गालिब तेरे शहर में
उलझी सी ज़िंदगी है
रूठा सा रहनुमा है,
हैरान है तबीयत
किस बात का गुमाँ है?
एक सुर्ख़ हक़ीक़त है
गुमसुम सी आकिबत है,
इस दिल के मसले ऐसे
हर बात फ़ज़ीहत है;
क्या शायरी कहूँ मैं
क्यों क़ाफ़िया मिलाऊँ,
तेरे शहर में ग़ालिब
हर लफ्ज़ मुसीबत है।।
-अभिषेक शुक्ल
वाह..बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-01-2016) को "देश की दौलत मिलकर खाई, सबके सब मौसेरे भाई" (चर्चा अंक-2225) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार गुरू जी।।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंक्या बात है .. शिकायत ग़ालिब से ... लाजवाब ...
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