शनिवार, 26 सितंबर 2015

कंदर्प का संहार होना है...


एक कम्पन हो रहा मेरे
ह्रदय में
मेरे विखण्डन को कोई 
आतुर हुआ है,
इस तरह उद्विग्न है स्वासों 
का प्रक्रम,
जैसे यम ने आज ही सहसा 
छुआ है,
मैं बना हूँ लक्ष्य संभवतः 
प्रलय का
आज मेरे दर्प का उपचार 
होना है,
युगों से जिस नेह ने जकड़ा 
मुझे था,
आज उस कन्दर्प का संहार 
होना है।।
-अभिषेक शुक्ल
(प्रस्तुत पंक्तियाँ मेरी कविता "अविजित दुर्ग" के आगे की कड़ी है)

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-09-2015) को "सीहोर के सिध्द चिंतामन गणेश" (चर्चा अंक-2111) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. नेह के पाश से बाहर आने की चाह या मजबूरी ....
    बहुत ही सुन्दर रचना बन पड़ी है ...

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