पुष्पों के मन की अभिलाषा
नहीं थी कभी मनुज को ज्ञेय,
मौन विषयक मृदु भावों पर
बुद्धि ने लिया नहीं कुछ श्रेय।
पुष्प की नियति मृत्यु की भेंट
मनुज उसे तोड़ बहाएगा,
है तो करकट ही राहों का
पंकों को क्यों अपनाएगा।
पुष्प का रूप उसका दुर्भाग्य
तोड़ कर मानव देता फेंक,
स्वार्थ फिर उसी स्वार्थ का त्याग
मनुज के अपराधों में एक।।
-अभिषेक शुक्ल
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