राधिका काकी नहीं रही। ये भी कोई जाने की उम्र होती है क्या? बमुश्किल अभी पैंतालीस-छियालीस साल ही तो उम्र रही होगी और इतने कम उम्र में ही दुनिया को अलविदा कहना कुछ हज़म नहीं हुआ। भले ही उम्र कम थी पर अपने तीन पोते देख कर गयी।भरा-पूरा परिवार छोड़ कर गयी।तीन बेटे और एक छोटी सी दस-बारह बरस की बेटी। गांव में कुछ हो न हो शादी पहले हो जाती है। लड़कियाँ बहु बनकर घर में आती हैं वो माँ बन कर आई थी। मौसी तो पहले से थी पर इस बार माँ बन कर आई। पवन कुमार की माई हाँ वो अपने ससुराल इसी पहचान के साथ आई। कुछ साल बाद परदेसी पैदा हुए। क़रीब दस साल बाद मक्कूऔर फिर बिक्की। यानि तीन लड़के और एक बेटी। भरा पूरा परिवार। बड़ी बहु आई। पोते हुए। जिस उम्र में बड़े घर की लड़कियों की शादी होती है उसी उम्र में वो दादी बनी। मज़ाल क्या बहु पोतों को डाँट दे। परदेसी की भी शादी हुई। अवध में गौने का रिवाज़ होता है। अभी इसी साल शादी हुई है पर गौना नहीं आया है। बहू के आने की तैयारियाँ चल रही थीं कि सारी की सारी तैयारियां धरी की धरी रह गईं। बेटे के गौने की तैयारी थी पर खुद ही दुनिया से विदा ले ली।
मेरे मीता (काकी के पति) की दो शादियाँ हुईं। पहली पत्नी बड़े बेटे के जन्म के कुछ साल बाद ही स्वर्ग सिधार गई। फिर दूसरी शादी राधिका काकी से हुई। मीता मेरे पापा से बड़े हैं पर हमारे घर के हर बच्चे के वो मीता(दोस्त) बन जाते हैं। मीता हैं बहुत ज़िंदादिल इंसान। अल्हड़......मस्त। पापा के कॉलेज के दिनों के अच्छे साथी रहे। फिर रोज़ी-रोटी की तलाश में मुम्बई यात्रा।फिर वहीं एक अलग दुनिया बनी। मीता के साथ सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये रहा कि वे न तो अपनी पहली पत्नी को अंतिम विदाई दे सके, न माँ को और न ही पिता को...और जाते-जाते काकी को भी न देख सके। कल भी वो मुम्बई में ही थे.....अब गांव जा रहे हैं। बड़ा बेटा पवन भी दिल्ली से निकल चुके हैं शायद घर पहुँच भी गए होंगे। आज ही अंतिम विदाई है।
दुनिया छोड़ने के आधे घण्टे पहले तक बिलकुल स्वस्थ थी। मधुमेह था पर नियंत्रण में था। अम्मा और मम्मी से घण्टों बातें की फिर अम्मा से कहा कि- "अम्मा अब हम जाइत है।"
घर गई फिर अचानक से दर्द उठा। बहू को बुलाकर कहा कि- "साँस नाहीं लै पाइत है। अब हम बचब नाहीं। लड़िकन के सम्हारे।"(अब मैं बचुँगी नहीं, बच्चों की देख-भाल ठीक से करना)।
अंतिम यात्रा तक यही कहानी थी। अभिनय पूरा हो चुका था...पटकथा में अब कोई संवाद बाक़ी नहीं रहा। पर्दा गिर गया। अंत्येष्टि की तैयारी हो रही है....बड़ा बेटा अब तक घर पहुँच चुका होगा।
मेरी बहिन ने मुझे मैसेज़ किया कि भैया पवन कुमार भइया की मम्मी मर गईं। सन्न रह गया। आंसू आ गए। हमारे परिवार से उसे बहुत प्यार था। हमें भी बहुत मानती थी। जब गांव पहुँचता था तो देखते ही खुश हो जाती थी। यही कहते हुए बुलाती- अरे हमार बाऊ! आइ गयो लाला।
आज दुःख हो रहा है। कल आंसू रोक नहीं सका। काकी अब नहीं है। दुःख सिर्फ इस बात का है कि अभी मक्कू और बिक्की बहुत छोटे हैं। माँ के बिना तो एक पल भी जीना मुश्किल होता है इन्हें तो माँ छोड़ कर चली गई। कल अम्मा काकी को देखने गई थी। मक्कू अम्मा के पैर पकड़ कर रोने लगा।अम्मा काँप उठी। घर फोन किया तो अम्मा ने उदास मन से सब कुछ कहा।
दो छोटे बच्चे जिन्होंने अभी दुनिया भी ठीक से दुनिया भी नहीं देखी उनके लिए ये आघात सहना कितना वेदना पूर्ण है। माँ। बहुत दुःखी है।
अजीब सी ज़िन्दगी है कब ख़त्म हो जाये पता ही नहीं चलता।
रह जाती हैं तो बस यादें। बहुत धोखेबाज़ ज़िन्दगी है। कुछ भरोसा नहीं इसका....जो लम्हा सामने है वही सब कुछ है। अगल-बगल सब कुछ ख़्वाब। कुछ भी शाश्वत नहीं..... ज़िन्दगी भी किसी सपने की तरह है.....आँख खुली सपना टूटा.....पता नहीं क्या है ज़िन्दगी।
किसी शायर ने सच ही कहा है-
ज़िन्दगी क्या है?
फ़क़त मौत का टलते रहना।।
मेरे मीता (काकी के पति) की दो शादियाँ हुईं। पहली पत्नी बड़े बेटे के जन्म के कुछ साल बाद ही स्वर्ग सिधार गई। फिर दूसरी शादी राधिका काकी से हुई। मीता मेरे पापा से बड़े हैं पर हमारे घर के हर बच्चे के वो मीता(दोस्त) बन जाते हैं। मीता हैं बहुत ज़िंदादिल इंसान। अल्हड़......मस्त। पापा के कॉलेज के दिनों के अच्छे साथी रहे। फिर रोज़ी-रोटी की तलाश में मुम्बई यात्रा।फिर वहीं एक अलग दुनिया बनी। मीता के साथ सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये रहा कि वे न तो अपनी पहली पत्नी को अंतिम विदाई दे सके, न माँ को और न ही पिता को...और जाते-जाते काकी को भी न देख सके। कल भी वो मुम्बई में ही थे.....अब गांव जा रहे हैं। बड़ा बेटा पवन भी दिल्ली से निकल चुके हैं शायद घर पहुँच भी गए होंगे। आज ही अंतिम विदाई है।
दुनिया छोड़ने के आधे घण्टे पहले तक बिलकुल स्वस्थ थी। मधुमेह था पर नियंत्रण में था। अम्मा और मम्मी से घण्टों बातें की फिर अम्मा से कहा कि- "अम्मा अब हम जाइत है।"
घर गई फिर अचानक से दर्द उठा। बहू को बुलाकर कहा कि- "साँस नाहीं लै पाइत है। अब हम बचब नाहीं। लड़िकन के सम्हारे।"(अब मैं बचुँगी नहीं, बच्चों की देख-भाल ठीक से करना)।
अंतिम यात्रा तक यही कहानी थी। अभिनय पूरा हो चुका था...पटकथा में अब कोई संवाद बाक़ी नहीं रहा। पर्दा गिर गया। अंत्येष्टि की तैयारी हो रही है....बड़ा बेटा अब तक घर पहुँच चुका होगा।
मेरी बहिन ने मुझे मैसेज़ किया कि भैया पवन कुमार भइया की मम्मी मर गईं। सन्न रह गया। आंसू आ गए। हमारे परिवार से उसे बहुत प्यार था। हमें भी बहुत मानती थी। जब गांव पहुँचता था तो देखते ही खुश हो जाती थी। यही कहते हुए बुलाती- अरे हमार बाऊ! आइ गयो लाला।
आज दुःख हो रहा है। कल आंसू रोक नहीं सका। काकी अब नहीं है। दुःख सिर्फ इस बात का है कि अभी मक्कू और बिक्की बहुत छोटे हैं। माँ के बिना तो एक पल भी जीना मुश्किल होता है इन्हें तो माँ छोड़ कर चली गई। कल अम्मा काकी को देखने गई थी। मक्कू अम्मा के पैर पकड़ कर रोने लगा।अम्मा काँप उठी। घर फोन किया तो अम्मा ने उदास मन से सब कुछ कहा।
दो छोटे बच्चे जिन्होंने अभी दुनिया भी ठीक से दुनिया भी नहीं देखी उनके लिए ये आघात सहना कितना वेदना पूर्ण है। माँ। बहुत दुःखी है।
अजीब सी ज़िन्दगी है कब ख़त्म हो जाये पता ही नहीं चलता।
रह जाती हैं तो बस यादें। बहुत धोखेबाज़ ज़िन्दगी है। कुछ भरोसा नहीं इसका....जो लम्हा सामने है वही सब कुछ है। अगल-बगल सब कुछ ख़्वाब। कुछ भी शाश्वत नहीं..... ज़िन्दगी भी किसी सपने की तरह है.....आँख खुली सपना टूटा.....पता नहीं क्या है ज़िन्दगी।
किसी शायर ने सच ही कहा है-
ज़िन्दगी क्या है?
फ़क़त मौत का टलते रहना।।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-12-2015) को "सहिष्णु देश का नागरिक" (चर्चा अंक-2188) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत भावुक लेखन. सच में जो चला जाता है उसे क्या जो रह जाता है तमाम उम्र की पीड़ा सहता है. ज़िन्दगी और मौत दोनों का भरोसा नहीं.
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