रविवार, 4 फ़रवरी 2024

मन का बंधन झूठ है

 कौन किसी के पास है, कौन किसी से दूर
किससे नाता नेह का, कौन यहां मजबूर?

किसका बंधन झूठ है, किसका बंधन सांच
कौन मोह में तप रहा, किसका नाता कांच?

कौन यहां मजदूर है, कौन यहां मलिकार
कौन बिराजे राजघर, कौन सहे फटकार?

मन बस निज से दूर है, मन बस निज के पास
मन से नाता नेह का, मन ही सबका खास।

मन का बंधन झूठ है, मन का बंधन सांच,
मनवा मन में तप रहा, मन का नाता कांच।

मन जग में मजदूर है, मन ही है मलिकार,
मनहि बिराजे राजघर, मन ही सहे फटकार।।

मन में लाखों झोल हैं, मन कितना अनजान,
मन में बइठा चोर है, मन बड़का बइमान।।


- अभिषेक शुक्ल

शुक्रवार, 18 मार्च 2022

मधूलिका, जयशंकर प्रसाद की अद्वितीय नायिका




कोशल का राजवैभव जिसे तुच्छ लगा वह मधूलिका थी. राजकीय अनुग्रह की ऐसी अवहेलना कृषक कुमारी ही कर सकती थी. भूमि उसकी थी, श्रम उसका था, राजा का कुछ नहीं था, राजविधान को छोड़कर.


महाराज जिस भूमि को देख लें वह उनकी. राष्ट्र नियम वही जिसे राजा ने तय किया है. राजकीय स्वर्ण मुद्राओं का ऐसा तिरस्कार कोशल के इतिहास में किसी ने नहीं किया था. 


जो विनिमय को तैयार नहीं, उसे विपणन से क्या प्रत्याशा?


महाराज का प्रलोभन अयाचित ही रहा.


सिंहमित्र ने राष्ट्र के लिए प्राणोत्सर्ग किया था. सर्वोच्च बलिदान, उसका संस्कार था. मधूलिका जानती थी कि यम से कैसा भय, स्वाभिमान के प्रदर्शन की यह परिणति हो सकती है. राजदंड का भय उसे कहां जिसकी नियति में इच्छा मृत्यु हो? 


मधूलिका, मधूक के पेड़ तले बैठी थी. एक निर्वासित राजकुमार को उससे प्रेम हो गया था.


मगध के विद्रोही निर्वासित राजकुमार अरुण, मधूलिका को वह सबकुछ देना चाह रहे थे जिसकी कल्पना ने उसे क्षणिक सुख दिया लेकिन दीर्घकालिक दासता का भान भी. अपने राष्ट्र पर शत्रु का आधिपत्य कहां स्वाभिमानी स्वीकारते हैं.


पिता का रक्त जगा तो राष्ट्र की बरबस सुधि आ गई. मधूलिका ने प्रेमी के षड्यंत्र की सूचना महाराज को दे दी. अरुण ने उसी भूमि पर युद्ध की अधारशिला रखी, जिसकी याचना मधूलिका ने राजा से की थी. राजद्रोह का एक ही दंड होता है, मृत्युदंड.


अरुण के लिए राजाज्ञा घोषित हुई कि मृ्त्युदंड दिया जाए. उसी समय मधूलिका के लिए पुरस्कार की घोषणा हुई. मधूलिका ने पुरस्कार में मृत्युदंड मांगा. उसने राष्ट्र धर्म भी निभाया और प्रीत भी. 


बरबस इस पेड़ को देखकर यह कहानी याद आ गई. कहानी लिखी है जयशंकर प्रसाद ने. शीर्षक है पुरस्कार. प्रसाद, सच में प्रसादांत कहानियां लिखते हैं. जो एक बार पढ़ ले, पढ़ने के सम्मोहन से कभी न निकल पाए.

मारे दुलारे भड़भाड़े कै बुकवा

 भड़भाड़ जानते हैं? मुझे इसका नाम हिंदी या अंग्रेजी में नहीं पता है. खोजने का मन भी नहीं है. अद्भुत फूल है यह. अम्मा या मम्मी से सुना है कि पहले जो लोग मिट्टी का तेल नहीं खरीद पाते थे उनके लिए यह उजाले का साधन था.

भड़भाड़ में फूल के अलावा फल भी लगता है. इसका फल देखने में बहुत सुंदर होता है. पौधा जब परिपक्व हो जाता है तब फल आने शुरू होते हैं. जब फल पक जाता है तब उसमें दरारें पड़ जाती हैं. फल के भीतर के कोष में चायपत्ती की आकार के दाने होते हैं. 

संरचना भी चायपत्ती के दानों की तरह. अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है. पहले मुझे लगता था कि यही चायपत्ती है.

भड़भाड़ के दानों को अगर महीन पीसा जाए तो इनसे तेल निकलता है. पहले लोग इसे इकट्ठा करते थे और तेल निकालते थे. खाने के लिए नहीं बल्कि दीया जलाने के लिए. कभी बहुत उपयोगी रहा भड़भाड़ अब खर-पतवार की तरह है. 

कांटेदार पौधा होता है इसलिए लोग इसे पनपने नहीं देते हैं. कुछ औषधीय गुण भी होते हैं इस पौधे में. अगर आंख उठी हो (कंजक्टिवाइटिस) तो इसका दूध बहुत लाभदायक होता है. जड़ों का इस्तेमाल भी प्राकृतिक पद्धति में चिकित्सक करते हैं.  

तमाम गुणों के बाद भी यह पौधा उपेक्षित है. हेय है. इंसानों की सारी प्रत्याशाएं ईश्वर भी पूरा नहीं कर पाता तो यह तो अंकिचन पौधा ठहरा. कोई बच्चा अगर बहुत बिगड़ जाए तो उसके लिए अवधी में एक कहावत कही गई है. मारे दुलारे भड़भाड़े कै बुकवा. बुकवा का अर्थ लेप होता है. शुद्ध हिंदी में इसे आलेप कहते हैं.

बिगड़े हुए बच्चों के संरक्षकों पर सारा दोष मढ़ा जाता है. लोग कहते हैं कि अभिभावकों के दुलार ने उन्हें बिगाड़ के रख दिया है. हिंदी में इस अवस्था के लिए कोई कहावत याद आती है? मुझे पता नहीं है कि किसी ने इसके लिए कुछ भी लिखा है. अवधी में बच्चों की इस स्थिति पर कई कहावतें कही गई हैं. अवधी में कहते हैं, 'मारे दुलारे भड़भाड़े कै बुकवा.'

अर्थ है कि दुलार में किसी को भड़भाड़ का लेप लगाना. अयाचित दुलार से लाभ हो न हो, नुकसान बहुत होता है. भड़भाड़ के लेप में कांटे हो सकते हैं, इससे कुछ फायदा नहीं हो सकता है. गड़ सकता है, चुभ सकता है. अधिकांश मामलों में माता-पिता भड़भाड़ का बुकवा नहीं लगाते, बच्चे खुद ही लगा लेते हैं अपने भविष्य पर. नुकसान होता है, इतना कि उसकी भरपाई न हो सके. जानबूझकर कांटो का लेप मूर्ख ही लगाते हैं. बचना चाहिए, मूर्ख बनने से.

...आखिर मूर्खता का क्या प्रयोजन?



गुरुवार, 3 मार्च 2022

प्रतिरोध की आवाज़ क्यों कर्कश लगती है?

 कभी-कभी कुछ काम इंसान अनायास ही कर बैठता है. कोई प्रयोजन पूछ ले तो भरसक उत्तर न सूझे. प्रयोजन होता भी नहीं है. जैसे यह सब लिखने का कोई प्रयोजन नहीं है, अनायास ही लिख रहा हूं. दो-तीन साल पहले तक लिखने की आदत थी. कभी-कभी कविता, अकविता, कहानी, निबंध या जो बन पड़ता, लिख देता था. मानता था कि लिखना अच्छी आदत है. पता नहीं कैसे आदत छूट गई. 

मतलब लिखना छूटा नहीं है, स्वांत: सुखाय लेखन छूट गया है. एक दिन किसी ने कहा कि लिखते क्यों नहीं हो. मैंने कहा कि लिखा नहीं जा रहा है. एक उस्ताद जैसे दोस्त ने कहा कि राइटर्स ब्लॉक का नाम सुना है. मैंने नहीं सुना था. बात टालनी थी मैंने कहा कि नहीं जनाता.

उन्होंने कहा कि एक अवस्था है, जिससे लिखने-पढ़ने वाले लोग ज़िन्दगी के किसी न किसी हिस्से में ज़रूर जूझते हैं. ठीक हो जाएगा लिखने लगोगे. ध्यान दिया तो कुछ ऐसा ही लगा. थोड़ा बहुत इसके बारे में ढूंढकर पढ़ा तो पता चला कि ऐसा होता है. राइटर्स ब्लॉक भी कोई बला है, इसे ज़रा देर से जाना.


मैं इन दिनों कुछ भी नया नहीं लिख रहा हूं. साहित्य के नाम पर दोहा नहीं लिखा जा रहा है. कुछ सीख भी नहीं पा रहा हूं. कई सारी उलझी चीज़ों में दिमाग उलझा है. ठीक उसी तरह जैसे समाज का एक बड़ा तबका मेंटल ब्लॉक से गुजर रहा है.

उसे कुछ न समझ आ रहा है, क्या करना है यह भी पता नहीं चल रहा है. क्या आस पास हो रहा है, इन सबमें उलझा है. अज्ञात डर खाए जा रहा है. लोगों के प्रति असहिष्णुता इतनी बढ़ गई है कि कुछ भी सुनने से पहले उसकी प्रतिक्रिया आ जाती है.

सच कहूं तो राइटर्स ब्लॉक से किसी एक शख्स को खतरा होता है. मेंटल ब्लॉक से समाज को. राइटर्स ब्लॉक ठीक हो य न ठीक हो लेकिन मेंटल ब्लॉकेज खुलनी चाहिए. तभी शायद बात बने.

(फोटो सोर्स- Flicker)

शनिवार, 23 अक्टूबर 2021

सरदार उधम: फ़िल्म नहीं, दस्तावेज़ है!

 इतिहास की भयावहता की वास्तविक गवाही जनश्रुतियां नहीं देतीं, इशारा ज़रूर कर देती हैं कि ऐसा हुआ होगा लेकिन जलियांवाला बाग नरसंहार अपनी जनश्रुतियों से कहीं ज़्यादा भयावह रहा होगा. किताबों से लेकर इतिहास के वैध दस्तावेज़ों तक, जनरल डायर के आदेश पर हुए इस हत्याकांड की भयावहता एक सी नज़र आती है.

शूजीत सरकार की फ़िल्म 'सरदार उधम' इस तरह से बन गई है कि उसी दौर में खींच ले जाती है. उन सारी बातों का ख़्याल रखा गया है, जिनके बारे में लोग पढ़ते-सुनते आए हैं. यह फ़िल्म कहीं भी अतिशयोक्ति नहीं लगी, घटनाएं थीं, उनके यथार्थ की चित्रण की कोशिश की गई है, जिसे माना जा सकता है कि ऐसा हुआ होगा.

नरसंहार वाली रात में उधम सिंह को भागते दौड़ते दिखाया गया है. कुछ सीन्स रुलाते हैं, कुछ इतने वीभत्स हैं जिन्हें देखकर कोई भी आंखें मूंद सकता है. सीन में बूढ़े हैं, बच्चे हैं, महिलाएं हैं, छोटी बच्चियां हैं, जिन पर दागी गई हैं अनगिनत गोलियां, एक वहशी अफ़सर के फ़रमान पर. अंतहीन लाशें, दर्द से कराहते लोग, पीड़ा, चित्कार, क्रन्दन. लाशों में ज़िन्दा लोग ढूंढता नायक. कोशिश यही कि जिनकी सांसें चल रही हैं, उन्हें तो इलाज मिल जाए. लोगों को बचाते हुए, ठेले पर लादते हुए उधम. इन दृश्यों में त्रासदी है, जिसे देखकर लोग सिहर उठेंगे.

कहते हैं यहीं उधम सिंह ने क़सम ली थी कि इस नरसंहार का बदला वे ज़रूर लेंगे. कैक्सटन हॉल वाले सीन में जब  माइकल ओ ड्वायर को उधम सिंह बने विकी कौशल गोली मारते हैं तो एक सुकून (अहिंसक होने के बाद भी) सा दिल में उतरता है. कैक्सटन हॉल के सीन में विकी कौशल इतने सहज लगे हैं कि वाक़ई लगता है कि ऐसा ही हुआ होगा.



पेंटनविले जेल में ऊधम को दी गई यातना से लेकर फांसी तक के सीन्स, वास्तविक लगे हैं. पटकथा और निर्देशन भी कमाल का है. एक अरसे बाद ऐसी फ़िल्म आई है, जिसमें सभी कलाकारों ने कमाल का अभिनय किया है.

ब्रिटिश अत्याचारों की जीती-जागती डॉक्यूमेंट्री बन गई है यह फ़िल्म. एक सीन में विकी कौशल जेल में एक अधिकारी से कहते हैं-

21 साल इंतजार किया मैंने. मर्डर को प्रोटेस्ट मानेगा या प्रोटेस्ट को मर्डर मानेगा आपका ब्रिटिश लॉ?

फिल्म के अंतिम दृश्यों में उधम सिंह (विक्की कौशल) का एक मोनोलॉग है. उधम सिंह, डिटेक्टिव इंस्पेक्टर जॉन स्वैन से कहते हैं, 'उस रात मैंने मौत देखी. एक बस वही अपनी थी, फिर सब अपने हो गए.  जब मैं 18 साल का हुआ तो मेरे ग्रंथी जी ने मुझसे कहा कि पुत्तर जवानी रब का दिया हुआ तोहफ़ा है. अब ये तेरे ऊपर है कि तू इसे ज़ाया करता है या इसको कोई मतलब देता है. पूछूंगा उनसे कि मेरी जवानी का कोई मतलब बना या ज़ाया कर दी.'

ये फ़िल्म का रिव्यू नहीं है. फ़िल्म बेहद ख़ूबसूरत बनी है. देख सकते हैं. सोशल मीडिया पर लोग कह रहे हैं कि इस फ़िल्म को नॉमिनेट करना चाहिए भारत को ऑस्कर के लिए. सही में कर देना चाहिए. कई वाहियात फ़िल्में ऑस्कर के लिए भेजी गई हैं. यह अच्छी बनी है. मिले भले ही न लेकिन दुनिया एक बार फिर देखे कि सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाले 'ब्रितानी' कितने क्रूर और वहशी थे, जिन्हें अपने कुकृत्यों पर भी कोई पश्चाताप नहीं था.


गुरुवार, 17 जून 2021

अतृप्ति


पहाड़ों को ज़मीन अच्छी लग रही थी। ज़मीनों को समंदर। समंदर पठार बनना चाहता था; पठार अपने भीतर के घाव से जूझ रहा था। 

पठार की कुंठा थी कि हाय! न हम समंदर बने, न समतल रहे, न पहाड़ों में गिनती हुई। 

जिसका जो यथार्थ था, वही उसे काटने दौड़ रहा था। ईश्वर उलाहने, ताने सुनकर क्षुब्ध था, सबकी अतृप्त अभिलाषाओं का ठीकरा उस पर फूट रहा था। सबकी व्याधियों का नियंता वह तो नहीं, फिर दोषी क्यों?

दुःखी ईश्वर के मुंह से अनायास फुट पड़ा, संतुष्टि के आतिथ्य का अधिकारी वही, जो जड़बुद्धि हो

तब से ही, अवधूत सुखी हैं, बुद्धिमान पीड़ित। मूर्ख परमानंद में हैं, ज्ञानी कुंठित। इच्छा, अभीप्सा और प्रत्याशा के आराधक अवसाद में हैं, जड़भरत के अनुयायी मगन।

जो प्रश्न, बुद्ध से अनुत्तरित रहे, उन्हें अवधूतों ने सुलझा लिया। जहां बुद्धि है, वहां असंतोष है। जहां आनंद है, वहां बुद्धि का क्या प्रयोजन?

इतनी सी बात न ज़मीन को समझ आई, न समंदर को। न पहाड़ ने यथार्थ समझा, न पठार ने। अंततः हुआ यह कि पहाड़ दरकने लगे, पठार सिकुड़ने लगे, ज़मीन खिसकने लगी और समंदर विश्व के अपशिष्टों को सोख रहा है, धरती बनने के लिए।


इनमें से किसी की इच्छा, अभी तो पूरी नहीं हो रही, कुंठा है कि आकाश धर रही है। 

ईश्वर, विपद और विपत्तियों पर प्रसन्न हैं। आंख मूंदकर सोए हैं। कह रहे हैं- भोगो, अपनी-अपनी आकांक्षाओं का प्रारब्ध।

-अभिषेक शुक्ल.

गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

जो लौट गये....क्या आयेंगे?

  जो लौट गए क्या आयेंगे?

थी राह अपरिचित कूच किये

किस हेतु चले कुछ ज्ञान नहीं, 

रुक सकते थे पर नहीं रुके

अनहोनी का भी भान नहीं,

थोड़े रूठे, फिर रूठ गये

हम उन्हें मना क्या पायेंगे?

जो लौट गये...क्या आयेंगे?


दोनों बुआ के साथ शायद आखिरी तस्वीर यही है.



राहें तय थीं, तिथियां तय थीं

हम विधिना से अनजान रहे

वे हुए मौन, फिर कहे कौन

किससे, किसकी पहचान रहे?


जो गया उसे लौटाने का

कहीं युक्ति जुगत ले जायेंगे?

जो लौट गये...क्या आयेंगे?


जो सृजक वही संहारक क्यों?

जो सुख दे, दुख का कारक क्यों?

वैतरणी की नौका धोखिल

फिर वह प्राणों की तारक क्यों?


गति जीवन की सुलझाएंगे

डूबे तो क्या पछतायेंगे?

जो लौट गये, क्या आयेंगे?


नियती सबकी हन्ता है क्या

जो लोग गये, किस ठौर गये?

किसने सांसों को गिन डाला

किसको लेकर किस ओर गये?


विधि ही कर्ता विधि ही दोषी

विधि को क्या समझाएंगे?

जो लौट गये, क्या आयेंगे?


जो छीना क्या वो तेरा था

उस पर क्या कम हक़ मेरा था,

यम ने कैसे दस्तक दे दी

घर मेरा रैन बसेरा था?


हम तेरा क्या कर पायेंगे

क्या बिन उसके रह पायेंगे

जो लौट गये, क्या आयेंगे...?


किसने जीवन की इति मापी

किसने जीवों में प्राण भरा,

किसकी सुधि में लेखा-जोखा

किसकी बुधि में निर्माण भरा? 


क्यों लगता है ऐसा जग को

कुछ प्रश्न सुलझ ना पायेंगे, 

जो लौट गये, क्या आयेंगे........?

मेरी बुआ.....ऐसे गई कि फिर आई ही नहीं.......!!!
13 मार्च 2021. बहुत मनहूस दिन था.

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

बोलना, ज़रूरी है क्या?

जब हम हद से ज़्यादा बोलते हैं, तब हमें अंदाज़ा भी नहीं होता कि हम कितना ग़लत बोल गए हैं. बोलना ग़लत नहीं है, लेकिन इतना ज़्यादा बोलना, हर बात पर बोलना, बिना सोचे-समझे बोलना, सही भी नहीं है. सोचने में वक़्त लगता है, बोलने में मुंह खोलने की देर होती है, शब्द ख़ुद-ब-ख़ुद आने लगते हैं.


ज़्यादा बोलना, कभी-कभी कुछ लोगों को देखकर लगता है कि गंभीर क़िस्म की बीमारी है, जिसका इलाज अभी बना नहीं है. अगर होता तो वे लोग ख़ुद जाकर दवाई लेते. क्योंकि पता तो उन्हें भी होता होगा कि वे ज़्यादा बोलते हैं, जो सेहत के लिए ठीक नहीं है. सिर्फ़ इसलिए कि वे सेंटर ऑफ अट्रैक्शन बने रहें, बोलना है.


बोलना न किसी नशे की तरह होता है, जिस इंसान में बोलने की आदत लगे, उसे दुनिया के किसी रिहैबिलेशन सेंटर में डाल दीजिए, निकलकर फिर उसे उतना ही बोलना है, जितना वो पहले बोलता था. सच न, कभी ज़्यादा हो नहीं सकता. थोड़ा सा होता है, लिमिटेड. झूठ की ख़ासियत है कि वो इतना ज़्यादा होता है, कि उसे एक्सप्लेन करने के लिए, ये ज़िन्दगी छोटी पड़ जाए.


झूठ एक आर्ट है. झूठों से बड़ा आर्टिस्ट कोई होता ही नहीं है. पलभर में ऐसा सीन क्रिएट करते हैं कि हां, ऐसा ही हुआ होगा, यही हुआ होगा. सच सिंपल होता है. बिलकुल भी अट्रैक्टिव नहीं. कई बार इतना सादा कि सच से ऊब हो जाए. कुछ बेहद अच्छी बॉलीवुड की आर्ट फ़िल्मों की तरह.

 

तस्वीर- IIMC के दौरान की है. 4 साल पहले.

हदें, कुछ सोचकर बनाई गई होंगी. शायद अतिरेक रोकने के लिए. लेकिन बोलने की आदत लग जाए, तो बोलते रहेंगे, नए सीन क्रिएट करते रहेंगे. अपनी ही बातों में फंसते रहेंगे, पर बोलेंगे. क्योंकि बोलना ही है. आदत है. अच्छी हो या बुरी, पर है तो है. 


जो चीज़े बोलने पर लागू होती हैं, लिखना भी कुछ वैसा ही है. बहुत लिख रहे होते हैं तो पता भी नहीं लगता कितना ग़लत लिख गए हैं.

आदतें हैं, एक सी ही होती हैं....

मंगलवार, 5 जनवरी 2021

बुद्ध और बुद्धू....

 शेली, किट्स और ब्राउनिंग कभी पसंद नहीं आए। पसंद आई तो विलियम वर्ड्सवर्थ की फंतासी। नौवीं में पहली बार पढ़ी और अब तक पढ़ रहा हूं लूसी ग्रे।  मैथ्यू अर्नाल्ड भी पसंद आए।  टेनिसन को पढ़ा तो नींद आई। 

और भी होंगे, जिन्हें पढ़ा लेकिन जाना नहीं। कुछ याद रखने लायक लगा ही नहीं। क्या है न जब आपको कविता पढ़ने के लिए डिक्शनरी खोलनी पड़े तो क्या ही मज़ा?

हम भाषा सीख सकते हैं, शब्दार्थ समझ सकते हैं लेकिन मर्म नहीं जान सकते। जानते तो शायद गीतांजलि हमें भी समझ आ गई होती। 

ये लोग काव्य जगत के सर्वकालिक कवि हैं, साहित्य के विद्यार्थियों को इन पर श्रद्धा होगी लेकिन जिसने मन को छुआ, वह कोई और था। कुछ ने कहा कबीर हैं, कुछ ने कहा शब्द जानो, कवि क्षणभंगुर है।

और कवि ने ख़ुद आकर कहा-

भँवरवा के तोहरा संग जाई...

मैंने कहा, 'इसका क्या प्रयोजन?'

कवि ने कहा कि दुनिया ही निष्प्रयोज्य है, तुम्हें प्रयोजन की प्रत्याशा क्यों?

मैंने कहा, 'अर्थ की लालसा।' 

कवि ने कहा कि लालसा से बुद्ध भागे, तुम कहां टिकोगे?

मैंने पूछा, 'क्या बुद्ध लालसा के मारे थे?'

कवि ने कहा हां, 'लालसा ने उन्हें बुद्ध बनाया, तुम्हें बुद्धू।'


कवि से कई बार कई सवाल किया, लेकिन कवि इतना ही दोहराता रहा, 

भँवरवा, के तोहरा संग जाई....


-अभिषेक शुक्ल.

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2020

प्रोफ़ेशन बदलना क्राइम नहीं है...

कभी-कभी न ख़्याल आते हैं न ख़्वाब। ऐसा क्यों होता है, इसकी कोई वाजिब वजह पता नहीं। शायद पता भी न चले।

ज़िन्दगी अनसुलझी पहेली है, हम कई दफ़ा सुन चुके हैं। सुनते रहे हैं, या शायद सुनते रहेंगे। लेकिन हर पहेली, सुलझती है, धीरे-धीरे वक़्त के साथ। सबका कोई एक जवाब होता है। पर ज़िन्दगी, लाजवाब है। कुछ पता ही नहीं चलता। कभी, कभी भी।

एक साथ, क्या-क्या चलता है दिमाग़ में ज़ाहिर कर दें तो मुसीबत, न करें तो ऐसा लगे कि ख़ुद के साथ ही धोखा। कई बार लगता है कि जिस रास्ते से गुज़र रहे हैं, सही नहीं है। न हो सकता है। क्योंकि आस पास किसी को उस रास्ते से गुज़रकर मंज़िल नहीं मिली। सबने ख़ुद को खो दिया है। एक क़रार कर लिया है, ज़िन्दगी के साथ कि अब जो चल रहा है, चलने दो। आधे रास्ते में हैं, आधा ही तो पार करना है।

पर पता नहीं क्यों लगता है कि उसी आधे रास्ते में गड्ढा है, जिसमें से गिरेंगे आंख मूंदकर एक रास्ते पर चलने वाले।

....ऐसा सोचना ग़लत भी हो सकता है। शायद सबकी मंज़िलें एक सी न हों। सबने अपने-अपने रास्ते चुन लिए हों कि गड्ढे से स्टेप पहले रुक जाना है, या नाव लाकर तैर जाना है।


बस नाव नहीं चहिए। तैरना नहीं आता लेकिन नाव के ज़रिए सफ़र भी करना। तैराकी सीखनी भी नहीं है। 

रास्ता बदलना है। रास्ते ज़रूरी हैं, मंज़िलों के लिए। कोई एक नई राह गढ़ता है, हज़ारों उस नई राह के राही होते हैं। कई बार नहीं भी होते हैं। कई बार रास्ता बनाना ही मुमकिन नहीं होता। बन भी जाए तो कांटे उगते होंगे। चुभते भी होंगे, उन्हें निकाला जा सकता है। कुछ चुभेगा तो पता चलेगा कि ज़िन्दा हैं। बनी बनाई सड़कें आसान हैं। ऐसा लगता है कि घिसट के पहुंच जाएंगे कहीं पर।

बस दिक़्क़त घिसटने से है। यही फ़ीलिंग ठीक नहीं होती लाइफ़ में। 

किसी के मंज़िल और मुस्तक़बिल में झांकना ग़लत है। टोकना और भी ग़लत। क्यों ये उम्मीद हो कि कोई मेरी ही बताई राह पर चले? क्यों पुराने ढर्रे ही सबको अच्छे लगें? क्यों न किसी को कभी भी मंज़िल बदलने का हक़ हो, राहें भी? क्यों उम्मीदें बोझ बनें? क्यों न ऐसा हो कि मंज़िल और राहें बदल देने पर अपने सवाल न करें। वेलडन, सब ठीक है। तुम सही हो, दूसरों के साथ ग़लत नहीं करते तो ख़ुद क्यों ग़लत करोगे। मिल जाएगी न यार मंज़िल, बन जाओगे न जो बनना चाहते हो। नहीं भी बने तो फिर नए रास्ते पर चलना। फ़ेल होने के डर से कोशिश नहीं करोगे? जाओ यार.....कर लो न जो करना चाहते हो।

कभी-कभी ये सब सुनने के बाद भी लगता है कि कुछ ग़लत न हो जाए। ख़ुद के साथ, ख़ुद की सुनने में। सबको लगता होगा। ऐसा सोचना ग़लत है, बहुत ग़लत। कर लो न यार जो करना चाहते हो। बहुत पेनफ़ुल है वो वाली फ़ीलिंग, जिसमें जो आप करना चाहते हो, उसे पोस्टपोन करना पड़े।

दूसरों को कुछ भी लगे, आपके करियर का सही डिसीज़न आपसे बेहतर कोई नहीं ले सकता। ज़िन्दगी सबको मौके नहीं देती, रिपीटेड लाइन है, एक्सक्लूसिव नहीं। मौके हर बार मिलते हैं। दिखते नहीं, अलग बात हैं। देखने का हुनर सीखो, जब जो मिले लपक लो....निभे तो निभा लो, न सही लगे तो रास्ते अलग।

प्रोफ़ेशन बदलना क्राइम नहीं है, क्राइम है बिना पासपोर्ट के दुनिया बदल देना।

(डायरी इन दिनों। डोंट टेक इट सीरियस, लफ़्फ़ाज़ी है...)

Photo Credit-  DrAfter123 / stockphoto.com © 2018

सोमवार, 7 सितंबर 2020

शर्म तुमको मगर नहीं आती

 ब्लॉग का फ़ीचर इमेज बनाया है Mir Suhail ने.




अप्रिय कुपत्रकारों और संपादकों!


गंजेड़ी, भंगेड़ी और नशेड़ी जैसी कुछ विशिष्ट उपमाओं से आप विभूषित हैं। दैव कृपा से आचरण में भी उपमायें परिलक्षित होती हैं।

आपका अलौकिक ज्ञान, सोमरस और प्रभंजनपान के उपरांत ही बाहर निकलता है।

हे अग्निहोत्र के प्रखर प्रहरी!

आप भी यह जानते हैं कि रिया चक्रवर्ती से कहीं अधिक समृद्ध आपकी 'ड्रग्स मंडली' है। आपके अनुचर नित नए 'माल' के अनुसंधान में साधनारत हैं।

जिस तरह से माल फूंकना आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है, ठीक वैसी ही रिया की भी। आयात-निर्यात में लिंगभेद के लिए स्थान कहां?

अपने कर्मक्षेत्र की समाधि पर खड़े हे गुरुवरों! आपके कुकृत्यों पर हम लाज से गड़े जा रहे हैं। शवों का व्यापार करना राजनीति की परिपाटी रही है। आप जुझारू हैं, आपने राजनितिज्ञों का एकाधिकार ख़त्म कर दिया है।

ऊब हो रही है, घुटन भी। उस मनहूस घड़ी को कोसने का मन कर रहा है जिस घड़ी मसीजीविता की राह पर चले थे।

आत्मश्लाघा में पगलाये हुये नहुषों, पतित होकर अजगर ही होना है। एक दिन ऐसा आ सकता है कि कुकुरमुत्तों की छाया में बरगद पले।

पितृपक्ष है, आप पितरों की साधना पर शौच कर रहे हैं। आत्मावलोकन करें, आपको, अपने-आप से घिन आएगी।

-अभिषेक शुक्ल.

रविवार, 30 अगस्त 2020

नाचै-गावै तूरै तान, राखै तेकर दुनिया मान!

 जीवन दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण सूक्तियां गांवों में रची गई हैं. भले ही वे इस मंशा के साथ न रची गई हों कि कालांतर में उन्हीं पंक्तियों पर जीवन का कार्य-व्यवहार टिका होगा. भले ही शहर उन्हें खारिज करें, या पूर्वाग्रह के चलते उनका बहिष्कार कर दें लेकिन यथार्थ इससे परे नहीं.

सूक्तियां ऐसी, जो बोधगम्य हैं. उनके दर्शन को समझने के लिए किसी विद्वान की ज़रूरत नहीं. सुनते-सुनते बरबस समझ आए. कभी किसी खेत की मेड़ पर, या कहीं बरगद तले. या किसी काकी-माई को आपस में काना-फूसी करते हुए देखते वक़्त.

उन बातों को भाषाविद किसी भी श्रेणी में बांट लें. उन्हें सूक्ति कहें, मुहावरे कहें, लोकोक्तियां कहें या कोई भी नाम दें, लेकिन दुनियादारी समझने की कुंजियां वही हैं.

शेष सब बौद्धिक वितंडा से इतर कुछ नहीं.

मिमांसा विद्वान करें, लेकिन वर्तमान इन्हीं सूक्तियों की व्याख्या है.

'नाचै गावै तूरै तान, तेकर दुनिया राखै मान'

मीडिया से लेकर सत्ता तक.


'अपने उघार बिलरिया कै गांती'

आत्मश्लाघा के अतिरेक में पागल मीडिया, जिसमें रहकर किसी भी सभ्य व्यक्ति का दम घुटे.


'बाड़ी बिस्तिुइया बाघेस नाजारा मारै.'

सीमाओं पर नजर फेरिये.


'सब हसै-सब हसै, चलनी का हसै जौने में 72 छेद.'

पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दिख रही है हर भारतीय को लेकिन अपनी दरिद्रता?


'चिरई कै जान जाय, लड़िकन कै खेलौना.'

मीडिया ट्रायल. चरित्र हनन.


'सेमर पालि सुगा पछितानै, मारै ठोड़ भुआ उधियाने'

कृतघ्नों पर परोपकार.


और नहीं याद आ रहा. जब याद आएगा, तब की तब देखेंगे.

गुरुवार, 23 जुलाई 2020

समय धरावै तीन नाम- परशु, परशुवा परशुराम

गांव में पहली बार दो तल्ले का घर तैयार हुआ. झोपड़ियों वाले गांव में पहली बार ईंट-गारा का पक्का मकान देखकर लोग हैरान रह गए. जब घर बन रहा था तब सुबह-शाम लोग यह देखने आते कि कैसे घर तैयार किया जाता है. जब घर बन गया तो ढींगुर दो तल्ले पर बड़का रेडियो पर गाना गवाते. जो घर देखने आता कहता कि ढींगुर की क्या गाढ़ी कमाई है.

यह घर ढींगुर का ही था. ढींगुर कोई ज़मींदार नहीं थे. न ही कोई बड़े काश्तकार. जो थे, उसके लिए हद दर्जे का दुर्दांत होना पड़ता है. दुर्दांत ही, जिसे दूसरों का ख़ून नोचने में मज़ा आए.

यह वही दौर था जब ढींगुर का परचम पूरे जवार में लहराता था. बिरादरी तो बिरादरी, दूसरे लोगों के भी कंकाल कांपते थे उन्हें देखकर. गांव में किसी की क्या मजाल जो उनके सामने तन के खड़ा हो जाए. तूती ऐसी बोलती थी कि जिस ज़मीन पर पांव रख दें, उन्हीं की हो जाती.

जवार की पूरी बंजर ज़मीन उन्हीं के नाम. जो छुटभैये मर्द बनते थे, ढींगुर की लाठी के सामने पस्त हो जाते थे. जो सज्जन थे, वे सरेंडर कर चुके थे. सारे गिरहकट्टों के सरदार थे ढींगुर. गांव के सारे धन्ना सेठ भी उनके सामने हार बैठे थे. किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि ढींगुर को मनमानी रोकने की हिम्मत करे. हिम्मत भी करे तो कोई कैसे, किसे सालभर भूखे मरना है.

भूखा ही मरने का तो डर था. थोड़े ही कोई आज वाला ज़माना था नहीं कि परदेस जाकर चार पैसे का जुगाड़ हो जाए. मनरेगा भी नहीं था कि गड़हा पाटकर चार पैसे मिल जाएं. तब पैसा मतलब खेती था. तो सबका धन, सिवान में गड़ा होता था, जिसकी रखवाली राम भरोसे होती थी.

किसान और व्यापारी में यही तो अंतर होता है कि एक अपना धन सात तिजोरी में बंद करके रखता है तो दूसरा खुले आसमान के तले. उसे आसमान से बरसती आफत से भी डर होता है और ज़मीन के गिद्धों से भी.

इसी खुलेपन का तो फ़ाएदा उठाते थे ढींगुर. दिन में जो भी ढींगुर से अकड़ता, रात में उसका खेत सफाचट. ढींगुर अपने गुर्गों को लेकर खेत पर पहुंचते और रातो-रात फसल काट ले जाते. दिन में बेचारा किसान खेत पहुंचकर माथ पीटता. थाना-पुलिस का आलम ये कि कोई किसी की बात न सुने. पुलिस का आज ही वाला चेहरा कल भी तो था.
जो आदमी किसी तरह से दो वक़्त के खाने का जुगाड़ कर पाता हो, उससे क्या ही पुलिस उगाही कर पाती. जब पैसा नहीं तो सुनवाई क्या?

और ढींगुर, लूट का माल बराबर बांटने में भरोसा रखते थे. जितना ख़ुद खाते, उतना ही दूसरों को खिलाते. लूट के माल का एक हिस्सा साल-छह महीने में थाने पर पहुंच जाता. फिर गांव की सुधि कौन ले.

लूट, डकैती, चोरी, छिनैती, जुआ-गुच्ची, कौन सी ऐसी कुलत्ति थी जो ढींगुर किए नहीं. अत्याचारी इंसान सिर्फ दूसरों के लिए ही नहीं होता. अपने घर पर भी वह अत्याचारी रहता है. गांव के मज़लूमों पर जैसा अत्याचार, वैसा ही अपने घरवाली पर. दारू पीने के बाद तो आलम यह रहता था कि पत्नी को ढोल बना देते थे.

हर तीसरे दिन ढींगुर बहू, कराहती ही मिलतीं. ढींगुर के चार बच्चे हुए. 4 बेटियां भी. बेटियां बियाह के बाद घर चली गईं. बेटे धीरे-धीरे बाप के रास्ते पर चले. कहते हैं जो जितना तपता है, ढलता भी उसी रफ़्तार से है. धीरे-धीरे ज़माना बदला. ढींगुर को दमा हो गया. जवानी का पाप बुढ़ापे में नज़र आने लगा.

बेटे निकले बाप से जार जवा आगे. उन्होंने पाप का ककहरा अपने घर से ही सीखा. जो-जो ढींगुर ने दूसरों के साथ वही उनके साथ हुआ. चार बेटों में चार लक्षण. एक बेटा निकला जुआरी. दूसरा बेटा निकला शराबी. तीसरा बेटा निकला गंजेड़ी और चौथा निकला फराडी.

बेटे जवान हुए और ढींगुर ढल गए. जुआरी बेटा बड़ा था. धूम-धाम से शादी हुई. शादी के एक महीने बाद बांटकर घर से अलग हो गया. ढींगुर ताकते रह गए. शराबी बेटा दूसरे नंबर का था. उसकी शादी हुई तो तीसरे महीने अपनी पत्नी को छोड़कर किसी और के साथ फुर्र हो गया. सोचा भी नहीं कि कोई तीसरा भी आ रहा है, जिसकी ज़िम्मेदारी से वो भाग रहा है. ढींगुर का इतना तो चला कि उसे ज़मीन जायदाद से बेदख़ल कर दिया.

गंजेड़ी बेटा तीसरे नंबर का था. दिनभर गांजे में व्यस्त. गांजा पीने के बाद इंसान स्वघोषित महादेव का भक्त हो जाता है. सो उसने भक्ति की राह चुन ली. ढींगुर के रहते ही ऐसा फ़रार हुआ कि अब तक नहीं आया. सबसे छोटा जो फराडी था, वो ढींगुर का ही अपडेटेड वर्जन था. जितने ऐब ढींगुर में, उतने ही उसमें.

शादी के कुछ महीने तक तो किसी ने उसे देखा ही नहीं, चौथे महीने से पत्नी को पीटने की प्रैक्टिस शुरू कर दी. इतना मारता कि कई बार मरने की नौबत आ जाती. ढींगुर की बुढ़ापे में ख़ूब दुर्गति हुई. हर तीसरा आदमी गाली देकर निकल जाता. ज़माना बदल गया था. सबके जेब में पैसा था. पुलिस तो उसकी की जिसका पैसा. ढींगुर की कमाई रह नहीं गई थी, खेती-किसानी पर बेटों ने डाका डाल लिया.

पैसा सबके पास पहुंच गया था. चोरों का स्टारडम घट गया था. ख़ुद ढींगुर का भी. छोटे बेटे ने एक दिन नाराज़ होकर ढींगुर को पीट दिया. ऐसे पिटाई की कि ढींगुर की पूरी ज़िन्दगी में नहीं हुई थी. माथे से ख़ून बह रहा था. बेटा ही सात पीढ़ी न्यौत रहा था बाप की. ढींगुर को सदमा लग गया. मुश्किल से 12 दिन जिए थे. हानि में मर गए.

दुर्गति अब शुरू हुई. ढींगुर अपने पीछे छोड़ गए थे एक पत्नी, जो आजीवन उनके सुख-दुख में शामिल रही. सुख तो उसे कभी मिला नहीं, मिली बस मार. वक़्त की भी, नियति की भी.

अर्धांगिनी वाला जो कॉन्सेप्ट है न, वह कलियुग में भी फलीभूत होता है. ढींगुर के हिस्से का आधा पाप तो भोगकर वे चले गए, आधा सिरे आया पत्नी के. बेटे एक से बढ़कर एक नालायक. मां के पास जो भी है, उस पर डाका डाल गए. हर किसी ने मां को निकाल दिया. 

मां को मिला अलगाव. मां ने सबको हिस्सा दिया, मां किसी के हिस्से नहीं आई. मां ही बेसहारा हो गई. शराबी पूत का जो लाल वो छोड़कर भागा था, वह भी जवान हुआ. जिस घर में वह रह रही थी, वही शराबी पूत के हिस्से आया था. घर निकाला हो गया था, लेकिन एक हिस्सा ढींगुर के जीते-जीते उसे मिल गया था. पोते का आश्रय मिला दादी को. पोते ने कुछ दिन दादी के पास पैसे भेजे, फिर यह जताने लगा कि वही उसे जिला-खिला रहा है. ऐसा था नहीं. मेहनत-मजदूरी करके वो ख़ुद कमा रही थी. दो वक्त का खाना, उसी के भरोसे उसे मिल रहा था.

पोते ने भी एक दिन तनकर कहा कि मेरा घर छोड़कर जाओ, मेरा सारा पैसा तुम लुटा दे रही हो. चार जवान बेटों की मां के पास घर नहीं. ढींगुर का बनवाया घर जर्जर होकर ढह गया था. बच्चों ने अपनी-अपनी कमाई से घर तैयार कर लिया था. मां के सिर पर छत नहीं था. छप्पर के मकान में महलों में रह चुकी राजमाता रह रही थी. जिसका पूत न हुआ, उसका पोता क्या होगा?

खेत मां के नाम, घर मां के नाम लेकिन बेटों ने सब हड़प लिया. ढींगुर का सारा यत्न, सारी व्यवस्था, सारा रुतबा धरा का धरा रह गया. उनके मरने के महज कुछ दिन बाद ही सब का सब खत्म हो चुका था. मकान खंडहर था. घर तोड़ा इसलिए गया कि बेटों को हिस्सा नहीं मिल रहा था.

हिस्सा मिला, किसी का निवाला छिन गया. ढींगुर बहू की किस्मत में मार लिखी थी. मार मिली. कभी बहुओं की तो कभी समय की. कुछ जीव ऐसे होते हैं, जिनके भाग्य में दुख मढ़ा गया होता है.

ढींगुर ने मरने से पहले कहा भी था कि जवानिया में हम तपेन, बुढ़पवा हम्मे तापत है. जितना ढींगुर ने जिस तरीके से कमाया था, उन्हीं के सामने वह ख़त्म हो गया.

जो धन जइसे आत है, सो धन तइसे जात. ढींगुर भवन से गुज़रता हर शख़्स यही कहते हुए निकलता है. आज सब मरे हुए ढींगुर को नसीहत दे रहे हैं, वही लोग, जो उनके सामने कभी बोल नहीं सके थे. ढींगुर बहू भी सब कुछ सहते, सहाते कह ही देती हैं कभी-कभी.

समय धरावै तीन नाम. परशु, परशुवा परशुराम.

-अभिषेक शुक्ल.