मंगलवार, 10 मार्च 2015

किस्मत की मार

कभी-कभी समाज कुछ ऐसी झलकियाँ दिखता है जो अकारण ही अवसाद का कारण बनती हैं।
आज सुबह-सुबह पापा से मिलने पुद्दन पहलवान आए, उनकी एक खास बात है ये है कि वो पापा से या तो अपने मुक़दमे की तारीख़ पूछने के लिए आते हैं या किसी को लेकर आते हैं जो कभी पुलिस वालों से तो कभी गावँ के दबंगों का सताया हुआ होता है। पापा दीन दुनिया के जितने लुटे हुए लोग होते हैं उन्ही का केस लड़ते हैं।कभी-कभी लगता है कि विधिक आचार के समस्त यम और नियम अकेले मेरे पापा ही अपनाते हैं। पीड़ित को न्याय मिले भले ही खर्चा अपने जेब से जाए, पर न्याय अवश्य मिले।
आज पुद्दन काका के साथ दो बिलकुल डरे हुए लोग आए। पूछने पर पता चला दोनों बाप-बेटे हैं। गरीबी चेहरे से ही झलक रही थी। बाप करीब अस्सी साल का रहा होगा और बेटा लगभग पचास साल का। शक्ल से दोनों बीमार लग रहे थे लगें भी क्यों न गरीबी अपने आप में एक बीमारी है जिसका इलाज़ बस रब के हाथ में है।
पापा खाना खाकर बहार निकले तो पता चला की झूठे दावे का केस है। पुलिस आई और बाप-बेटों को हड़का के चली गयी। पापा ने विस्तार से पूछा तो पता चला कि पुलिस ने पूरे घर का मुआयना किया और पीड़ितों पर लाठी बजा कर चली गई।
विरोधी दमदार रहे तो गरीब बेचारे की जान जाती ही है। वैसे भी हमारे देश में पुलिस वालों को हड्डी फेंक दी जाए तो काम पूरे मनोयोग से करते हैं।
पैसे में बड़ा दम है पुलिस वाले तो वैसे भी  डाकू होते हैं।
एक निवेदन अपने हमउम्र मित्रों से है आप सब भविष्य हो भारत के जिस दिन कोई उच्च संवैधानिक पद मिले जिससे पुलिस वालों को आप हड़का सकें, पुलिस वालों का इतना शोषण करना कि ये खून के आँसू रोएँ। इन्हें तिरस्कृत करना, अपमानित करना और कुत्ता बना के रखना क्योंकि भारतीय पुलिस इसी योग्य है। सबसे भ्रष्ट कौम पुलिस ही है। इतना उत्पीड़ित करना इन्हें कि आत्महत्या करने की नौबत आ जाए.....ख़ुदा बहुत नेक दिल है तुम पर रहम करेगा।
देखो विस्तार के चक्कर में तो असली बात ही भूल गया।
मेरे गावँ से थोड़ी ही दूर पर यादवों का एक गावँ है। अब हल्की बिरादरी तो है नहीं ये..लालू और मुलायम जैसे प्रतापी इस वंश में पैदा हुए हैं। जोखू और लौटन भी जाति से यादव हैं। बस जाति से यादव हैं पर यादवों जैसे गुण नहीं हैं। जोखू बाप हैं और लौटन बेटे। बेटा बाप से अधिक उत्साही लगता है किन्तु बेटा बहुत कमजोर दिखता है। कमजोर है भी तभी तो करीब अठ्ठाइस
बरस पहले पत्नी छोड़ कर चली गयी थी। लौटन की पत्नी ने दूसरी शादी कर ली बगल के ही गावँ में। एक पति के लिए सबसे बड़ा दर्द यही है कि पत्नी छोड़ के चली जाए।
गावँ में हरिजनों की संख्या भी कम नहीं है कभी दलित-शोषित थे पर आज बाहुबली हैं। धन किसी को भी दुराचारी बना सकता है। एक पीड़ा का दर्द बेचारा विगत दो दशक से झेल रहा था कि अचानक एक झूठे केस में फंस गया। केस बना हरिजन उत्पीड़न का।
एक व्यथित और शोषित व्यक्ति क्या उत्पीड़न करेगा पर कानून इसे कब मानता है? कानून भावनाओं से कब चलता है। भारत की भ्रष्ट शासन व्यवस्था से अनभिज्ञ कौन है। लौटन और जोखू झूठे केस में जेल काट के आये हैं। घर की जो जमा पूँजी थी वो जमानत में खर्च हो गई। बाहर आए तो मुकदमा चला, वकील से लेकर हाकिम तक सब पैसे चूसने वाले होते हैं। आमदनी का साधन खेती था। करीब पंद्रह बीघे जमीन थी जिसमे पाँच बीघा बेचना पड़ा। खरीदने वाला दबंग निकला कुछ हज़ार देकर लाखों का माल हड़प लिया। पैसा मांगने बाप-बेटे जाते हैं पर दुत्कार और धमकी के अलावा कुछ नहीं मिलता। सत्ता से सहयोग मिलने से रहा.. बड़ी मछली छोटी मछली वाली कहावत तो अपने सुनी ही होगी।
किसी-किसी पर समय का ऐसा प्रकोप चलता है कि विपत्ति पर विपत्ति आती रहती है। इतना कम न था कि एक मुकदमा और हो गया। इस बार पूर्व पत्नी ने दावा किया कि उसका बड़ा बेटा लौटन का है। महिला के बड़े बेटे की उम्र लगभग बीस वर्ष की है। बड़ा बेटा लौटन के एकाकीपन के लगभग आठ वर्षों बाद पैदा हुआ। भारतीय डाक भी शायद इतने सालों बाद डिलिवरी न करे जितने सालों के विलगन के फलस्वरूप पुत्र रत्न का जन्म हुआ। महामिलन का इतने वर्षों बाद परिणाम तो महाभारत काल में भी नहीं आता था पर कलियुग में तो कुछ भी हो सकता है।
जोखू ने पापा से कहा कि सरकार! हमार लरिकवा नामर्द है। एकरे कौने मेर लड़िका होइ जाई?
(मेरा लड़का नामर्द है, ये कैसे बाप बन सकता है।)
लौटन की पूर्व पत्नी ने थाने में पैसे देकर जोखू के घर की नपाई करा ली है। गावँ वाले चाहते हैं की बाप-बेटे घर से निकल जाएँ। बाप-बेटे दोनों घबराए हुए लग रहे हैं। जमीन छिनने का डर साफ़ तौर पर झलक रहा है। पहले से गरीबी का दंश, चौतरफा शोषण और अब ये नया ड्रामा। पहले से मुश्किलें कम न थीं जो एक और आ टपकी।
सच्चाई जो भी हो मुझे नहीं पता पर उन्हें देख कर मुझे रोना आ गया। एक बाप जो जीवन के अंतिम पड़ाव में है। उसकी कोशिश है कि जीवन के अंतिम पलों में राहत मिले पर राहत, चैन तो धनाढ्यों के लिए है। गरीब तो दुःख सहने के लिए ही पैदा होते हैं।
एक वक़ील के दिन की शुरुआत कुछ इसी तरह होती है। हर दिन एक नई कहानी..एक नया दुखड़ा।
पापा की अब आदत हो गई है ऐसे किस्सों से निपटने की। भइया के लिए अनुभव नया है पर धीरे-धीरे भावुकता कम हो रही है। मैं अधर में हूँ। इस कशमकश में हूँ कि इस भ्रष्ट तंत्र का हिस्सा बनूँ या भ्रष्टाचार के खिलाफ़ उतरूँ.....मन तो यही कह रहा है पर ख़ुद से किया वादा तोड़ना नहीं है.......पढ़ाई करूँ...उलझन तो वक्त खुद ही सुलझा देता है।
शायद जोखू और लौटन को न्याय मिल जाए.....पर उन अनगिनत असहायों का क्या जो ख़ुद के लिए वकील भी नहीं रख सकते..दो वक़्त की रोटी का ठिकाना नहीं कोर्ट में न्याय कैसे खरीदेंगे?
भारत सरकार को "सत्यमेव जयते" की जगह कोई और स्लोगन तलाशना चाहिए...वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह अप्रासंगिक प्रतीत हो रहा है.....

7 टिप्‍पणियां:

  1. सचमुच गरीबी अपनें आप एक रोग है।गरीबों के पक्ष में खड़ा होना एक पुण्य है।कहानी अच्छी लगी।

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  2. सचमुच गरीबी अपनें आप एक रोग है।गरीबों के पक्ष में खड़ा होना एक पुण्य है।कहानी अच्छी लगी।

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  3. सचमुच आपकी रचना बहुत ही अच्‍छी है। पढ़कर अच्‍छा लगा।

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  4. सटीक आलेख ... देखा जाए तो समाज की ऐसी हालत कई सौ वर्षों से है ... और पता नहीं कब तक रहने वाली है ...
    तो क्या सरकार, धर्म, समाज सब बातें खोखली हैं ... शायद हैं ही ...

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  5. देखा जाए तो गरीबी स्वयं में एक अभिशाप है ! आपने पुलिस के विषय में भी बहुत कुछ लिखा है , जहां तक मैं जानता हूँ आप इसी विभाग में हैं ! एक जाती विशेष का दबदबा उत्तर प्रदेश में सरकार आने पर बहुत बढ़ जाता है लेकिन भगवान होता है ! बेहतर आलेख सुमित जी

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  6. शुक्ल जी मैं भी इन सबका शिकार हुआ हूँ .....अच्छा लगा मन की बातें आपने लिखा!

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