मैं अविजित दुर्ग हूँ अपने समय का
सैकड़ों सेनाएं थक कर हार बैठीं,
किन्तु टूटा नहीं मेरा एक कण भी
धैर्य साहस वीरता सब वार बैठीं।
किन्तु अब मैं स्वयं ही फटने लगा हूँ
चल रहा एक द्वंद्व और एक युद्ध मुझमें,
शांति और उत्पात का संगम बना हूँ
आज गुण-अवगुण सभी हैं क्रुद्ध मुझमें।।
-अभिषेक
(क्रमशः)
बहुत सुंदर .
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : प्रकृति से साहचर्य का पर्व : करमा
aaj gun avgun sabhi hai kruddh mujhme ...vartmaan yuwa mansikta ko paribhasit krti ye umda line ..shubhkamnaye
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-09-2015) को "अगर ईश्वर /अल्लाह /ईसा क़त्ल से खुश होता है तो...." (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कोई भी दुर्ग उसकी नीव के पत्थर से मजबूत नहीं होती ...समय की मार सब पर पड़ती है एक दिन ...सबकुछ नश्वर है ....बहुत अच्छी प्रस्तुति
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