मंगलवार, 8 जुलाई 2014

"प्रपंचमेव जयते”

भारत के पिछड़ेपन के पीछे प्रपंच का बड़ा योगदान है.आने वाली कई पीढ़ियां इसके लिए अपने पूर्वजों की आभारी रहेंगी.देश में कई आफतें आयीं कभी मुग़लों का आक्रमण कभी मंगोलों का, इतना भी कम नहीं था कि गोरे आ टपके , सारा भारतीय ढांचा बदल के रख दिया. बैल गाडी की जगह रेलगाड़ी ने ले ली सब कुछ बदल गया पर यथावत यदि कुछ रहा है तो वह है भ्रष्टाचार और प्रपंच. वैसे किसी अँगरेज़ महाशय ने कहा भी है कि ”भारतीय स्वाभाव से ही भ्रष्ट होते हैं.’ सच क्या है या झूठ क्या है इसे तो अब पूरी दुनिया जानती है, वफादार तो हम अपने देश के प्रति नहीं होते कर्त्तव्य के प्रति क्या होंगे.खैर बात प्रपंच की हो रही थी भ्रष्टाचार की बात बाद में कर लेंगे. प्रपंच हमारे देश का ”राष्ट्रीय कार्य” है’, मैं प्रधान मंत्री बना तो अनुच्छेद ५१ अ ”मौलिक कर्तव्य” में एक और कर्तव्य जोडूंगा और इस अनुच्छेद में वर्णित कर्तव्य कुछ यूँ होगा, भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य होगा कि वह;- ”प्रपंच धर्म का पालन करे तथा प्रपंचियों के एकता तथा अखंडता की रक्षा करे और इस धर्म को अक्षुण्ण बनाये रखे.” हर राष्ट्र का एक धर्म होता है.पुराणों में तो धर्म को राष्ट्र का पति कहा गया है, आज भले ही पुराण थोड़े अप्रासंगिक सिद्ध हो चुके हैं पर राष्ट्र धर्म की कमी खलती है.’पंथ निरपेक्ष ‘, ‘धर्म निरपेक्ष बस कहने में ही अच्छा लगता है. राष्ट्र का एक धर्म होना चाहिए. हिन्दू -मुस्लिम राष्ट्र नहीं क्योंकि भारत में ऐसी संकल्पना आधार हीन है और असंभव भी. वह धर्म राष्ट्र धर्म बनने योग्य नहीं है जिसमे आस्था थोपी गयी हो. धर्म ऐसा हो जिसकी सदस्यता ऐच्छिक हो. भारत में सनातन धर्म के समकालीन ही एक और धर्म का अभ्युदय हुआ ”प्रपंच धर्म का, अब सनातन धर्म के प्राचीनता पे तो किसी को संदेह नहीं होना चाहिए. प्रपंच धर्म तो वर्षों से फल-फूल रहा है, मज़े की बात यह है इस धर्म के अनुयायी सारे भारतवासी हैं..शायद ही कोई स्त्री या पुरुष हो जिसे इस धर्म से परहेज़ हो, तीसरे तबके के बारे में क्या कहु ..उनसे ज़रा संवादहीनता की स्थिति है.
विश्व का कोई धर्म इतने बड़े पैमाने पर नहीं मनाया जाता यह गौरव सिर्फ प्रपंच धर्म को मिला है.इस धर्म के अनुयायी भारत के हर घर में मिलेंगे…संविधान से ”सेक्युलर” शब्द हटा कर प्रपंच शब्द जोड़ देना चाहिए भारतियों को इससे कोई आपत्ति नहीं होगी. यह धर्म मनोरंजन भी करता है. शाम या सुबह जब भी वक्त मिले घर के बहार कुर्सी डाल कर बैठ जाइए ‘कॉमेडी नाइट्स विथ कपिल ” देखने की जरूरत नहीं पड़ेगी, बशर्ते आप थोड़े से मितभाषी हों. व्यवसाय का उदाहरण तो आपको टी.वी खोलते ही दिखने लगेंगे, कभी कलर्स तो कभी स्टार प्लस…और सरे न्यूज़ चैनल तो प्रपंच की कमाई ही कहते हैं, बात चाहे ‘ आज तक ‘ की हो या न्यूज़ २४ की..सब का धंधा इसी से फलता-फूलता है. भारतियों में तो इस धर्म का क्रेज़ है, मोहल्ले की बातें देखते -देखते कब पूरे गावं में फैलती हैं पता ही नहीं चलता . एक कान से दुसरे कान तक बाते कुछ ऐसे पहुचती हैं कि जैसे बातों की रफ़्तार मन से तेज़ हो..बात कोई भी हो बस होनी चाहिए. कभी -कभी तो वक्ता के कहने का आशय भी समझ में नहीं आता फिर भी लोग मज़े से सुनते हैं. काश ये एकाग्रता भगवान के लिए हो जाए तो तो स्वर्ग तो छोटी चीज़ है सायुज्य भी मिल जाए. प्रपंच धर्म के अनुयायी ”प्रपंची ” कहलाते हैं.इनकी नज़रे बड़ी पैनी होती हैं.समसामयिक घटनाओं पर इनकी पकड़ तो काबिले तारीफ होती है.घटना किसी एक के सामने होती है पर देखते -देखते पूरा गावं सच से रूबरू हो जाता है, ख़ास बात ये है की इस धर्म का प्रत्येक सदस्य घटनाओं का कुछ ऐसा सजीव वर्णन करता है कि सुनने वाले को लगता है सब कुछ उसके सामने ही हो रहा है. एक्शन, इमोशन, ड्रामा और खूब सारा मसाला बस ढंग का कोई प्रपंची मिल जाए…वादा है दोपहर में सीरियल देखना छोड़ देंगे आप. लोग झूठ में ही कहते हैं की प्रपंच बस महिलाओं का काम होता है.ये पुरुषों द्वारा महिलाओं के बारे में फैलाई गयी झूठी अफवाह है. हैं मेरे गावं के कुछ वयोवृद्ध व्यक्ति लोग जिनसे बात करते समय यही डर लगता है कि कब ये अपने जवानी के दिनों वाली हरकतें सुननी सुरु कर दें, कुछ तो उम्र का असर कुछ मानसिकता का बुढ़ापे में इंसान और प्रपंची हो जाता है, जवानी के जितने अरमान अधूरे रह जाते हैं सबको बुढ़ापे में पूरी करने की प्रबल इच्छा होती है पर क्या करें..बात के अलावा कुछ कर नहीं सकते. आज तो यह धर्म और आधुनिक हो गया है पर कल का पता नहीं..लोग शिक्षित हो रहे हैं और व्यस्त भी…सब अपनी-अपनी दुनिया में मस्त हैं पर इनकी मस्ती इस धर्म के लिए खतरा है…जो व्यस्त हुआ वो प्रपंची नहीं रहा…सफलता इस धर्म की सदस्यता को निरस्त कर देती है….पर शायद भारत के ”अच्छे दिन’ की तरह इस धर्म के अंत का दिन कभी न आये….ये धर्म चिर पुरातन है और चिर नवीन भी…आशा है आने वाले दिनों में इसके अनुयायी बढ़ेंगे……तब तक के लिए..जय प्रपंच…जय भारत!!! (दैनिक जागरण वाकई सबसे अच्छा समाचार पत्र है, अच्छा इसलिए कि मेरे लेख को ये कचरे के डिब्बे में नहीं फेंकते...छाप देते हैं, खुश हूँ एक बार फिर सम्पादकीय पृष्ठ पर जगह मिली..कोने में ही सही...पर कहीं तो हूँ....देखता हुँ कि कब-तक मुझे छोटे कोने से ही संतोष करना पड़ेगा...कोशिश जारी है..दुआ कीजिये) published on dainik jagran..

10 टिप्‍पणियां:

  1. सच खा है ... जितना प्रपंच अपने देश में उतना कहीं नहीं देखने को मिलता ...
    हर कोई अपने लिए ज्यादा से ज्यादा दोहन चाहता है ... कुछ को करने का प्रपंच करता है ...

    जवाब देंहटाएं
  2. जवानी के जितने अरमान अधूरे रह जाते हैं सबको बुढ़ापे में पूरी करने की प्रबल इच्छा होती है पर क्या करें..बात के अलावा कुछ कर नहीं सकते. आज तो यह धर्म और आधुनिक हो गया है पर कल का पता नहीं..लोग शिक्षित हो रहे हैं और व्यस्त भी…सब अपनी-अपनी दुनिया में मस्त हैं पर इनकी मस्ती इस धर्म के लिए खतरा है…जो व्यस्त हुआ वो प्रपंची नहीं रहा…सफलता इस धर्म की सदस्यता को निरस्त कर देती है….पर शायद भारत के ”अच्छे दिन’ की तरह इस धर्म के अंत का दिन कभी न आये….ये धर्म चिर पुरातन है और चिर नवीन भी…आशा है आने वाले दिनों में इसके अनुयायी बढ़ेंगे……तब तक के लिए..जय प्रपंच…जय भारत!!! क्या बात है अभिषेक जी ! वैसे अगर प्रपंच को राष्ट्रिय धर्म , बल्कि अंतरराष्ट्रीय धर्म बना दिया जाए तो ज्यादा ठीक है , आपस में कोई लड़ेगा भी नहीं ! सब का एक ही मूलमंत्र रहेगा भ्रष्टाचार करिये और उसे छुपाने के लिए प्रपंच रचिए ! गज़ब

    जवाब देंहटाएं
  3. शुभकामनाऐं बड़े पन्ने की ओर के लिये अग्रसर होने के लिये :)

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा आज गुरूवार (10-07-2014) को 'उम्मीदें और असलियत { चर्चा - 1670 } पर भी है !
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    जवाब देंहटाएं
  5. आभार आप सबका, मेरी सामान्य सी रचना को महत्व देने के लिए...आपकी प्रतिक्रियाएं मनोबल बढाती हैं....बहुत -बहुत आभार!

    जवाब देंहटाएं
  6. अब सनातन धर्म के प्राचीनता पे तो किसी को संदेह नहीं होना चाहिए.....वाकई। प्रपंच के सन्‍दर्भ में पूरे भारतीय मानस का गहन चिन्‍तन उकेरा है। आलेख प्रकाशन की बधाई। शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  7. यही तो विडंबना है ..... प्रपंचों के खेल में असली मुद्दे ही खो गए .... लिखते रहें

    जवाब देंहटाएं
  8. आज शायद प्रपंच हमारा राष्ट्रीय धर्म बन चुका है...बहुत सुन्दर आलेख...शुभकामनायें!

    जवाब देंहटाएं