शहर की ऊंची दीवारों में कैद हो गया मेरा बचपन,
चिमनी भट्टी,शोर-शराबा कैंटीन में चौका बरतन ।।
दिनभर सारा काम करुं तो खाने भर को मिलजाता है,
कुछ पैसे मैं रख लेता हूँ कुछ मेरे घर भी जाता है।।
फटे हुए कपड़े मुन्नी के मां को नहीं दवाई मिलती
अपना भी तन मैं ढक पाऊँ इतनी कहाँ कमाई मिलती?
दिन-रात मैं मेहनत करता फिर भी पैसों की है तरसन,
शहर की ऊंची दीवारों में कैद हो गया मेरा बचपन।।
-अभिषेक
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना !
जवाब देंहटाएंऐसे ही लिखते रहो अभिषेक भाई !
Dynamic
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल सोमवार (24-10-2016) के चर्चा मंच "हारती रही हर युग में सीता" (चर्चा अंक-2505) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही उम्दा ..... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)
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