जब तम की ऐसी आँधी हो,
जब विपद विपत् सा लगने लगे
मन ही मन का अपराधी हो,
तब बंद कपाटों को खोलो
और रश्मि धरा पर आने दो,
जो तिमिर उठे अंतर्मन में
उनका अस्तित्व मिटाने दो।
निशा घेर ले जिस मन को
उसे शान्ति कहाँ मिल पाती है?
दिशा हीन सा मन भटके
पर मुक्ति नहीं मिल पाती है;
सुख दुःख की रलमल सी झाँकी
नयनो के आगे आती है,
मृगतृष्णा में घोर वितृष्णा
मन को सहज लुभाती है।
स्वायत्य सखे! तुम अब जागो
मन से तम की चादर खींचो
जीवन प्रतीत हो मरुस्थल
तो मन को सागर से सींचो,
सोचो! तुमसे अनभिज्ञ है क्या
ये धरा, गगन या दूर क्षितिज
मानव जब सद्संकल्प करे
यह जग कैसे न रहे विजित ??
(हरिद्वार गया था कुछ दिन पहले_ऐसे दर्शन तो यहाँ राह चलने वाले दे देते हैं)
"दिशा हीन सा मन भटके
जवाब देंहटाएंपर मुक्ति नहीं मिल पाती है;
सुख दुःख की रलमल सी झाँकी
नयनो के आगे आती है"
बहुत सुंदर कविता अभिषेक जी !
सेल्फ़ी भी अच्छी है
आभार भाई!
हटाएंआपको पसंद आई तो मेरी मेहनत टार गयी :)
शब्द और भाव का सुंदर संगम
जवाब देंहटाएंमन को छूती और विचार देती बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबधाई
निशा घेर ले जिस मन को
जवाब देंहटाएंउसे शान्ति कहाँ मिल पाती है?
दिशा हीन सा मन भटके
पर मुक्ति नहीं मिल पाती है;
सुख दुःख की रलमल सी झाँकी
नयनो के आगे आती है,
मृगतृष्णा में घोर वितृष्णा
मन को सहज लुभाती है।
स्वागत अभिषेक जी ! मन के भावों और शब्दों का सुन्दर संयोजन