शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

मेरा देश:विडम्बना और यथार्थ

भारत, मेरा भारत, मेरे सपनों का भारत, सुन कर कितना अच्छा लगता है कि हम विश्व के सबसे बड़े गणतांत्रिक राष्ट्र के नागरिक हैं, सोने पे सुहागा ये है की संसार का श्रेष्ठतम मानव निर्मित  संविधान  हमारे देश  का है. संविधान निर्माताओं  ने  दुनिया   भर  का  संविधान पढ़ा, क़ानून  पढ़ा, जहा से जो अनुकरणीय लगा  उसे भारतीय संविधान का  हिस्सा  बनाया.आज सबसे समृद्ध संविधान हमारा ही है. बात चाहे ''राज्य के नीति निर्देशक तत्वों'' की हो या मौलिक अधिकारों की हर जगह हम अपने आपको सबसे बेहतर पाते हैं.इतनी आज़ादी दुनिया के किसी भी देश ने अपने नागरिकों को नहीं दिया है जितनी आज़ादी हमे मिली है. संविधान ने अवसर सबको दिया है कभी आरक्षण के रूप में तो कभी निर्देश के रूप में. भारत की धर्मनिरपेक्षता को सबने सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया है फिर चूक कहाँ हो रही है?

                             क्या संविधान में नीति और निर्देश लिख देने भर से देश में उन्नति हो जायेगी? क्या किताबों में लिखे अधिकारों से हम सच में समर्थ हो जायेंगे? नहीं कभी नहीं. नियम तो लाख हैं भारत में पर उनका नियमन और नियंत्रण करने के लिए सरकार की मशीन में ही जँग लग गयी है. ये जँग आज की नहीं है वर्षों  पुरानी है. आजादी   के तुरंत  बाद  से ही बुराइयां पैठ बनाने लगीं थीं.
क्या अपने कभी सोचा है की क्यों सबसे बड़े लोकतंत्र का तमगा लेकर हमारे देश में लोकतंत्र का तमाशा बनता है? मतलब क्या होता है बड़ा होने का? खजूर भी तो बहुत बड़ा होता  है पर किस काम का? ये लोक तंत्र है कि भीड़तंत्र? आम जनता अपने प्रतिनिधियों को संसद भेजती है कि देश में विकास होगा, शांति होगी पर बदहाली के अलावा हमारे यहाँ है क्या?
    संसद में हमारे जन-प्रतिनिधि जनता से कितने वफादार हैं ये जनता भली-भांति जानती है फिर भी हर बार एक उम्मीद के साथ भेजती है कि अच्छे  दिन आएंगे पर जनता कि इस सोच को हर बार छाला जाता है क्योंकि संसद वाले जानते हैं कि भारतीय जनता को नचाया कैसे  जाता है.भारत में भ्रष्टाचार  के पीछे  तो सबसे बड़ा हाथ जनता का ही है...तो भला नेता क्यों न करे वो ठेंठ से ही बेईमान होते हैं.
                यदि पचास से अधिक एक्ट पास कर देने से कोई देश विकसित होता तो अब तक भारत अमेरिका से आगे चला गया  होता क्योंकि भारत में हर बात के एक्ट बन जाते हैं पर उनके नियमन और नियंत्रण  की तो कोई बात ही नहीं करता. जनता सरकार को कोसती है सरकार जनता को.हमारे देश में तो बस यही होता है. इस अव्यवस्था का परिणाम आम जनता को भुगतना पड़ता है.
बात तंत्र के विफलता की हो रही है तो सबसे पहले बात करते हैं जनता की क्योंकि लोकतंत्र की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण इकाई जनता ही होती है---
                                                           ''काली करतूत''
                             अभी कुछ दिन पहले एक दिल दहला देने वाली घटना हुई है लखनऊ के मोहनलाल गंज इलाके में.एक ३२ वर्षीया महिला के साथ कुकृत्य और उसके बाद उसकी नृशंसता से हत्या. लखनऊ जहाँ उत्तर प्रदेश के मुखिया का आधिकारिक निवास, जब मुखिया के रहने पर ये हाल है तो न होते तो क्या होता? मुखिया जी के पास बहाना  है की कुकर्म  तो सरकार ने नहीं किया. किसी आम नागरिक ने ही किया है. सही बात है ये आम नागरिक ही ऐसे ख़ास काम कर सकता है और फिर सरकार को हिज़ड़ा बताता है. अगर बलात्कारियों को मृत्यु दंड दिया जाए तो सबसे पहले उनके घर वाले कहेंगे की एक गलती के लिए मेरे लाल को फ़ासी चढ़ा रही है सरकार, पर यही गलती उनके बेटी के साथ कोई कर दे  तो पहाड़  टूट  पड़ता है. क्या दोगलापन  है समाज में? बात अपने पर आती है तो व्यवहार ,विचार  सब बदल जाते हैं. बेटा है वो कुछ करे तो गलती है और उसे माफ़ी  पाने  का अधिकार  है पर जरा  बेटी की सोचिये, जिसका  बलात्कार  होता है उसका  कभी मीडिया  तो कभी सरकार तो कभी पुलिस  बलात्कार करती है, बार-बार और हर बार.
लखनऊ में हैवानियत  की शिकार  महिला की नग्न  फोटोज  भी मीडिया  में खूब  पब्लिश  हुए. हर अखबार  के ऑफिसियल  साइट  पर फोटो  डाला  गया था. कितनी  घिनौनी  हरकत  थी ये? क्या भारतीय महिला इसी के योग्य है? जीते जी जान चली गयी जिस इज्जत को छुपाने में वो अखबारों की सुर्खियां बनी? हम भारतीयता का दम्भ भरते  हैं और इतनी  गिरी हुई हरकत करते  हैं, नग्न फोटो डालने  तो सरकार  नहीं  आई  थी  न? ये कुकृत्य किसी आम नागरिक का ही था  न? एक मृत नग्न महिला को ढकने की जगह उसकी नंगी फोटो सोशल मीडिया में डाला जाता है ये कौन सी डेमोक्रेसी है?
   यही आम जनता बलात्कार करती है और फिर न्याय की मांग करती है..कैसी माँ  है जो एक बलात्कारी को अपना बीटा  कहती  है..पहली  सजा  अगर घर से मिले  तो शायद  बलात्कार के केसेज  काम  हो  जाएँ.
     बलात्कार के लिए हमारे यह क़ानून तो है पर १७६८ वाला. नया बना ही नहीं क्योंकि जनता भी १७६८ वाली  है..असहाय कमजोर  और नामर्द .
                    लाख स्वाधीनता दिवस मन लें हम पर ये हैवानियत की जो मानसिक  गुलामी  हम कर रहें  हैं ये मिटने वाली नहीं है...१५ अगस्त आने वाला है, स्वाधीनता मिले  एक अरसा  हो गया  पर महिलाओं की दशा देखो ..वो तब भी असुरक्षित थीं  आज भी हैं, और जिस तरह से लोगों  की निष्क्रियता  है भविष्य  में भी रहेगी.
         बंद करो कायरों जान-गण-मन या वन्दे मातरम का गान, अपने आश्रितों  को छत नहीं दे सकते तो भारतीय होने  का स्वांग क्यों रचते हो..अपने को आर्य कहते हो और कर्म इतने  निन्दित करते हो...ऐसा न हो की आने वाली संतति अपने आपको ''भारतीय'' होने के लिए कोसें..शायद हमारे कर्मों का वही सबसे सटीक प्रतिफल होगा.
(आज दैनिक जागरण के सम्पादकीय पृष्ठ पर मेरा आलेख प्रकाशित हुआ है, ''मेरे देश की विडम्बना'' शीर्षक से ''जागरणजंक्शन'' वाले कोने में. यूँ तो रात काफी हो चुकी है और अखबार आमतौर पर लोग सुबह ही पढ़ते हैं लेकिन आप रात में भी पढ़ लीजिये...मुझे ख़ुशी होगी.. शुरूआती दिन हैं तो ख़ुशी कुछ ज्यादा ही मिलती है अपना नाम अखबार में देखकर...आपको देर से इसलिए बता रहा हूँ कि मुझे भी देर से पता चला और जब पता चला तो नेटवर्क आंखमिचौली खेलने लगा...प्रतिलिपि अपलोड कर रहा हूँ, पूरे आलेख की बस दस पंक्तिया ही प्रकाशित कि गयीं हैं, पर पूरा लेख मेरे ब्लॉग पर पढ़ा जा सकता है, मेरे ब्लॉग का पता है- www.omjaijagdeesh.blogspot.com)

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (16-08-2014) को “आजादी की वर्षगाँठ” (चर्चा अंक-1707) पर भी होगी।
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    हमारी स्वतन्त्रता और एकता अक्षुण्ण रहे।
    स्वतन्त्रता दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत अच्छा, इसे जारी रखो

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  3. अच्छे दिन अच्छे भारत के अच्छा मुहावरा । बहुत खूब ।

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  4. ऐसी बातें १५ अगस्त नहीं हर पल याद आती हैं ...

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