शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

साहित्य मंथन

यदि सारे साहित्यकार एक-दूसरे की घृणित
आलोचना छोड़कर कुछ सकारात्मक कार्य
करने लगें, नए प्रतिभाओं को हेय दृष्टि से न
देखकर उनकी अनगढ़ प्रतिभा को गढ़ें, सुझाव दें
तथा भाषा को रोचक बनायें और नए
साहित्यिक प्रयोगों की अवहेलना न करें तो
हिंदी भाषा स्वयं उन्नत हो जायेगी।
बहुत दुःख होता है जब वरिष्ठ साहित्यकारों
की वैचारिक कटुता समारोहों में, सोशल
मीडिया पर प्रायः देखने-पढ़ने को मिलती है।
साहित्यकार कभी विष वमन् नहीं करता
किन्तु इन-दिनों ऐसी घटनाएं मंचों पर
सामान्य सी बात लगती हैं।
कुछ कवि जिन्हें वैश्विक मंच मिला है, जिन्हें
दुनिया सुनती है, जिन्होंने साहित्य का
सरलीकरण किया उनकी आलोचना करना
आलोचना कम ईर्ष्या अधिक लगती है।
किसी का लोकप्रिय होना उसकी
मृदुभाषिता,सहजता,व्यवहारिकता तथा
प्रयत्नों की नवीनता पर निर्भर करता
है....यदि आपको पीछे रह जाने का आमर्ष हो
तो मंथन कीजिये, अपने शैली पर ध्यान
दीजिये..कोई परिपूर्ण तो होता नहीं है,
सुधार सब में संभव है...आप अच्छा लिखेंगे.सुनायें
गे तो लोग आपको भी पढ़ेंगे,सुनेंगे।
भला कौन सा ऐसा व्यक्ति होगा जिसे
अच्छा साहित्य अच्छा न लगे।
कुछ साहित्यकार ऐसे भी हैं जिनके मनोवृत्ति
को माँ शारदा भी नहीं बदल पाईं भले ही वे
माँ के सच्चे साधक रहे हों।
कुछ समय पहले एक वरिष्ठ साहित्यकार का
सन्देश आया फेसबुक पर। वो सन्देश कम अध्यादेश
अधिक था मेरे लिए। सन्देश का सार ये था कि
उन्होंने मेरे ब्लॉग पर मेरी कविताएँ पढ़ीं,
आलेख पढ़े। पाठकों की, ब्लॉगर मित्रों की
टिप्पणियां भी पढ़ीं..और उसके बाद खिन्न
होकर मुझे सन्देश भेजा कि- मैं आज की पीढ़ी
को पढ़कर व्यथित हूँ। तुम्हीं लोग हिंदी
साहित्य को गन्दा कर रहे हो। उन्मुक्त
कविता लिखते हो। छंदों का ज्ञान नहीं
है..लयात्मक नहीं लिखते तुकबंदी करके स्वयं को
कवि कहते हो।कोई हिंदी प्रेमी कुछ पढ़ने के
लिए इंटरनेट खोले तो तुम्हारी तरह अनेक
साहित्य के शत्रु दिख जाते हैं।न शैली है न
रोचकता है कुछ भी लिखने लगते हो जो मन में
आये उसे पोस्ट कर देते हो चाहे उसका स्तर
कितना भी निम्न क्यों न हो। तुम छुटभैय्ये
ब्लॉगरों ने हिंदी को बदनाम कर के रख
दिया है।
मैंने भी प्रत्युत्तर दिया- गुरुदेव प्रणाम! क्षमा
चाहता हूँ आप मेरी रचनाओं से व्यथित हुए।
आपने जिन विषयों की ओर इंगित किया है मैं
उनमें सुधार लाने का प्रयत्न करूँगा किन्तु मेरी
एक समस्या है गुरुदेव कि मैं विधि विद्यार्थी
भी हूँ। कानून तो स्वयं पढ़ सकता हूँ पर मेरे
प्रवक्ता गण मुझे साहित्य नहीं पढ़ाते। कुछ
ऐसी विडम्बना है इस देश कि सर्वोच्च
न्यायालयों की भाषा आंग्ल भाषा है। प्रश्न
आजीविका का है इसलिए इसलिए इस विषय
को भी मैंने अंग्रेजी में ही पढ़ा है। हिंदी मुझसे
छूट सी गयी है।मुझे कोई हिंदी आचार्य मिल
नहीं रहा है जो मुझे व्याकरण सिखाये। आप
जैसे वरिष्ठ लोगों से पूछता हूँ तो कहते हैं कि
स्वयं अध्यन करो। केवल पुस्तक पढ़ने से ज्ञान आ
जाता तो अब तक संभवतः हर कुल में एक महर्षि
वाल्मीकि होते।आपने कहा की मेरे जैसे अधम
लोग साहित्य को दूषित कर रहे हैं..गुरुदेव
दूषित वस्तुओं को स्वच्छ करने का कर्तव्य भी
आप जैसे जागरूक लोगों पर होता है। मुझे भी
स्वच्छ कर दीजिये जिससे कि मैं भी स्वच्छता
फैला सकूँ। आपका बहुत-बहुत आभार मुझ पर इस
विशेष स्नेह के लिए।
गुरुदेव ने कोई उत्तर नहीं दिया किंतु मुझे
ब्लॉक अवश्य कर दिया।
यह कारण मेरे समझ में नहीं आया। मैंने कौन सी
उदण्डता कर दी? मैंने उन्हें कैसे आहत कर दिया?
कुछ दिन ये सोचता रहा कि क्या मैं अपनी
काव्यगत उच्छश्रृंखलता से कहीं सच में साहित्य
को दूषित तो नहीं कर रहा? क्या छन्दमुक्त
कविता, कविता की श्रेणी में नहीं आती.?
इन्ही प्रश्नों में उलझ कर कई दिन कुछ नहीं
लिखा। एक दिन शाम को कुछ पढ़ रहा था
तो अचानक ही रामायण का एक प्रसंग याद
आया। सीता माता का पता चल चुका था।
वानर सेना समुद्र में सेतु निर्माण के लिए लिए
प्रयत्नशील थी। कोई पहाड़ तो कोई पर्वत
तो कोई पत्थर फेंक रहा था समुद्र में, तभी
भगवान की दृष्टि एक नन्ही सी गिलहरी पर
पड़ती है जो स्थल पर लेटकर अपने सामर्थ्य भर
शरीर में रेत इकट्ठा करती और समुद्र के किनारे
उसी रेत को गिरा देती। उसका समर्पण देख
भगवान उसे प्यार से सहलाते हैं आशीष देते हैं और
देखते ही देखते बांध बन जाता है। त्रेता युग में
निर्मित वह सेतु आज भी यथावत है।
मुझे एक क्षण को आभास हुआ कि मैं वही
गिलहरी हूँ जो साहित्य के सागर में सेतु बना
रहा हूँ। निःसंदेह मेरा प्रयत्न अकिंचन है किन्तु
है तो।मैं तो अपने आराध्य की उपासना कर
रहा हूँ। मैं लिखना क्यों बंद करूं?
मुझे उनकी टिप्पणी अप्रिय नहीं लगी थी
किन्तु अपने कार्य पर संदेह होने लगा था।
ये केवल मेरी समस्या नहीं है। मेरे जैसे अनेक हैं
जो लिखते है टूटी-फूटी भाषा में...जिन्हें
सीखने की तीव्र इच्छा तो है पर सिखाने
वाले हाथ खड़ा कर लेते हैं। जो जानते हैं
जिनकी कलम पुष्ट है वे ही लोग बच्चों को कुछ
सिखाने से कतराते हैं। कोई स्वयं ही नहीं
सीख सकता न ही इस युग में आदि कवि
वाल्मीकि जैसा कोई बन सकता है।
गुरु को भारतीय दर्शन नें ईश्वर से श्रेष्ठ कहा
है..आप गुरुवत् आचरण करने लगें तो आप सबका
शिष्य बनने में नई पीढ़ी कब से आतुर है।
एक अनुरोध है साहित्य में पुरोधाओं से यदि
आप कुछ जानते हैं तो आपका सुझाव, आपका
मार्गदर्शन, आपका अनुभव हमारा संबल बन
सकता है...हमें सुधार सकता है।
आपके द्वारा प्रदत्त सकारात्मक वातावरण न
केवल हमारी लिपि,हमारी भाषा को
उन्नतिशील बनाएगा वरन हमारी संस्कृति
को सशक्त बनाएगा..क्योंकि लोग कहते हैं कि
हम बच्चे ही भारत के भविष्य हैं...इस भविष्य
को संवारने में आपका योगदान इस द्वीप के
लिए सदैव अविस्मरणीय रहेगा।
आपकी आपसी कटुता हमें भी आहत करती है।
साहित्य कला है, कला अर्थात आनंद...और
आनंद सदैव शाश्वत होता है।जब तक साहित्य
शाश्वत है तभी तक पठनीय है जब मन का
ईर्ष्या,द्वेष, दुर्भावना साहित्य में आने लगता
है तो साहित्य बोझिल लगने लगता है..कोई
दुःख नहीं पढ़ना चाहता कोई विषाद नहीं
सुनना चाहता...सब को उल्लास अभीष्ठ
है..प्रयोग करके तो देखिये...दुनिया सुनने के
लिए सदैव उत्सुक रहेगी।एक ऊर्जावान व्यक्ति
सदैव ऊर्जा बिखेरता है..आपके आस-पास आपसे
प्रभावित बिना हुए नहीं रह सकते..सरस्वती के
साधक अवसाद में रहें तो युग अंधकारमय हो
जाता है फिर भाषा की उन्नति तो स्वप्न
जैसा है...देश की ही अवनति प्रारम्भ हो
जाती है।
समदर्शक बनें..सहनशील बनें...गंभीर
बनें..निःसंदेह भाषा भी गौरवान्वित होगी
और देश भी...भविष्य आपकी प्रतिबद्धता पर
टिका है, आपके समर्पण पर टिका है....
सकारात्मकता की ओर बढ़ें.....लक्ष्य तक तो
पहुँच ही जाएंगे शनैः-शनैः।

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-09-2015) को "प्रबिसि नगर की जय सब काजा..." (चर्चा अंक-2104) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. अच्‍छा लिखा है आपने। मेरे ब्‍लाग पर आपका स्‍वागत है।

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    1. चम्पक में प्रकाशित आपकी कहानियों को हमेशा खोजता हूँ । आपका ब्लॉग बहुत अच्छा है।
      आभार सर।

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  3. सही कहा है .. सब वाद विवाद में उलझे रहते हैं ... साहित्य की चिंता नहीं है किसी को ....

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  4. कुछ कवि जिन्हें वैश्विक मंच मिला है, जिन्हें
    दुनिया सुनती है, जिन्होंने साहित्य का
    सरलीकरण किया उनकी आलोचना करना
    आलोचना कम ईर्ष्या अधिक लगती है।
    किसी का लोकप्रिय होना उसकी
    मृदुभाषिता,सहजता,व्यवहारिकता तथा
    प्रयत्नों की नवीनता पर निर्भर करता
    है....यदि आपको पीछे रह जाने का आमर्ष हो
    तो मंथन कीजिये, अपने शैली पर ध्यान
    दीजिये..कोई परिपूर्ण तो होता नहीं है,
    बहुत बेहतरीन श्री राजीव जी !! मन के विचार प्रभावित करने वाले हैं मित्रवर अभिषेक जी ! लेकिन आप काव्य रूप में क्यों लिखते हैं ? इसे गद्य रूप में लिखा जाना चाहिए था ?

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