भरत ने कही ह्रदय की बात
चलो तुम आज अयोध्या तात,
अभी तो तनिक शेष है रात
तात! तुम स्वयं नवल प्रभात।।
नहीं कुछ कैकयी का दोष
कहाँ नारी को इतना होश
सकुचित हुआ ह्रदय का कोष
परमति प्रकट हुआ था रोष।।
मन्थरा का था मलिन प्रभाव
दे दिया अविनाशी सा घाव
न जाने कैसा था वह ताव
किया जो अधम दिशा को पांव।।
प्रसंग बताइये?
😊😊😊😊😊😊
(पूरा कुछ दिन बाद लिखूंगा)
-अभिषेक
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-02-2016) को "हँसता हरसिंगार" (चर्चा अंक-2245) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह अच्छा प्रसंग चुना है ... अच्छे शब्दों में बाँधा है ...
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