वर्तमान भारतीय
राजनीति में राजनीतिक विचारकों पर एकाधिकार जमाने का दौर शरू हो गया है। हर दल
विचारकों पर एकाधिकार चाहता है। पार्टियाँ किसी भी विचारक को अपनाने में संकोच
नहीं कर रहीं हैं चाहे उक्त विचारक उनके पार्टी के संविधान का, अतीत में धुर
विरोधी और आलोचक रहा हो।
भीम राव अम्बेडकर भी
इसी राजनीतिक मानसिकता का शिकार बन गए हैं। दलितों, शोषितों और वंचितों की राजनीती
करने वाली पार्टियाँ, एक ओर बाबा साहेब पर एकाधिकार चाहती हैं तो वहीँ दूसरी ओर विरोधी पार्टियाँ भी बाबा साहब को अपनाने के लिए
जी-जान से आयोजनों पर पैसे खर्च कर रही हैं। यह वैचारिक सहिष्णुता का लक्षण नहीं
अवसरवादिता का लक्षण है।
बीते 14 अप्रैल को लगभग सभी राजनीतिक दल अम्बेडकर को
ओढ़ते-बिछाते नज़र आये। पूरा भारत अम्बेडकरमय था। काश उनके जीवन काल में, उनके
विचारों को इतने बड़े स्तर पर स्वीकृति मिल गयी होती तो शायद असमानता और सामाजिक
संघर्ष की लड़ाई अब तक नहीं लड़नी पड़ती।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी महू जाकर, पूरी दुनिया को बता आये कि वे अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित नीतियों
की वजह से प्रधानमंत्री बने हैं। इसमें कितनी सच्चाई है इसे उनकी पार्टी से बेहतर
कोई नहीं जान सकता है।
अम्बेडकर की इस
राजनीतिक स्वीकार्यता का मतलब है कि दलितों पर ध्यान देना हर राजनीतिक पार्टी की
चुनावी मजबूरी है। दलितों और वंचितों की समस्याओं पर राजनीतिक रोटी सेंकनी है तो अम्बेडकर
का सहारा लेना ही पड़ेगा।
हर विचारक के
विचारों का, उसकी मृत्यु के बाद तमाशा बनता है लेकिन तब वह अपने कहे गए तथ्यों और
कथ्यों का स्पष्टीकरण देने के लिए खुद मौजूद नहीं होता। उसके विचारों को चाहे तोड़ा
जाये या गलत तरीके से अपने पक्ष में अधिनियमित कर लिया जाए वह कुछ नहीं कर सकता।
आज हर राजनीतिक
पार्टी अम्बेडकर के विचारों को ताक पर रख रही है लेकिन उनके तस्वीरों के सामने उन्हें
पूजते हुए सोशल मीडिया पर अपने फोटोज डालना नहीं भूल रही है। यह राजनीती का
‘तस्वीर काल’ है।
‘एनाहिलेशन ऑफ कास्ट’
अम्बेडकर ने जातिवाद के विरोध में लिखा था, जिसमे उन्होंने कहा था कि, ‘जातिगत
भेद-भाव केवल अंतरजाति य विवाह कर लेने भर से नहीं समाप्त हो जाएगा, इस भेद-भाव को
मिटाने के लिए धर्म नामक संस्था से बाहर निकलना होगा।’
अम्बेडकर का यह कथन
हर हिंदूवादी नेता जानता है लेकिन उनके इस कथन को समाज के निचले तबके तक पहुँचने
नहीं देता है। शायद उन्हें इस बात का डर है कि जिस दिन ये तबका अम्बेडकर को जान
गया उसी दिन से वो महज़, वोट बैंक का सॉफ्ट टारगेट होने तक सिमटा नहीं रहेगा।
अम्बेडकर की
मूर्तियों और फोटोज पर माला चढ़ाने से ज्यादा जरूरी है उनके
विचारों को जनता तक पहुंचाना। जिस सामाजिक उपेक्षा और जाति संघर्ष के कड़वे घूँट को
अम्बेडकर जीवन भर पीते रहे उन सबका समाज में मुखरित हो कर आना समाज की जरूरत है।
अम्बेडकर भारत में
हमेशा प्रासंगिक रहेंगे क्योंकि जब भी कोई दलित-शोषित व्यक्ति जाति व्यवस्था के
विरुद्ध में स्वर उठाएगा अम्बेडकर को उसे पढ़ना ही पड़ेगा।
अम्बेडकर, अंग्रेजों
की गुलामी करने से बड़ी व्याधि हिन्दू जाति को मानते थे। भारतीय समस्याओं के मूल
में उन्हें हिन्दू धर्म की जाति प्रथा नज़र आती थी जिसके लिए वे आजीवन लड़ते रहे।
हिन्दू धर्म में पैठ
बना चुकी जाति प्रथा के विरुद्ध अम्बेडकर मुखर हो कर सामने आये थे। उन्होंने जाति के
इस दलदल से बाहर निकलने के लिए अपने जीवन के अंतिम दिनों में जो रास्ता चुना वह
उन्हें जाति प्रथा का त्वरित निदान लगा।
यह कहना बेहद आसान
है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसलिए प्रधानमंत्री हैं कि बाबा साहेब ने संविधान
में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान रखा था। प्रधानमंत्री जिस राजनीतिक पार्टी
का प्रतिनिधित्व करते हैं और जिस संगठन का स्वयंसेवक बन कर एक लम्बा वक़्त बिताया
है उस संगठन का अम्बेडकर के एनाहिलेशन ऑफ कास्ट पर लिखे आलेख पर क्या विचार है ?
अम्बेडकर, भारतीय
जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मापदंडो पर बिलकुल भी खरे नहीं उतरते। जिस
हिंदुत्व जनित अत्याचार और भेदभाव से मुक्ति पाने के लिए अम्बेडकर ने अपने
समर्थकों के साथ धर्म परिवर्तन करके बौद्ध धर्म में दीक्षा ली वही हिदुत्व
प्रधानमंत्री मोदी के पार्टी का मुख्या
एजेंडा है।
अम्बेडकर भारतीय
जनता पार्टी को त्वरित लाभ पहुंचा सकते हैं लेकिन स्थायी नहीं। अम्बेडकर न
कांग्रेस के खांचे में फिट बैठते हैं न बहुजन समाज पार्टी के, जिसका अम्बेडकर पर
एकाधिकार समझा जाता रहा है। समाजवादी पार्टी लोहिया से कब की कट चुकी है वो भीम
राव को क्यों याद करे?
भाजपा को सवर्णों की
पार्टी कहा जाता है लेकिन हाल के चुनावों में भाजपा हिन्दू पार्टी बन कर उभरी है।
न वह ओबीसी की पार्टी रह गयी है न ही सवर्णों की। उसके एजेंडे में अब दलित भी
शामिल हैं जिन पर बसपा का एकाधिकार समझा जाता था।
लोकतंत्र में किसी
पार्टी का व्यापक स्तर पर छाना ठीक नहीं, पर भजपा का सामना करने का साहस न सपा में
है, न बसपा में है और न ही कांग्रेस में।
उत्तर प्रदेश में
हुए विधान सभा चुनावों में अगर बसपा, सपा और कांग्रेस का त्रिदलीय गठबंधन होता तब
भी वो ओबीसी वोटरों को मोह नहीं पाते क्योंकि जातिय समीकरणों की जगह राष्ट्रावाद
और हिंदुत्व हावी हो गया है।
अम्बेडकर को अपनाने
में भाजपा की व्यावहारिक कठिनाई उसकी विचारधारा है। अम्बेडकर का हिंदुत्व से ३६ का
आंकड़ा है। भाजपा यदि तुष्टिकरण की नीति अपनाती है तो वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी
मारेगी जो संघ कभी होने नहीं देगा। अम्बेडकर भाजपा के राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के
लिए घातक है।
भाजपा अगर दलितों को
भी हिंदुत्व के रंग में रंग दे और सामाजिक समरसता पर जोर दे तो वंचित तबकों के हक़
की राजनीति करने वाली पार्टियाँ अपना जनाधार खो देंगी। ऐसा होना मुश्किल है पर भेड़
तंत्र में कुछ भी हो सकता है। अगर भाजपा अम्बेडकर को अपना सकती है तो वह सत्ता के
लिए कुछ भी कर सकती है।
२०१४ के मोदी मैजिक
के बाद अगर कोई भाजपा के गौ रक्षा, घर वापसी और राष्ट्रवाद वाले एजेंडे से लड़ सकता
है तो वह है अम्बेडकरवादी राजनीतिक दलों का समूह पर अम्बेडकरवाद केवल विश्वविद्यालयों
तक सिमटा है जिनके पास छात्रों से इतर कोई जनाधार नहीं है। वामपंथी और समाजवादी अम्बेडकर
के नाम की राजनीती तो करते हैं लेकिन इनके सिद्धांतों का अनुकरण कभी नहीं करते। शायद
उनके भारत में हाशिये पर रहने का यही मुख्य कारण है।
मार्क्सवादीयों के
लिए चुनौती है पहले अपने पार्टी में अन्दर तक घुसे ब्राम्हणवाद से निपटना, हिंदुत्व
तो बाद की चीज़ है। जनधार तो मार्क्सवादियों के पास न के बराबर है.
समाजवादी तो
परिवारवाद की भेंट चढ़ चुके हैं। लोहिया,मार्क्स,एम एन रॉय तो कब के भारत में
अप्रासंगिक हो चुके हैं। इनसे राजनीतिक पार्टियों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। अम्बेडकर
को हथियाने के लिए भाजपा ने कोई कोर कसर-नहीं छोड़ी है। बस भाजपा इसी द्वंद्व में
है कि कैसे जय श्री राम और मनुस्मृति के साथ अम्बेडकर का समन्वयन करे।
फिलहाल अभी तो अम्बेडकर
और हिंदुत्व दो अलग अलग धार वाली तलवारें हैं जिन्हें भाजपा के लिए एक म्यान में
रखना आसान नहीं है।
-अभिषेक शुक्ल