कोशल का राजवैभव जिसे तुच्छ लगा वह मधूलिका थी. राजकीय अनुग्रह की ऐसी अवहेलना कृषक कुमारी ही कर सकती थी. भूमि उसकी थी, श्रम उसका था, राजा का कुछ नहीं था, राजविधान को छोड़कर.
महाराज जिस भूमि को देख लें वह उनकी. राष्ट्र नियम वही जिसे राजा ने तय किया है. राजकीय स्वर्ण मुद्राओं का ऐसा तिरस्कार कोशल के इतिहास में किसी ने नहीं किया था.
जो विनिमय को तैयार नहीं, उसे विपणन से क्या प्रत्याशा?
महाराज का प्रलोभन अयाचित ही रहा.
सिंहमित्र ने राष्ट्र के लिए प्राणोत्सर्ग किया था. सर्वोच्च बलिदान, उसका संस्कार था. मधूलिका जानती थी कि यम से कैसा भय, स्वाभिमान के प्रदर्शन की यह परिणति हो सकती है. राजदंड का भय उसे कहां जिसकी नियति में इच्छा मृत्यु हो?
मधूलिका, मधूक के पेड़ तले बैठी थी. एक निर्वासित राजकुमार को उससे प्रेम हो गया था.
मगध के विद्रोही निर्वासित राजकुमार अरुण, मधूलिका को वह सबकुछ देना चाह रहे थे जिसकी कल्पना ने उसे क्षणिक सुख दिया लेकिन दीर्घकालिक दासता का भान भी. अपने राष्ट्र पर शत्रु का आधिपत्य कहां स्वाभिमानी स्वीकारते हैं.
पिता का रक्त जगा तो राष्ट्र की बरबस सुधि आ गई. मधूलिका ने प्रेमी के षड्यंत्र की सूचना महाराज को दे दी. अरुण ने उसी भूमि पर युद्ध की अधारशिला रखी, जिसकी याचना मधूलिका ने राजा से की थी. राजद्रोह का एक ही दंड होता है, मृत्युदंड.
अरुण के लिए राजाज्ञा घोषित हुई कि मृ्त्युदंड दिया जाए. उसी समय मधूलिका के लिए पुरस्कार की घोषणा हुई. मधूलिका ने पुरस्कार में मृत्युदंड मांगा. उसने राष्ट्र धर्म भी निभाया और प्रीत भी.
बरबस इस पेड़ को देखकर यह कहानी याद आ गई. कहानी लिखी है जयशंकर प्रसाद ने. शीर्षक है पुरस्कार. प्रसाद, सच में प्रसादांत कहानियां लिखते हैं. जो एक बार पढ़ ले, पढ़ने के सम्मोहन से कभी न निकल पाए.
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