जाल में उसकी उलझकर कुछ अभागे रो रहे हैं,
उम्रभर की सब कमाई आंसुओं में बह गई है
स्वप्न की कुटिया नयन के सामने वे खो रहे हैं।
पीर का विस्तार देखो हर तरफ जल ही भरा है
नाव के सौदागरों में कुछ थके हैं सो रहे हैं,
भार पतवारों पे इतना कि घिसटकर टूटते हैं
नाविकों के तन विवशता से मनुजता ढो रहे हैं।
कौन सी मिट्टी तुम्हारे बुद्धि के तट पर पड़ी है
नाश की सारी क्रियाएं क्यों तुम्हें उल्लास लगतीं,
भावना को भस्म कर जो तुम जगत से खेलते हो
मृत्यु की सारी कलाएं क्यों तुम्हें परिहास लगतीं।
सत्य है जीवन क्षणिक है किंतु इसमें दीर्घता है
जीव के अस्तित्व को मन से कभी स्वीकार कर लो,
कुछ पलों का भ्रम समझकर मान लो तुम जी रहे हो
नाश के आभास में ही प्राण का विस्तार कर लो.
(अभिषेक शुक्ल)
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