सोमवार, 25 सितंबर 2017

हार से भय खा रहे हैं

जीत के उन्माद में क्यों, हार से भय खा रहे हैं
सत्य से इतनी वितृष्णा, गान मिथ्या गा रहे हैं,
किस विधाता ने रचा है, भ्रम की ऐसी गति अकिंचन
झूठ के रथ पर धरे पग, सत्य पथ को जा रहे हैं।




















युक्ति कोई आज कह दो, मुक्ति से दो हाथ कर लूं
प्राण जो अटके युगों से, आज उनसे होंठ तर लूं,
सृष्टि के हर यम नियम से, बैर अपना है सनातन
तुम कहो जीवन सुधा दूं तुम कहो तो प्राण हर लूं।।

- अभिषेक शुक्ल

रविवार, 24 सितंबर 2017

छात्राओं को बर्बरता से पीट क्या साबित करना चाह रहे हैं बीएचयू के वीसी?

21 सिंतबर को शाम क़रीब 6 बजे के आसपास भारत कला भवन के सामने एक लड़की के साथ कुछ मनचले छेड़छाड़ करते हैं। लड़के बदतमीज़ी की सारी हदें पार कर जाते हैं। लड़की के कपड़ों के अंदर हाथ डालते हैं। लड़की चिल्लाती है। सुरक्षा गार्ड पास में होते हैं पर लड़की की चीख़ सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। थोड़ी ही दूर पर प्राक्टोरियल बोर्ड के कुछ सदस्य भी बैठे होते हैं। लड़की को चिल्लाते देखते हैं फिर भी सामने नहीं आते हैं।

ये सब तब हुआ जब रात का सन्नाटा भी नहीं पसरा था। लोगों की आवाजाही भी चालू थी। हमेशा की तरह नामर्द भीड़ क्यों कुछ बोले। कोई भीड़ की बहन थोड़े ही चिल्ला रही थी।

जहां की यह घटना है वहां से वीसी का चैंबर ज़्यादा दूर नहीं है। लड़की जब प्राक्टोरियल बोर्ड के पास शिकायत लेकर गई तो वहां किसी ने उसकी शिकायत नहीं सुनी। वार्डन से आपबीती बताने पर उसे ही इस घटना के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया गया। वार्डन का कहना था कि रात में क्यों तुम टहल रही थी।
मतलब कैंपस में लड़कियों को सुरक्षित रहने के लिए क़ैदखाने में रहना होगा क्योंकि प्रशासन उनकी सुरक्षा कर पाने में नाकाम है। उन्हें अगर सुरक्षित रहना है तो हॉस्टल नुमा जेल में दिन ढलते ही घुस जाना होगा, क्योंकि बाहर मनचलों पर लगाम लगा पाने में वीसी की सेना असमर्थ है।

मेन गेट के पास तीन दिन से लड़कियां विरोध प्रदर्शन कर रही हैं। कुलपति आवास की घेराई के लिए जब स्टूडेंट आगे बढ़े तो सुरक्षा कर्मियों ने उन पर जम कर लाठियां बरसाईं। घटना शनिवार क़रीब 10 बजे रात की है।

कुछ अराजक तत्वों ने आगजनी व पथराव शुरू किया तो वीसी ने पूरे कैंपस को पुलिस छावनी में बदल दिया। ये हिंसक प्रदर्शन लड़कियों ने नहीं किया था। लेकिन सज़ा उन्हें भी मिली।

अंधाधुंध हवाई फ़ायरिंग देखकर आसमान से बीएचयू को खड़ा करने वाले लोग भी शर्म से गड़ गए होंगे। बीएचयू में चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात है। सुनने में आ रहा है कि 20 थानों की फोर्स, 5 कंपनी पीएसी, हथियारों के साथ कैंपस में बुलाई गई है। कैंपस में धारा 144 लग गई है।
जहां पढ़ाई होनी थी वहां कुटाई हो रही है। लड़कियां इकट्ठी होकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रही थीं तो उन पर लाठी चार्ज कर दिया गया।

जिन्हें डराना था उन्हें नहीं डराया जा रहा है। जो शोषित हैं ये सारा प्रदर्शन उनके लिए है। कुछ बोलोगे तो कूटे जाओगे। हम लोकतंत्र में नहीं लोकतंत्र के वहम में जीते हैं। हर सरकार विरोध दबाने के लिए पुलिस की मदद लेती है। ऐसे कई अवसर आए हैं जब पुलिस ने साबित किया है कि वह आतंकियों से कम अराजक नहीं है।

16 दिसंबर 2012, निर्भाया कांड के विरोध में जब इडिया गेट पर 21 दिसंबर को लोग साथ आए थे तो उन पर आंसू गैस के गोले बरसाए गए थे। सैकड़ों लोग घायल हुए थे। पुलिस की अंधाधुंध लठबाज़ी किसी को नहीं पहचानती। तब कांग्रेस थी अब बीजेपी है। एक सेक्युलर थी दूसरी कट्टर है। पर अंतर कुछ भी नहीं है। सिर्फ़ सरकार चलाने वाले चेहरे बदल गए हैं तरीक़ा सबके पास वही है। जो सुने न उसे ठोक दो।

एक बात तो साफ़ है कि लड़कियां रात में निकलें और उनके साथ कुछ अनहोनी हो तो ज़िम्मेदारी उनकी ही होती है। इस धारणा को लोगों ने घोंट के पी लिया है। इससे पहले भी त्रिवेणी हॉस्टल के पास लड़कियों से छेड़छाड़ की घटनाएं सामने आईं हैं। शिकायतों को प्रशासन एक कान से सुनता है दूसरे से निकाल देता है। बीएचयू कैंपस में अब गुंडे सरेआम घूमते हैं। जैसे वीसी ने इन्हें अभयदान दे दिया हो, तुम जी भर आतंक मचाओ हम तुम पर आंच तक नहीं आने देंगे।

रात में हुए एक राउंड लाठी चार्ज के बाद एसएसपी अमित कुमार दौरे पर आए। उनसे लोगों ने पूछा कि लाठी चार्ज किसके आदेश पर हुआ तो वे ज़िम्मेदारी लेने की जगह मुकर गए। उन्होंने कहा कि ऐसी किसी घटना के विषय में उन्हें कोई सूचना नहीं है। हम तो ख़ुद लाठी चार्ज के विषय में जानकारी लेने आए हैं। कैंपस में उनकी एंट्री रोकने की भरपूर कोशिश छात्राओं ने की लेकिन उनका क़ाफ़िला रुका नहीं।

एएसपी अमित कुमार के लौटते ही एक बार फिर बेरहमी से लाठी चार्ज किया गया। महिला महाविद्यालय का गेट बाहर से बंद कर दिया गया था जिसकी वजह से एक लड़की बाहर रह गई थी, उसे चार-चार लोगों ने बुरी तरह से मारा। रात में ही एक लड़की की तबियत ख़राब हो गई तो लड़कियों ने गेट तोड़कर किसी तरह उसे हॉस्पिटल पहुंचाया।

https://www.facebook.com/writabhishek/posts/1629716767103791

प्रधानमंत्री भी वहीं के दौरे पर थे। उन्हें इस घटना के बारे में जैसे कुछ पता ही न हो। ट्विटर, फ़ेसबुक पे तो तस्वीरें भी आ गईं हैं उनके पूजन-हवन की। छात्राओं की उम्मीदें भी भष्म हो रही हैं शायद प्रधान मंत्री जी न देख पा रहे हों। ‘पिंजड़े में रहो सुरक्षित रहोगी’ अच्छी टैगलाइन बनेगी। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ से अच्छा नारा तो यही है। इतनी कंट्रोवर्सी करा कर वीसी ने ख़ुद का नंबर तो सत्ता की नज़रों में बढ़ा ही लिया होगा।

( यह मेरी ग्राउंड रिपोर्टिंग नहीं है, यह रिपोर्ट वहां पढ़ने वाली महिला महाविद्यालय की एक छात्रा के साथ मेरी  बात चीत पर आधारित है)

साभार: लोकल डिब्बा

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

जब सवार हुईं आंटी जी पर माता जी

कॉलेज के आख़िरी दिनों में हमारे रहने का ठिकाना बना मेरठ के गंगानगर का एम ब्लॉक। जिस मकान में हम रहते थे उसी के बग़ल में एक आंटी जी रहती थीं।
आंटी जी लीडर थीं। कोई न कोई महिला फ़रियादी उनके घर के बाहर अरदास लगाने पहुंची रहती। सप्ताह के किसी एक दिन आंटी जी के घर पर मोहल्ले भर की महिलाओं का जमवाड़ा लगता था। शुरूआती दिनों में लगा कि हर हफ़्ते आंटी जी का कुनबा बढ़ रहा है तभी पड़ोसियों को इकट्ठा कर के आंटी जी सोहर गाती हैं लेकिन बाद में पता लगा कि आंटी जी पर माता जी सवार होती हैं।

आंटी जी वैसे तो बहुत सामान्य रहती थीं लेकिन जब देवी जी सवार होती थीं तो अंकल जी उन्हें महिषासुर नज़र आते थे। ग्लास-थाली, चौका-बेलन, जो भी आंटी जी के हाथ लगता, अंकल जी पर उसे चला देतीं। अंकल जी थे तो बहुत बड़े कांइया लेकिन लेकिन देवी मां के प्रति इतनी अगाध श्रद्धा थी कि आंटी जी के हर प्रहार को दैवीय कृपा मानकर सह लेते थे।

आसपास की महिलाएं पूजा की थाली लेकर आंटी जी की आरती उतारने दौड़ी चली आती थीं। एक-दो-तीन-चार, मैया जी की जय-जयकार और अम्बे तू है जगदम्बे काली जैसे भजन सुनकर ही आंटी जी अपने विकराल रूप से सामान्य रूप में वापस आ पाती थीं।

आंटी जी से कोई ख़ास रिश्ता शुरूआती दिनों में नहीं बना लेकिन जैसे ही निखिल जी की एंट्री गंगानगर में हुई आंटी जी हम पर भी मेहरबान हो गईं। निखिल जी की हमसे दोस्ती, कॉलेज के आख़िरी महीनों में हुई। दिल्ली से रोज़ मेरठ पढ़ने आने वाले कॉलेज के इकलौते छात्र निखिल जी ही थे।

निखिल जी अद्धुत व्यक्तित्व के स्वामी हैं। सीधे, सच्चे और सरल। घनघोर गर्मी में भी निखिल जी फ़ुल शर्ट पहनते और पंखा बंद कर पढ़ाई करते। जब उनसे हम लोग पूछते फ़ैन क्यों ऑफ़ है तो निखिल जी मासूमियत से जवाब देते, ‘वो क्या है न कि पंखा शोर मचाता है तो पढ़ाई में डिस्टर्बेंस होती है, इसलिए मैं फ़ैन ऑफ़ करके रखता हूं।‘

उन्हें सतयुग में पैदा होना था लेकिन ख़राब टाइमिंग के चलते असमय कलियुग में अवतार लेना पड़ा। निखिल जी को लगा कि दिल्ली से रोज़ आने-जाने में पढ़ाई चौपट हो जा रही है तो रूम की तलाश में हमारे पास आ गए। हमने उन्हें आंटी जी के मकान में रूम दिला दिया। दिन भर निखिल जी कॉलेज में रहते थे इसलिए आंटी जी का विकराल रूप कभी देख नहीं पाए।

निखिल जी के रूम के बग़ल में ही आंटी जी का रूम था। एक दिन नवरात्रि में किसी दिन आंटी जी पर माता जी सवार हो गईं। जटाजूट खोल कर आंटी जी ने महाकाली का रूप धर लिया। अंकल जी पर हथियारों की बरसात करने लगीं। संयोग से निखिल जी अपने रूम में ही थे। बर्तनों का शोर सुनकर निखिल जी बाहर आए तो देखा कि अंकल जी हाथ जोड़ कर आंटी की स्तुति कर रहे हैं और आंटी जी उन्हें धुनके जा रही हैं। निखिल जी ने जीवन में कभी ऐसा दृश्य नहीं देखा था। बेचारे डर से सांस नहीं ले पा रहे थे। किसी तरह दरवाज़ा खोलकर बाहर भागे और जान बचाकर हमारे रूम की ओर सरपट दौड़े।

वीरू भइया उनसे पूछते रह गए क्या हुआ लेकिन बेचारे कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे। जब सामान्य हुए तो बताया कि आंटी जी को जाने क्या हो गया हो गया है वह अंकल जी पर टूट पड़ी हैं। अंकल जी उनकी आरती उतार रहे हैं।

वैसे तो निखिल जी को हम अपने रूम पर रोकने की लाख कोशिश करते तब भी नहीं रुकते लेकिन उस दिन के बाद से तीन-चार दिन तक निखिल जी अपने रूम में ही नहीं गए। उन्हें लगता कि फिर आंटी जी अपने विकराल रूप में आ जाएंगी। निखिल जी कई दिन तक कांपते रहे आंटी जी का रौद्र रूप देखने के बाद। डर की वजह से रात में उठ-उठ बैठ जाते बेचारे निखिल जी। वीरू भइया के लाख समझाने के बाद भी निखिल जी कई दिन तक अपने रूम में झांकने भी नहीं गए। जब आंटी जी घर में नहीं होती थीं तब घुसते थे और उनके आने से पहले ही रूम से निकल लेते थे।

निखिल जी ठहरे दिल्ली वाले। इस तरह के माहौल से बेचारे अपरिचित थे। हम ठहरे गांव वाले जहां रोज़ ही किसी न किसी पर माता जी सवार हो जाती थीं।

मेरे गांव में जो जितनी ही दूर से बदबू करे माता जी उसी पर सवार होती हैं। इसी चक्कर में मेरे गांव मे कई लीटर पानी बच जाता है। नवरात्रि के दिनों में घर-घर में देवी मां सवार हो जाती हैं। जिस पर भूत-प्रेत का साया हो उस पर भी। इन दिनों में बेचन सोखा की किस्मत चमक जाती है। माता जी को ख़ूब देसी मुर्गे का भोज चढ़ता है जिसे खाने का एकाधिकार बेचन सोखा के परिवार वालों को ही होता है। ख़ूब पूजा चढ़ाई जाती है। भूत-प्रेत, लगहर, जिन्नाद, मइलहिया, बंगलिया और न जाने कौन कौन बेचन सोखा के आगे नतमस्तक हो जाते हैं। बेचन सोखा इन सबसे सीधा संवाद करते हैं। देवी मां को भी ऐसे डांटते हैं जैसे कोई अपने बच्चे को डांटता है।

गांव हमेशा से उत्सवधर्मी रहे हैं। नौ-दस दिन गांव का माहौल देखने ही लायक होता है। लाउडस्पीकर पर माता जी का भजन देवराज इंद्र के कानों के पर्दे भी फाड़ देता है। अगर किसी भौजी या काकी के हाथ में माइक आ जाए तो माहौल ही बदल जाता है। ऐसे ऐसे लोकगीत सुनने को मिलते हैं जो कहीं और सुनने को न मिलें।

शाम को पर्दा वाले वीडियो पर रामायण, महाभारत देखने के लिए उमड़ी अपार भीड़, मोदी की रैली से ज़रा भी कम नहीं होती। जिसे जो जगह मिली वो वहीं बैठ जाता है। जैसे ही पर्दे पर अरूण गोविल नज़र आते हैं माहौल भक्तिमय हो जाता है। सब हाथ जोड़कर भक्तिभाव से बैठ जाते हैं। ऐसा लगता है कि मेरा गांव अयोध्या हो गया है। भगवान राम सामने खड़े हैं।
एक-दो सीडी रामायण देखने के बाद मिथुन चक्रवर्ती या सनी देओल की फ़िल्म लग जाती है। प्यार-मोहब्बत वाला हीरो तो गांव में आज भी मेहरा ही कहा जाता है। मेहरा को हिंदी में स्त्रैण कहा जाता है। इससे आसान अर्थ मुझे नहीं पता। मिथुन की फ़िल्में मातम वाली होती हैं लेकिन बिना उनकी फ़िल्मों के, कहां मेरे गांव में कोई उत्सव मन पाता है।

नवरात्रि का दूसरा दिन है। दिल्ली में किसी पर्व का पता नहीं लगता। लोग समझदार हैं। उत्सवों से बहुत दूर हो चुके हैं। लोगों के पास ख़ुद के लिए वक़्त नहीं होता तो ढकोसलों की बात कौन करे।

लोग कहीं मिलते हैं तो बातचीत का विषय भी राजनीति के दायरे से बाहर नहीं निकल पाता। मेरे धंधे में तो और नरक मचा रहता है। कौन किसका हाल पूछे, हाल तो बस राहुल और मोदी का लोग जानना चाहते हैं। उत्सव सबकी ज़िंदगी से ग़ायब है। राजनीति ने बहुत सधे हुए क़दमों से लोगों को बांट दिया है। लोग पार्टियों के यहां दिमाग़ गिरवी छोड़ आए हैं। अब लोग असहमत होने पर गला भी दबा सकते हैं। बंटवारे के कई स्तर हो गए हैं। धर्म-जाति और संप्रदाय सब आजकल प्रासंगिक हो गए हैं। ख़ैर यह सब तो आदिकाल से होता आ रहा है।

दशहरा और मुहर्रम एक साथ आ रहे हैं। दंगें भड़काने वाले पूरी कोशिश में होंगे कि शहर जले। जितना बड़ा दंगा होगा उतना ही बड़ा नेता तैयार होगा।
पूर्वांचल के गांव अब भी दंगों से बचे हुए हैं। शायद इंसानियत बची है लोगों में। दशहरे पर देवी मां की मूर्तियां बनवाने के लिए चंदा मुसलमान भी देते हैं। ताज़िए आज भी मुस्लिमों से कहीं ज़्यादा हिंदू बनवाते हैं।

अब डर लगता है, नफ़रत गांवों में भी न पसर जाए। लोग बुद्धिमान हो रहे हैं। डिजिटल इंडिया के क़दम गांवों में भी पड़ गए हैं। सोशल मीडिया की भी एंट्री हो चुकी है। फ़ेक ख़बरों का मायाजाल तेज़ी से फैल रहा है। कहीं गांव वाले भी शहरों की समझदार हो गए तो सुकून सपना हो जाएगा। डर लग रहा है क्योंकि मेरा देश बदल रहा है।
भटका हुआ आलेख पढ़ने के लिए शुक्रिया, लिखना कुछ और था लिख कुछ और गया। मिलते हैं.......

( यह लेख मैंने सबसे पहले लोकल डिब्बा के लिए लिखा है, यहां केवल सुरक्षित करने के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है।)

-अभिषेक शुक्ल

लोकल डिब्बा www.localdibba.com

बुधवार, 6 सितंबर 2017

काका जी के बेटा लाख रूपया महीना कमाता है

काका इलाक़े के बड़े ज़मींदारों में से एक है। उनके दो बेटे और दो बेटियां हैं। बड़ा बेटा इंजीनियर है, किसी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता है। छोटा बेटा भी इंजीनियर है। लड़कियां भी नाम रोशन कर रही हैं। बड़ी लड़की प्राइमरी स्कूल में टीचर है, छोटी भी कहीं सरकारी नौकरी कर रही है।

काका अपनी संपन्नता का ढिंढोरा पीटने से नहीं चूकते हैं। गांव-जवार में ये बात दूर दूर तक फैली है कि काका का बेटा लाख रूपए महीने कमाता है। काका के गांव वालों ने जब पहली बार, एक लाख कमाने वाले इंजीनियर बेटे के बारे में सुना तो तीन चार महीने तक ठीक से खाना उन्हें नहीं हज़म हुआ। लोग ज़मीन-जायदाद  बेचकर अपने बच्चों को बीटेक कराने लगे। पहले गांव में शराब पानी की तरह पीया जाता था। शाम होते ही सबके घरों में सोमरस का सामूहिक वितरण शुरू हो जाता लेकिन काका के परिवार की संपन्नता ने सबको सचेत कर दिया। शराब पीकर टुन्न रहने वाले गांव के लोगों ने अपने बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। ये सब काका का कमाल था।

हैरत की बात यह थी कि जब तक काका के बेटे की शादी नहीं हुई थी तब तक हर छह महीने के बाद, बेटे की कमाई में तीस हज़ार का इजाफ़ा हो जाता था। दिन दूनी रात चौगुनी वाली कहावत, काका के घर जाकर ही चरितार्थ होती थी।

दरअसल चार साल पहले तक काका, बेटे की कमाई को बढ़-चढ़ कर इसलिए बताते थे कि उनके बेटे की शादी नहीं हुई थी। शादी के लिए जो रिश्ते वाले आ रहे थे उनकी हैसियत काका से कम थी। भला काका कैसे ऐसे लोगों से रिश्ता कर लेते? काका के हैसियत का कोई परिवार ज़िले में तो था नहीं, रिश्ता किसके यहां करते?  किसी के पास पैसा था तो ख़ानदान नहीं ठीक नहीं था। खेती कम थी। अब काका तीस चालीस बीघे वाले किसी मामूली आदमी के यहां कैसे बेटे की शादी कर लेते। काका को तो पता था कि इतने खेत तो दहेज़ के पैसे इकट्ठे करने में ही बिक जाएंगे।

काका सामाजिक मंचो पर अक्सर कहते कि दहेज़ समाज का कोढ़ है। इस कोढ़ का इलाज करना ज़रूरी है। समाज के लोग लालची हैं, भेड़िए हैं। बोलते कुछ हैं करते कुछ हैं। काका महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानते थे। सामाजिक समता पर बहुत अच्छा प्रवचन देते थे।

काका को बोलने का बहुत शौक़ है। पुराने कांग्रेसी नेता हैं। काका के कुर्ते-पायजामे में नील-टीनेपाल बरहो मास लगा रहता है। जब कांग्रेस का इतिहास बताते हैं तो कई बार लगता है कि काका ही ओ.एच ह्यूम हैं, काका ही नेहरू हैं। देश की ग़ुलामी से लेकर आज़ादी तक का सफ़र काका बहुत ख़ूबसूरती से समझाते हैं।

एक वक़्त तक काका की बातों को मैं बहुत ध्यान से सुनता था। काका की उच्च आदर्शवादी बातें मुझे बहुत अच्छी लगती थीं।
जब बात अपने बेटे की आई तो काका लड़की वालों से लाखों दहेज़ मांगने लगे। कुछ लोग तैयार भी हुए दहेज़ देने के लिए लेकिन लड़की पसंद नहीं आई। इंजीनियर बेटे की बहू तो कम से कम फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली होनी ही चाहिए। बेटा हाई क्लास स्टैंडर्ड वाला तो बहू देहाती कैसे चलेगी। काका कहते भी थे कि मेरा बेटा हवाई हवाई जहाज़ से ही आता जाता है। अब किसी ऐसी लड़की से तो शादी नहीं करेंगे न कि जिसके पैर एअरपोर्ट पर पहुंचते ही कांपने लगें।

काका वर्षों तक परेशान रहे। एक दिन काका के घर रिश्ता लेकर काका के हैसियत के बाराबर का परिवार आया। बराबर क्या बीस। लड़की केमेस्ट्री से डॉक्टरेट कर चुकी थी। काका सुबह सुबह घर आए। वह ऐसे ख़ुश लग रहे थे कि जैसे प्रधानी का चुनाव निर्विरोध जीत गए हों।

घर आते ही मम्मी के हाथ में होने वाली बहू की सीवी थमा दी और कहा देखिए डॉक्टर बहू मिल रही है, सीवी देखिए।

घर पर मुक़दमें की फ़ाइलें आती थीं, सीवी क्या जाने मम्मी?  मम्मी ने कहा ऐसे शुभ मौके पर मुक़दमा कौन लाता है? लड़की की फ़ोटो दिखाइए।
काका ने कहा मुक़दमे की फ़ाइल नहीं है, यह लड़की के अकादमिक उपलब्धियों का दस्तावेज़ है। पढ़िए इसे, फ़ोटो भी इसी में है।
मम्मी ने मुझसे चश्मा मांगा। चश्मा तो नहीं मिला लेकिन सीवी मिल गई। मैंने कहा मम्मी मैं पढ़ता हूं। फ़ाइल खुली तो पन्ने ही पन्ने नज़र आए। वज़न किसी मिनी किताब के बराबर।

पता नहीं कितनी पढ़ाई की थी भाभी जी ने। लखनऊ विश्वविद्यालय से कमेस्ट्री में पीएचडी और ऑल टाइम गोल्ड मेडलिस्ट। देश की कई प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिकाओं में उनके आलेख छप चुके थे।
नैन नक्श भी बेहद ख़ूबसूरत। लड़की के क़दम एअरपोर्ट क्या, युनाइटेड नेशन असेंबली में भी न कांपे।

काका ने पूछा भाभी पसंद आईं न बेटा। मैंने काका का जवाब नहीं दिया बल्कि उनसे पूछ बैठा, काका!  भइया ने क्या किया है?  काका ने शान से कहा कि बीटेक।
मैंने पूछा, बस? मास्टर्स नहीं किया है ? उन्होंने कहा कि लाखों कमाता है फिर अब क्या करेगा पढ़ के?

कुछ और बोलता इससे पहले मम्मी ने मुझे चाय लाने के किचन में भेज दिया। काका, मम्मी से बताने लगे कि अट्ठारह लाख दहेज़ दे मिल रहा है और एक क्वालिस कार। काका सब कुछ बहुत गर्व से बता रहे थे। मुझे एहसास हुआ दहेज़  इकलौती ऐसी भीख है, जिसे ज़्यादा पाकर भिखारी को गर्व होता है।

काका जब जाने लगे तो मैंने काका से कहा, काका अगर मैं लड़की की जगह होता तो इस रिश्ते को कभी होने नहीं देता। लड़की को अपने स्तर के लड़के के साथ शादी करनी चाहिए। भइया नॉर्मल बीटेक हैं। सिंपल ग्रेजुएट। हज़ारों लड़के ज़िले में ही होंगे। मगर केमेस्ट्री से डॉक्ट्रेट करने वाले तो शायद गिनती के हों। मुश्किल से दो-चार।

इसके बाद भी अगर वो भइया के साथ शादी करने के लिए तैयार हैं तो आप इतना दहेज़ क्यों मांग रहे हैं?  वह तो भइया पर एहसान कर रही हैं कि उनके कम पढ़े लिखे होने बावजूद भी शादी करने के लिए तैयार हैं। अगर दहेज़ शादी में ज़रूरी है तो आप ही दे दीजिए उनके घर वालों को।

काका सन्न रह गए। मुझसे उन्हें ऐसी ऊम्मीद नहीं थी। वे मुझे बहुत मानते थे। उनकी नज़र में मुझसे संस्कारी बच्चा कोई था नहीं।
काका ने कहा जब बड़े हो जाओगे तो समझ जाओगे। अभी बच्चे हो। हालांकि तब मैं लॉ के चौथे सेमेस्टर में था। इंटर पास किए लगभग दो साल हो गए थे। मतलब बच्चा तो नहीं था।

ऐसे समाज में बहुत सारे काका हैं। हर लड़का शादी से पहले कलेक्टर होता है। लाखों में खेलता है। उससे योग्य लड़का आसपास में नहीं देखने को मिलता। मां-बाप लड़के की जितनी तारीफ़ हो सकती है रिश्तेदारों में करते रहते हैं। लड़के का रेट इससे बढ़ता है। मुंहमांगा दाम मिल जाता है। बेटा अच्छा उत्पाद है, मंहगे दाम में तो बिकना ही चाहिए। भले ही लड़का घनघोर निकम्मा हो लेकिन शादी से पहले तक तो वो राजकुंवर ही है। लड़के की सच्चाई तो मां-बाप जानते हैं, लड़की के घर वाले शादी होने से पहले तक क्या जानें?

लड़की वाले इस भ्रमजाल में उलझे रहते हैं दहेज़ देंगे तो लड़की सुखी रहेगी। दूल्हा ख़रीद लेते हैं लेकिन दूल्हे को ग़ुलाम नहीं बना कर रखते, लड़की ही दासी बन जाती है। पति परमेश्वर पर सब कुछ न्योछावर। बिटिया बोझ है, विदा कर दो घर से। कोई लड़का मिले नौकरी-चाकरी वाला विदा करो उसके साथ। मां-बाप तभी निश्चिंत रहेंगे।

लड़की की योग्यता किस काम की। कौन देखता है। लड़के वालों को दहेज़ चाहिए। लड़के की योग्यता उसका लड़का होना ही है।
ये सब तब तक होता रहेगा जब तक लड़कियां रिश्ते रिजेक्ट नहीं करेंगी। मां-बाप की सारी बातें मानने के लिए नहीं होतीं। थोड़ी बग़ावत ज़रूरी हैं। चौखट से बारात लौटाना ज़रूरी है। सगाई तोड़ने से ज़िंदगी नहीं टूटा करती। दूल्हा ख़रीद लेने से प्यार नहीं मिल जाता। रिश्तों के भरम से बाहर निकलने का सही वक़्त है। जिस घर में रिश्ते की सौदेबाज़ी होती हो वहां रिश्ता जोड़ना ठीक है क्या?

हां! बताना भूल गया काका और काकी ख़ुश नहीं हैं इन दिनों। बड़ी बहू को घर से कोई मतलब नहीं है। गांव भर में चर्चा फैल गई है।
अब काका का छोटा बेटा भी लाख रूपया कमाने लगा है। भले ही काका की दशा और दिशा बिलकुल न बदली हो। तलाश हो रही है नए ख़रीदार की। इस बार दूल्हे पर भी जीएसटी लग गया है। गांव-जवार में फिर शोर मचा है लाख रुपया कमाने वाले इंजीनियर की शादी होने जा रही है। रिश्ते आ रहे हैं। बोलियां लग रही हैं।

उम्मीद करता हूं कि इस बार काका के बेटे को ख़रीदार न मिले। मिल भी जाए तो लड़की बिकाऊ दूल्हे से शादी करने से इंकार कर दे।
काश!  काका की ये फसल न बिके। किसी लड़की में काका के इस प्रोडक्ट को दुत्कारने का साहस आ जाए। मोलभाव भाव वाला रिश्ता किसी को रास न आए। जानता हूं ऐसा होना नामुमकिन है....हमारे यहां दूल्हा बिकता है...ख़रीदार तो मिल ही जाएगा।

- अभिषेक शुक्ल