रविवार, 26 अगस्त 2018

राखी के दिन सूनी कलाई

राखी वाले दिन कलाई का सूना रह जाना अखरता है। बेहद ज़्यादा। तब और भी जब आपके पास ढेर सारी बहनें हों, जिनके पास जाने के लिए आपको कम दूरी तय करनी हो।

मन लाख समझाए कि बहनों का आशीर्वाद हमेशा साथ रहता है भले ही वे कलाई पर राखी बांधे या न बांधे लेकिन दिल नहीं मानता। तब तक, जब तक कि वे राखी बांध न दें।

बचपन से लेकर अब तक कोई साल ऐसा नहीं बीता जब कलाई सूनी रही हो। कलाइयां भर जाती थीं राखी वाले दिन। गांव रहा तो वहां भी खूब सारी राखी। कुछ बड़ी बहनें और छोटी बहनें वहां थीं। कोई न कोई तो ज़रूर रहता था। मीना दीदी, बबली दीदी, रश्मि दीदी, प्रसन्ना दीदी, नीरू दीदी, रुचि दीदी, ऋचा दीदी, पल्लवी, वर्षा, बेटू, सोनल, शिवांगी, छोटी, बिन्नी, इशिता और भी बहुत सारी बहनें। कुछ के तो नाम भी छूट गए होंगे।



गांव वाली बहनों से राखी बंधवा मम्मी-पापा के साथ सुबह ही चेतियां, मदनपुर(बुआ का घर) और बरवां(नानी यहां) के लिए निकलता था। पापा अपनी बहनों से राखी बंधवाते और मैं अपनी।

गांव से बाहर गया तो वहां भी बहनें थीं। रुचि दीदी, दीप्ति दीदी, हिमानी। कुछ साल बाद नीरू दीदी भी आ गई थी। दिल्ली या मेरठ में जमवाड़ा होता था इस दिन।

रुचि दीदी तो ज़रूर रहती थी। इस बार रुचि दीदी भी नहीं थी। बेंगलुरु चली गई बड़े भइया के पास। इस दिन मुंह नहीं बंद रहता था। रुचि दीदी दिन भर खिलाती रहती। मिस कर रहा हूं दीदी तुम्हें।

नौकरी सच में नौकरी है। नौकर बना देती है। आज मेरठ जाना था। दफ़्तर से मुझे छुट्टी मिली नहीं, मैं वहां जा नहीं पाया।

बहुत ज़्यादा बहनों को मिस कर रहा हूं। सबकी बहुत याद आ रही है।

मिस यू ऑल। अगली बार सब राखी ज़रूर भेजना। इस साल की तरह मुझे कोरी नहीं रखनी अपनी कलाई।

लव यू ऑल।

और इस फ़ोटो में सच में मुस्कान झूठी है। कलाई सूनी है।

- अभिषेक शुक्ल।

रविवार, 12 अगस्त 2018

गांव में ऐसा है मनभावन सावन


कोई छह-सात वर्ष हो गए थे झूला झूले हुए. बारहवीं पास करने के बाद जो त्योहार छूटे, सावन में भी उनमें से एक था. मुझे सावन  त्यौहार ही लगता है. महीने भर का त्यौहार. कजरी, आल्हा और गीतों का महीना.

जिधर से गुज़रो कहीं न कहीं से किसी की खनकती आवाज़ में कोई गीत कानों तक पहुंच ही जाता था. कोई पेशेवर गायिका कितने भी दिन सरस्वती की आराधना क्यों न करे, गांव की पड़राही भौजी की राग मिलने से रही. उनकी कजरी सीधे दिल से निकलती थी दिल में उतरती थी. भीतर तक.



हरे राम कृष्ण बने मनिहारी ओढ़ लिए सारी रे हारी
सिर धरे डलरिया भारी हरे रामा करतै गलिन में पुकारी कोई पहिननवारी रे हारी.
स्वर कभी सीखा नहीं जाता. गीत विद्या नहीं है, कला है. कला कोई सिखा नहीं सकता. कोई भी नहीं. कोई गुरु नहीं. कला का शिष्यत्व से चिरंतन बैर है. वाल्मीकि को किसी ने पहला  छंद रचना नहीं सिखाया होगा. न ही किसी ने उन्हें मात्रा गणना का बोध कराया होगा. उन्होंने सीख लिया होगा. वैसे तो कहा जाता है कि वेद अपौरुषेय हैं लेकिन उन्हें जिसने भी मूल रूप में दुनिया को कुछ बताया होगा वहा कलाकार ही रहा होगा.
ठसक लिए कोई देहाती महिला अथवा पुरुष. कोई ज्ञानी ब्राह्मण नहीं. ज्ञानी व्यक्ति तो कला को मारकर ज्ञानी बनता है.

गांव की गायिका को रियाज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती. जब मन किया गा लिया. ऐसा संगीत जहां वाद्य यंत्र नगण्य हो जाते हैं. स्वर ही ढोलक की थाप होते हैं, पायलों की छनछन ही झांझ. फिर कौन न सासें रोक गीत सुनने बैठ जाए.

 

दिन में झूला झूल लिया. रात में अम्मा(दादी) से कजरी सुन ली. मेरा तो सावन सार्थक हो गया. धीमी-धीमी बारिश हो रही है. झींगुर टर्र-टर्र कर रहे हैं. मेंढकों ने भी तान छेड़ दिया है. ऐसे में मच्छर कहां पीछे छूटने वाले. उनका भी गायन चालू है. मच्छरों से थोड़ी अनबन है, पर अपने हैं. काट रहे हैं पर पेट भरने के लिए.
वीडियो मेरे ननिहाल का है. बरगद पर झूला पड़ा है. साथ में वीरू भइया हैं, अंकित है और जो  बचा है उस बच्चे  का नाम नहीं पता.
झूमिए....क्योंकि सावन है.



- अभिषेक शुक्ल

रविवार, 5 अगस्त 2018

जब दोस्त, दोस्त के लिए पथरीली राहों पर चला नंगे पांव

दोस्ती का नाम ज़ेहन में आते ही सरस्वती संस्कार मंदिर की कक्षा याद आने लगती है। उस वक़्त क्लास जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी और 'सर' नहीं आचार्य जी हुआ करते थे।

कक्षा शिशु में मेरे चार बेस्ट फ्रेंड बने। सुमित, अमित, सूरज और अनिल। टिकाऊ दोस्त थे। इनके रहते बहुत दिनों तक कोई और दोस्त बन नहीं पाया। सूरज का मुंडन नहीं हुआ था। बालों में रुमाल बांध कर आता था।

सुमित और अमित असली वाले दोस्त थे। सुमित के पास बहुत से क़िस्से होते थे। पता नहीं कहां-कहां से चुनकर लाता था। गांव-मोहल्ला, ज़िला-जवार सब जगह की जानकारी भाई को थी। चलता-फिरता एंटरटेनमेंट।

अमित हंसने में उस्ताद था। क़िस्से उसके पास भी थे लेकिन सुमित के क़िस्से उसे भी पसंद आते थे। इसलिए नौबत ही नहीं आती थी कुछ सुनाने की।

लेकिन कुछ क़िस्से अमित, सूरज को सुनाता था कोने में ले जाकर। भगवान ही जाने क्या था उसके पीछे का राज़।

अनिल और मेरा गांव एक ही है। इसलिए दोस्ती हो गई। अनिल अपने पूरे कुनबे के साथ आता था।

सूरज अब कहां है, नहीं पता। छठी क्लास में कहीं और पढ़ने चला गया था। अनिल भी छह पास होने के बाद कहीं चला गया था। उसके बारे में ज़्यादा पता नहीं, गांव जाकर ही उसकी ख़बर मिलती है। सूरज और अनिल दोनों फ़ेसबुक पर भी नहीं हैं।



सुमित के साथ एक क़िस्सा याद आता है। दूसरी या तीसरी में पढ़ रहे थे। गर्मी का महीना था। शायद अप्रैल-मई का। स्कूल की टाइमिंग बदल गई थी। सुबह आंख खुलते ही स्कूल भागना होता था और 1 बजे दोपहर में छुट्टी हो जाती थी।

शहर से बाहर घर के आधे रास्ते में एक दिन चप्पल का फीता टूट गया। आसपास किसी मोची की दुकान भी नहीं थी। तपती दोपहर में नंगे पैर लगभग तीन किलोमीटर पैदल जाना था मुझे।

हमारा स्कूल घर से क़रीब चार किलोमीटर की दूरी पर था। सुमित को खरगवार जाना होता था और मुझे परिगवां।

सुमित का रास्ता छतहरी से अलग हो जाता था। उसे भी लगभग इतनी ही दूरी तय करनी होती थी।

सुमित को जब पता कि मेरी चप्पल टूट गई है, उसने अपनी चप्पल उतार दी। मैंने मना किया तो वह ज़िद पर उतर आया। पहन के जाना ही है। उस वक़्त कट्टी का बहुत डर होता था। दोस्त अगर कट्टी ले ले तो पट्टी करने में अगले कई दिन ख़राब हो जाते थे।

सुमित को मुझसे कहीं ज़्यादा ख़राब रास्ते पर जाना होता था। उबड़-खाबड़ रास्ते पर। पर सुमित मानने वाला कहां था। कह दिया तो कह दिया।

डायलॉग अब भी याद है उसका, 'यार हमार तो आदत परा है, तू नाहीं चल पाइबा बाऊ।' मतलब मेरी तो आदत है, तुम नंगे पैर नहीं चल पाओगे।

हम पैदल ही जाते थे। ख़ूब सारे भाई बहन लेकिन संयोग से उस दिन मैं अकेला ही था, भाई-बहनों में कोई स्कूल नहीं आया था। वह दिन मुझे हमेशा याद रहेगा।
सुमित, सच में सु-मित है।

बड़ा होता गया, दोस्त बनते गए। सूरज और उपेंद्र भाई थे, दोस्त बन गए। कभी-कभी परेशान होता हूं तो इन्हें फ़ोन कर लेता हूं। पेनकिलर की तरह हैं दोनों।


सरस्वती संस्कार मंदिर में ही कुछ और दोस्त बने थे। विवेक, बलराम, रविन्द्र, अरविंद, अखिलेश, रहीम, शाहिद, शीबू, अजय, सुरेंद्र, अभिषेक। कुछ दोस्तों के नाम भी याद नहीं रहे। चेहरा सबका याद है।
इनमें से बहुत कम दोस्त संपर्क में हैं।

विवेक जहां 10 नम्बरी आदमी, बलराम वहीं बुद्धिमान और शांत। विवेक तो अब पूरी तरह बदल गया है, सौम्य ज़मीनी नेता बन गया है। मसीहा टाइप।

शीबू स्कूल में मेरा जूनियर रहा है पर बहुत अच्छा दोस्त है। स्कूल में ख़ूब गाना सुनाया है भाई ने। 'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी...।'

लड़कियों में तो ज़्यादातर की शादी हो गई होगी। बचपन की बस एक ही दोस्त अब टच में है। फ़ेसबुक बाबा की कृपा से।

जब संस्कार मंदिर छूटा तो कई दोस्त छूट गए। कुछ नए दोस्त बने भी। शिवपति इंटर कॉलेज। नौवीं से बारहवीं तक की पढ़ाई यहीं से हुई। इस दौरान भी कई दोस्त बन पर ज़्यादातर ग़ायब हैं।

विनय, अमित(द्वितीय), अभिषेक(द्वितीय) और योगेश के अलावा कोई संपर्क में नहीं है।

अम्बरीष, पंकज, सर्वेश, अमित, अभिषेक, सुधीर, सुभाष और केसरी भी ग़ायब हैं इन दिनों। बहुत सारे दोस्त ग़ायब हैं। कहीं रिपोर्ट लिखवाने का सिस्टम हो तो कितना अच्छा हो।

बारहवीं के बाद बने सारे दोस्त सही सलामत और टच में हैं। मोबाइल ने काम आसान कर दिया है। IIMT से IIMC तक जितने दोस्त बने सब फ़ेसबुक पर हैं। अपने ज़िंदा होने का एहसास दिलाते रहते हैं।
बारहवीं के बाद वाले दोस्तों की बातें बाद में।

पढ़ाई से अलग फ़ेसबुक या ब्लॉग पर जिनसे दोस्ती हुई
उनकी भी दोस्ती कम ख़ूबसूरत नहीं। सारे दोस्त बेहद ख़ास हैं।

फेसबुक को मेरे बचपन में भी रहना था, कुछ दोस्त छूटते नहीं, खोजने से भी अब जो नहीं मिल रहे।

आज फ़्रेंडशिप डे है। वैसे मेरा मानना है जितना दिन आपका दोस्तों के साथ ख़राब होता है, फ़्रेंडशिप डे ही होता है। फिर भी, हैप्पी फ़्रेंडशिप डे दोस्तो!
ख़ुद के होने का एहसास दिलाते रहो।
ज़िंदा रहो।


- अभिषेक शुक्ल

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

अंग्रेज़ी में कहते हैं

जिस प्यार के होने का एहसास आपको साथ रहने पर न होता हो, छूटने पर वही प्यार सबसे ज़्यादा याद आता है।
ख़ालीपन में मोहब्बत की ज़रूरत इंसान को ज़्यादा होती है, जिसे किसी के साथ रहने पर समझना मुश्किल होता है।

बोलना, ख़ूबसूरत हुनर है। हमेशा नहीं, पर कभी-कभी तो ज़रूर।

उपेक्षा रिश्तों के लिए घुन की तरह है। किसी को एहसास हो जाए, तो गांठ का पड़ना तय है। फिर रिश्ते संभलते नहीं, बिखर जाते हैं।

जिन्हें रिश्तों को संभालना आता है, उन्हें कहना भी आता है।

अंग्रेज़ी में कहते हैं।
जो कहते हैं न 'उसे' देश की बड़ी आबादी कहने से कतराती है। ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि फ़ीलिंग नहीं है, बस हर डायरेक्ट बात को इनडायरेक्ट तरीक़े से कहने की आदत है। लोग ऐसा सोचकर चलते हैं कि सामने वाला समझता होगा। समझना हर बार सही तो नहीं होता?

अंग्रेज़ी तो ठहरी विदेशी भाषा, उसमें कौन मन की बात कहे, यहां तो हिंदी में भी कहना गुनाह है। ऐसा लगता है कि पुरखों ने मुंह पर 'अलीगढ़वा ताला' मार दिया है।

एक फ़िल्म है, जो हमारे आसपास की सच्चाई को दिखाती है। आम परिवारों की कहानी, जिसे हम रोज़ घटते हुए देखते हैं।



फ़िल्म का नाम है, 'अंग्रेज़ी में कहते हैं।'

 हीरो हैं संजय मिश्र। फ़िल्म में इनका नाम है यशवंत बत्रा।
हीरोइन एकावली खन्ना। इनके किरदार का नाम है किरण।

संजय की ख़ासियत है कि अपने किरदार को इतनी संजीदगी से निभाते हैं, पता नहीं चलता कि फ़िल्म देख रहे हैं या हक़ीक़त।

बिलकुल उस्ताद आदमी हैं।

एकावली खन्ना भी सधी हुई अभिनेत्री हैं। कौन कितने पानी में, बॉलीवुड डायरीज, डीयर डैड जैसी फ़िल्मों में झलक दिखला चुकी हैं लेकिन इस फ़िल्म में निखर आई हैं।

जो महिलाएं महसूस करती हैं, उन्होंने जिया है।

फ़िल्म देखते हुए आपको भी दीदी, भाभी, मौसी, मम्मी या बुआ याद आ सकती हैं।

कुछ लोग रिश्ते नहीं ज़िम्मेदारियां निभाते हैं। पत्नी से रिश्ता बस औपचारिक होता है।

सुबह नहाने के लिए तौलिया देना, चाय पिलाना, नाश्ता कराना और दफ्तर के टिफ़िन तैयार करके देना, पत्नी का यही प्यार है।

पत्नी दफ़्तर से घर आने के बाद पानी पिला देती है, रात में खाना बनाकर खिला देती है।
पति समझता है कि प्यार कम्प्लीट। ज़िम्मेदारियां निभाना ही प्यार है।

प्यार ज़िम्मेदारी नहीं है।

फ़िल्म में दो कहानी और भी है।

तीन लव स्टोरी है फ़िल्म में, एक-दूसरे से जुड़ी हुई। एक की वजह से यशवंत और किरण अलग होते हैं, दूसरी कहानी की वजह से जुड़ जाते हैं।

पंकज त्रिपाठी ब्रिजेन्द्र काला भी हैं फ़िल्म में। ब्रिजेन्द की कलाकारी औसत है, पर पंकज छोटी सी भूमिका में ही ग़ज़ब ढाए हैं।

पूरी कहानी नहीं लिख सकता, फ़िल्म की कहानी किसी से साझा करना क्राइम है।

वक़्त मिले तो देखिए। बेहद प्यारी कहानी है, शादीशुदा लोगों को अपनी ही कहानी लग सकती है। हालांकि फ़िल्म की कहानी ज़रा सी फ़िल्मी है। असल ज़िन्दगी में अपनी ग़लतियों का एहसास आदमी को कम ही हो पाता है। जिन्हें होता है, उनकी ज़िंदगी में गम के लिए जगह कम बचती है।

हां, फ़िल्म ज़रूर कुछ महीने पुरानी है। कहीं ऑनलाइन देखने का जुगाड़ कर लीजिए।

फ़िल्म देखने में ज़रा सुस्त सा आदमी हूं। कम देख पाता हूं। इसलिए ही इतने दिनों बाद इस फ़िल्म की याद आई। वक़्त मिले तो देखिएगा.....और हो सके तो यशवंत वाली ग़लती मत कीजिएगा, असली ज़िन्दगी में रिश्ते टूटते तो हैं लेकिन जुड़ने के मामले बेहद कम सामने आते हैं।

- अभिषेक शुक्ल।