ़ लें तो आप खुद को अपराधी समझने लगेंगे. हाय! हमने समाज के लिए कुछ नहीं किया.

संवेदना और सहानुभूति किसी को भी निकम्मा बनाने के लिए कैटेलिस्ट का काम करती है. किसी को पंगु करना हो तो बस उसे एहसास दिलाते रहिए कि भाई आपके साथ बहुत गलत हुआ है, बहुत बुरा हुआ है. आपने जितना अत्याचार सहा है कोई और सहता तो मर जाता. देखो आपके साथ कितना भेदभाव लोग करते हैं. आप लड़िए साथी हम पीछे से आपको तक्का देंगे. आपको बहुत मजबूत करेंगे. आप पर लाठी पड़ेगी तो सबसे पहले हम झेलेंगे.

तहकीकात करेंगे तो पता लगेगा वक्त पर यही लोग सबसे पहले भागते हैं. सहानुभूति रखने वाले लोग वक्त पर काम नहीं आते.

समाज का बंटवारा मनु अपने जीवन काल में उतना नहीं कर पाए जितना सोशल मीडिया ने कर दिया है. कोई अगर अपना कल भूलकर आज में जीना भी चाहे तो उसे याद आ जाएगा कि ओह! कल मेरे साथ बहुत कुछ गलत हुआ था. मैं सताया गया हूं. कल को याद कर आज आगे बढ़ने की संभावनाएं खारिज होने लगती हैं.

बांटने वाले लोग दबे पांव अपना काम सलीके से कर रहे हैं. उम्मीद है आगे भी करते रहेंगे. गाना प्यार बांटते चलो पर बना था उसे अपनाया नफरत बांटते चलो के रूप में गया है.

बांटो, जितना हो सके बांट दो समाज को. किसी दिन समाज के दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक, क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण, हिंदू-मुसलमान समझदार जरूर होंगे. तब एक मस्त चिट्ठी लिखेंगे परिवार तोड़ने वाले लोगों के लिए.

उनका संबोधन होगा-
सेवा में,
प्रिय राजनीतिक पार्टियों!
एक बात कहने का मन कर रहा है.
हम आपकी व्यर्थ संवेदनाएं ले क्या करेंगे?
क्या करेंगे?

आपकी निरीह जनता,
जिन्हें आप केवल वोट बैंक समझते हैं.

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

छोड़ोगे जो गरल धरा पर क्या तुम नहीं जलोगे?




तनिक समय अनुकूल हुआ तो नाथ! दर्प क्यों इतना
नेह विसर्जित कर बैठे औ गरल सर्प के जितना?
छोड़ोगे जो गरल जगत में क्या तुम नहीं जलोगे?
तुमको भी रहना धरती पर कैसे यहां पलोगे?
किसी समय तुम अपने विष को खुद ही पी जाओगे
विषधर तुम अपना विष चख कर कैसे जी पाओगे?

मन का झूठा दर्प सहज ही जीवन में दुख बोता
अपनी बोई फसल काटकर मानव क्यों है रोता?
सम्मुख जो भी विपद उपस्थित वह कर्मों का फल है
जिसने समता को अपनाया मानव वही सफल है।

(दिनकर की याद में...शेष प्रवचन फिर कभी 😊)

- अभिषेक शुक्ल।

(15 अक्टूबर 2017 की रचना है.)

(फोटो- pexels)