जिन्हें तुम जीवित समझ रही हो वे कटे वट वृक्ष की तरह निष्प्राण हैं. न इनमें जीवन है न ही ये तुम्हारे रक्षार्थ कभी खड़े हो सकते हैं. इनके कारण उम्र के ऐसे पड़ाव में तुम्हें परित्यक्ता होना पड़ेगा जब तुम्हारे वरण के लिए कोई पुरुष नहीं आएगा. समय के स्वयंवर में तुम अनब्याही ही रह जाओगी. मत भूलो तुम स्त्री हो और तुम्हें नोचने के लिए पुरुष तब से प्रतीक्षारत है जब से यह सृष्टि है.
हे पुरुष! कदाचित मुझे यह भ्रम हो रहा था कि तुम सभ्य हो गए होगे किन्तु यह मेरा नितांत भ्रम ही था. युग बदल गया लेकिन तुम्हारी बुद्धि यथावत रही.
तुम्हें प्रेम और स्वार्थ में तनिक भी अंतर नहीं समझ नहीं आया. मेरे शाश्वत प्रेम का आधार स्वार्थ पर सृजित नहीं हुआ है. मेरा प्रेम तुम्हारी मति से बहुत परे है. तुम्हें आज भी मैं नहीं, मेरी देह ही अभीष्ट है. जब तुम्हारे चिंतन के केंद्र बिंदु में मेरी देह है तो प्रेम कैसे समझोगे तुम?
मेरा अतीत भले ही कैसा भी रहा हो मेरा वर्तमान बहुत अलग है. मैंने अबला से सबला होने की यात्रा कई चरणों में पूरी की है. जब तुम्हें प्रेम पर विश्वास नहीं तो ईश्वर पर क्या होगा. यदि तुम्हें सनातन संस्कृति के सभी धर्मग्रन्थ कल्पना पर बुने लगते हों तो भी सुन लो मैं उन ग्रंथों की नायिका नहीं हूं. न मैं अहिल्या, न सीता हूं जिसे राम के आगमन की प्रतीक्षा है. न मैं द्रौपदी हूं जो अपने रक्षार्थ किसी कृष्ण को पुकारूंगी. मैं समर्थ हूं और अपनी आत्मरक्षा कर सकती हूं. मानसिक स्तर पर तो तुम मेरे समक्ष कहीं नहीं ठहरते लेकिन शारीरिक स्तर पर भी अब मैं तुमसे अधिक शक्तिशाली हूं.
जानती हो यह तुम्हारा भ्रम है. तुम भ्रम में ही जीती हो. यथार्थ तुम्हें भी विदित है. क्या करोगी जब पुरुष की बलिष्ठ बाहें तुम्हें जकड़ लेंगी और उस पाश से तुम स्वयं को मुक्त नहीं करा सकोगी. तुम्हारा चीखना-चिलाना व्यर्थ जाएगा और अंत में हार कर तुम समर्पण करोगी. पुनः तुम्हारी देह पर पुरुष का अधिकार ही होगा. तुम दासी थी और दासी ही रहोगी. भला पुरुष के समक्ष स्त्री की क्या सत्ता?
हाँ जानती हूं. तुम पुरुष हो तुम्हें हर तरह का छल-बल आता है. तुम मुझे घेर लोगे. मुझे भोग्या बनाना चाहोगे. मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा दैहिक, मानसिक और आर्थिक शोषण करना चाहोगे. तुम मुझे कुलटा कहोगे. मेरी पवित्रता को समाज पग-पग परखेगा. तुम चाहोगे कि मैं समाज से परित्यक्त कर दी जाऊं. किन्तु याद रखना मैं तुम्हारे किसी षड्यंत्र से दूषित नहीं होऊँगी. जीवन के कुछ पलों में तुम मुझसे अधिक शक्तिशाली रहे तो क्या हुआ क्या तुम्हारी शक्ति कभी क्षीण नहीं होगी क्या? सोचो उस पल मैं क्या करुँगी?
तुम्हारा मन सच स्वीकार नहीं कर पा रहा है. तुम अतीत में ही जी रहे हो. परिवर्तन ने दबे पाँव दस्तक दे दी है जिसे तुम्हारी मदांध आँखें देख नहीं पा रही हैं. मेरी देह पर तुम्हारा आधिकार नहीं है. जिसे तुम समर्पण की प्रत्याशा लगा बैठे हो वह अब विद्रोही हो चुकी है. तुम्हारे द्वारा प्रायोजित संस्कारों की परिधि से कब की निकल चुकी हूं. मुझे अब न आजीवन वैधव्य का डर है न ही अविवाहित रह जाने का.
तुम्हें तुष्ट करने के लिए मैं अब नहीं जीती. मैंने जीना सीख लिया है. कभी उच्छृंखलता पर तुम्हारा एकल अधिकार था अब मेरा भी है.
मुझसे डरो, तुम्हारे द्वारा रचित हर विधि-विधान को मैंने त्याग दिया है अब यदि तुम मुझे किसी बंधन में बांधना चाहोगे तो प्रतिकार सहने के लिए तैयार रहना. मैं अब न तो अबला हूं न ही असहाय. मेरी शक्ति उदायाचलगामी सूर्य की तरह है, मेरे समीप भी आओगे तो जल जाओगे.
सावधान हो जाओ मनुपुत्रों! तुमने मुझे दुर्गा, काली, रणचंडी और छिन्नमस्ता के रूप में पूजा है न? अब मैं अवसर आने पर उसी रूप में तुम्हारे सामने आऊंगी. तुम पूजा करो या प्रतिकार यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है.
सतर्क रहना! अब मैंने सहना छोड़ दिया है.
हे पुरुष! कदाचित मुझे यह भ्रम हो रहा था कि तुम सभ्य हो गए होगे किन्तु यह मेरा नितांत भ्रम ही था. युग बदल गया लेकिन तुम्हारी बुद्धि यथावत रही.
तुम्हें प्रेम और स्वार्थ में तनिक भी अंतर नहीं समझ नहीं आया. मेरे शाश्वत प्रेम का आधार स्वार्थ पर सृजित नहीं हुआ है. मेरा प्रेम तुम्हारी मति से बहुत परे है. तुम्हें आज भी मैं नहीं, मेरी देह ही अभीष्ट है. जब तुम्हारे चिंतन के केंद्र बिंदु में मेरी देह है तो प्रेम कैसे समझोगे तुम?
मेरा अतीत भले ही कैसा भी रहा हो मेरा वर्तमान बहुत अलग है. मैंने अबला से सबला होने की यात्रा कई चरणों में पूरी की है. जब तुम्हें प्रेम पर विश्वास नहीं तो ईश्वर पर क्या होगा. यदि तुम्हें सनातन संस्कृति के सभी धर्मग्रन्थ कल्पना पर बुने लगते हों तो भी सुन लो मैं उन ग्रंथों की नायिका नहीं हूं. न मैं अहिल्या, न सीता हूं जिसे राम के आगमन की प्रतीक्षा है. न मैं द्रौपदी हूं जो अपने रक्षार्थ किसी कृष्ण को पुकारूंगी. मैं समर्थ हूं और अपनी आत्मरक्षा कर सकती हूं. मानसिक स्तर पर तो तुम मेरे समक्ष कहीं नहीं ठहरते लेकिन शारीरिक स्तर पर भी अब मैं तुमसे अधिक शक्तिशाली हूं.
जानती हो यह तुम्हारा भ्रम है. तुम भ्रम में ही जीती हो. यथार्थ तुम्हें भी विदित है. क्या करोगी जब पुरुष की बलिष्ठ बाहें तुम्हें जकड़ लेंगी और उस पाश से तुम स्वयं को मुक्त नहीं करा सकोगी. तुम्हारा चीखना-चिलाना व्यर्थ जाएगा और अंत में हार कर तुम समर्पण करोगी. पुनः तुम्हारी देह पर पुरुष का अधिकार ही होगा. तुम दासी थी और दासी ही रहोगी. भला पुरुष के समक्ष स्त्री की क्या सत्ता?
हाँ जानती हूं. तुम पुरुष हो तुम्हें हर तरह का छल-बल आता है. तुम मुझे घेर लोगे. मुझे भोग्या बनाना चाहोगे. मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा दैहिक, मानसिक और आर्थिक शोषण करना चाहोगे. तुम मुझे कुलटा कहोगे. मेरी पवित्रता को समाज पग-पग परखेगा. तुम चाहोगे कि मैं समाज से परित्यक्त कर दी जाऊं. किन्तु याद रखना मैं तुम्हारे किसी षड्यंत्र से दूषित नहीं होऊँगी. जीवन के कुछ पलों में तुम मुझसे अधिक शक्तिशाली रहे तो क्या हुआ क्या तुम्हारी शक्ति कभी क्षीण नहीं होगी क्या? सोचो उस पल मैं क्या करुँगी?
तुम्हारा मन सच स्वीकार नहीं कर पा रहा है. तुम अतीत में ही जी रहे हो. परिवर्तन ने दबे पाँव दस्तक दे दी है जिसे तुम्हारी मदांध आँखें देख नहीं पा रही हैं. मेरी देह पर तुम्हारा आधिकार नहीं है. जिसे तुम समर्पण की प्रत्याशा लगा बैठे हो वह अब विद्रोही हो चुकी है. तुम्हारे द्वारा प्रायोजित संस्कारों की परिधि से कब की निकल चुकी हूं. मुझे अब न आजीवन वैधव्य का डर है न ही अविवाहित रह जाने का.
तुम्हें तुष्ट करने के लिए मैं अब नहीं जीती. मैंने जीना सीख लिया है. कभी उच्छृंखलता पर तुम्हारा एकल अधिकार था अब मेरा भी है.
मुझसे डरो, तुम्हारे द्वारा रचित हर विधि-विधान को मैंने त्याग दिया है अब यदि तुम मुझे किसी बंधन में बांधना चाहोगे तो प्रतिकार सहने के लिए तैयार रहना. मैं अब न तो अबला हूं न ही असहाय. मेरी शक्ति उदायाचलगामी सूर्य की तरह है, मेरे समीप भी आओगे तो जल जाओगे.
सावधान हो जाओ मनुपुत्रों! तुमने मुझे दुर्गा, काली, रणचंडी और छिन्नमस्ता के रूप में पूजा है न? अब मैं अवसर आने पर उसी रूप में तुम्हारे सामने आऊंगी. तुम पूजा करो या प्रतिकार यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है.
सतर्क रहना! अब मैंने सहना छोड़ दिया है.