एक पुरानी उक्ति है कि जैसे जैसे भौतिकता बढती जाती है हम नैसर्गिकता से दूर होते जाते हैं, फिर कश्मीर कि मनोरम घाटियाँ नहीं अपने वातानुकूलित कमरे अधिक मनोहर जान पड़ते हैं. विज्ञान ने हमे अनन्त सुख दिए हैं किन्तु कही न कही हमसे हमारे प्रकृति को छीन लिया है, प्लास्टिक कि चिड़िया हमारे गौरैया से अधिक अच्छी लगने लगती है, क्योंकि प्लास्टिक कि गौरैया हाथ आती है और असली गौरैया हमसे इतना डर गयी है कि हाथ नहीं आती और जो हाथ में नहीं उसका ध्यान इंसान क्यों रखे? आपने कहावत तो सुनी होगी न ''अंगूर खट्टे हैं''.
गौरैया के अचानक से विलुप्त होने के कई कारण हैं, उनमे से सबसे बड़ा कारण है कि पर्यावरण असंतुलन. शायद अन्य विलुप्तप्राय पंछियों कि तरह इसमें भी प्राकृत से संघर्ष करने कि छमता कम हो. बहुमंजिली इमारतें जिनमे चीटियों के रहने कि जगह होती नहीं है उनमे बेचारी गौरैया कहा से अटे? गावों में तो ये वर्षों तक यथावत रह सकती हैं क्योंकि सरकार आज भी गावों की उपेक्षा करती आ रही है, और कल भी करेगी जब भौतिकता नहीं, तो नैसर्गिकता तो रहनी ही चाहिए. दिल्ली सरकार ने तो शायद इसकी सुरक्षा के लिए इसे राज्य पंछी घोषित कर दिया है, पर मुझे नहीं लगता जहाँ नारी सुरक्षित नहीं वहां बेचारी गौरैया सुरक्षित रहेगी?
मानव इतना स्वार्थी हो गया है की अपने स्वार्थ और सुख के लिए कुछ भी कर सकता है, भले ही ये सुख छणिक हो. कुछ उत्तेजक दवा बनाने वाली कंपनियां इन छोटे पंछियों को मार कर उत्तेजक दवाएं बनती हैं जो कथित रूप से व्यक्ति की शारीरिक छमता बढ़ातीं हैं, इन दवाओं की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत बहुत अधिक है, इंसान की फितरत है की वो पैसों के लिए कुछ भी कर सकता है. छाणिक शारीरिक सुख के लिए किसी के जीवन का अंत कहाँ उचित है? वैसे भी पुरुषार्थ बढ़ने कि दवा बाजारों में नहीं मिलती, व्यक्ति इसे लेकर पैदा होता है.
जिनके साथ हमारा बचपन बीता हम जिनके साथ हम बड़े हुए उनके बिना ही बुढापा आएगा ये तो तय है, हमारी आने वाली पीढियां बस किताबों में पढ़ेंगी की गौरैया नाम की चिड़िया हुआ करती थी.खैर उनकी रूचि भी जीवित जंतुओं में नहीं होंगी क्योंकि तब तक विज्ञान अपने चरम पे होगा और कृत्रिमता का प्रभाव और व्यापक होगा. फिर प्लास्टिक प्रकृति पर भारी पड़ेगा, इतना भारी की शनैः शनैः नैसर्गिक वस्तुएं अपना अस्तित्व खो देंगी.
'' जब विज्ञान अपने चरम पर होता है तो विध्वंस भी अपने चरम पर होता है.'' देखते हैं प्रकृति की जीत होती है या पुरुष की? भौगोलिक असंतुलन से कोई अपरिचित नहीं है पर्यावरण वैज्ञानिक काम तो कर रहे हैं पर कागजों में, अन्य देश तो अपने चहुमुखी विकास की ऒर ध्यान दे रहे हैं किन्तु भारत में केवल बात होता है, काम नहीं. पर्यावरण मंत्रालय जिनके हाथ में है उनका इससे कुछ भी लेना - देना नहीं है, जिस जगह पे वैज्ञानिक होना चाहिए वहां सरकार ने नेता बैठा दिया है, भारत में मेरे ख्याल से मंत्रालय निलाम होता है जो जितना अधिक दाम दे मंत्रालय उसका.
कब हमारी सोच व्यक्तिवादी न होकर राष्ट्रवादी होगी? जब हम लुट चुके होंगे या भिखारी बन चुके होंगे? आज गौरैया लुप्त हो रही है भारत से , कल भारत लुप्त होगा दुनिया से जागो भारत वासियों, क्यों पड़ते हो नेताओं के झूठे चक्कर में? कभी साम्प्रदायिकता में फंसते हो तो कभी वादों में. देश जितना नेताओं का है उससे कही अधिक हमारा है हम अपने देश की रक्षा करने में सक्षम हैं, देश के दुश्मनों को एकजुट होकर निकलते हैं,क्योंकि यदि हम कुछ और दिन शांत रहे तो ये हमें सदा के लिए शांत कर देंगे.
कुछ काम हम सरकार के सहयोग के बिना भी कर सकते हैं, जैसे खाली जगहों पर पेड़ लगाकर, अवैध पेड़ों के काटन पर रोक लगाकर,और लोगों को जागरूक कर के कि यदि प्रकृति नहीं रहेगी तो हम भी नहीं रहेंगे, हरियाली रहेगी तो समृद्धि भी रहेगी, मानव जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ है कि वह कृत्रिमता से ऊब जाता है, जो सुख प्रकृति में निहित है वह कही और नहीं, हम अपने पर्यावरण कि रक्षा कर के अपने आने वाले पीढ़ियों को सब कुछ वास्तविक देंगे कृत्रिम नहीं क्योंकि कृत्रिमता कभी स्थायी नहीं होती, और हम भारतियों को कुछ भी अस्थायी पसंद नहीं आता.
गौरैया घर-घर में आये खरीदना न पड़े, वैसे भी चीजें बहुत मंहगी हो गयी हैं फैसला आप कीजिये, कि गौरैया खरीदेंगे या बुलायेंगे?