शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

अनुलग्नक


कभी कभी परिस्थितियां व्यक्ति को मूक बना देती हैं. चाह के भी कुछ कह पाना बड़ा मुश्किल होता है, विधाता कुछ लोगों को अद्भुत तर्क शक्ति से समृद्ध करके धरा पर भेजते हैं. ऐसे महान लोगों को न तो कोई कुछ समझा सकता है, न ये समझना चाहते हैं. क्योंकि जब इन्हें औसत बुद्धि का कोई मानव कुछ समझाना चाहता है तो ये उसे अपने अकाट्य तर्कों से चुप कर देते हैं. ये भी सत्य है की अधिक आत्मविश्वास अहंकार का कारण होता है. यह ध्रुव सत्य नहीं है की हम हमेशा सत्य ही होंगे, त्रुटियाँ सबसे होती हैं चाहे वो कितना भी बुद्धिमान क्यों न हो. सदैव अपने निर्णय सर्वश्रेष्ठ नहीं होते औसत बुद्धि के लोग भी प्रकांड पंडितों से अधिक बुद्धिमानी का कार्य करते हैं. अपने विचारों को शाब्दिक अर्थ देना उचित है उस सीमा तक की जब तक शब्द किसी का अहित न करे , अथवा कष्ट न पहुचाये, शब्द जितने सरल होते हैं उनका प्रभाव उतना ही गहरा होता है, किन्तु कुछ अतिबुद्धिमान व्यक्ति अपना पांडित्य सिद्ध करने हेतु व्यंगार्थक, अथवा कुछ विशिष्ट शब्दों का चयन करते हैं जो श्रोता के मन में अकारण ही क्रोध उत्तपन करता है. रसायन शास्त्र में अनुलग्नक और पूर्वलाग्नक का बड़ा महत्व है, कुछ लोगो को सरल भाषा आती ही नहीं, उसमे अनायास ही पूर्व्लाग्नक और अनुलग्नक सम्मिलित करते है, फलतः अर्थ का अनर्थ हो उठता है . किसी भी प्रकार का अहंकार विषाद का कारण बनता है. अहंकार सदैव दुक्दायी होता है, और अहंकार ही व्यक्ति को अहंकार पतन की ओर ले जाता है... अपनी उपलब्धियों पर गर्व करना उचित है किन्तु अहंकार करना सर्वथा अनुचित . कोई भी पूर्ण नहीं होता , हम मानव हैं भगवान नहीं, अहंकार से मानव जीवन के परम लक्ष्य अर्थात निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती, अतः अहंकार से मुक्त रहो , भारतीयता के मार्ग पर निर्भीक होकर बढ़ो , पथ की सबसे बड़ी बाधा व्यक्ति का भय होता है, भय त्यागो...उन्मुक्त गगन में स्वछन्द उड़ान भरो..अन्तरिक्ष प्रतीक्षा में है ..........
छायांकन - श्वेता शुक्ला

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

संकल्प


कैसा यह मेरा जीवन है,
 अर्थवान भी अर्थहीन भी,
 बिन बूंदों के बादल जैसा,
 आवश्यक भी महत्वहीन भी ,
 जडवत हूँ चेतन भी हूँ,
 किन्तु चेतना सीमित है ,
जा सकता हूँ नभ पार अभी ,
 आशा भी अवलंबित है ,
 कई किरण हैं उस प्रकाश के ,
 जो जीवन का है गंतव्य ,
 किन्तु कही बाधा अटकी है,
 सीमित करती जो वक्तव्य ,
 मैं अक्सर डग-मग होता हूँ,
 नभ के उत्तेजित पवनों से,
 थक हार बैठता हूँ प्रायः,
 थल के दुखदाई वचनों से
 ये जग मेरे अनकूल नहीं ,
 मुझको अनुकूलन लाना है,
 सींचित यदि सत्य रहा मुझमें,
 तो जग को स्वर्ग बनाना है...