******आलोचना और रिश्ते************;
ऑस्कर वाईल्ड का कहना है कि " आलोचना
आत्म-कथा का एकमात्र विश्वसनीय रूप है|"
ऑस्कर का यह कथन सटीक है क्योंकि;
आलोचना; आलोचना के विषय-वस्तु से ज्यादा
आलोचक के बारे में व्याख्या करती है| यहॉ तक
कि मनोवैज्ञानिक किसी की आलोचना
सुनकर ही आलोचक का एक visual diagnostic
hypothesis तैयार कर सकते हैं|
आलोचना John gottman के उन चार प्रसिद्ध
apocalypse घुड़सवारों में से एक है;जो ९०% से
भी अधिक सटीक बैठती है| बाकी तीन अन्य
stonewalling, defensive, and contemptuous
प्रकृति से भी अधिक घातक है!
आलोचना रिश्तों के लिये घातक हो जाती
है जब यह-
*व्यक्ति के चरित्र अथवा व्यक्तित्व पर आक्षेप
करता हो; अथवा;
*किसी प्रकार का आरोप लगाती हो|
*आलोचना सुधारों पर आधारित न हों|
*"एकमात्र right way" पर आधारित आलोचना|
*अनादर या अवमूल्यन(Belittling.)|
घनिष्ठ रिश्तों में ;अधिकॉश मामलों में बहुत
नगण्य विषय से प्रारम्भ होकर;समय के साथ-२
आत्म-अवनति के साथ-२ increasing resentment
तक पहुंच जाता है|
ऐसा देखा गया है कि,जिसकी आलोचना की
जाती है वह व्यक्ति नियन्त्रित महसूस करने
लगता है; यह नियन्त्रण आलोचक को अधिक
frustrated करता है; जिसके परिणाम -स्वरूप,
आलोचक और अधिक अनियन्त्रित होकर
आलोचना करने लगता है; और इसी प्रकार
आलोचना का शिकार व्यक्ति अधिकाधिक
नियन्त्रित होता चला जाता है|
आलोचकों की यह आत्म-अवनति एक आवश्यक
तथ्य का निष्पादन करती है;आलोचना के
द्वारा किसी भी प्रकार का स्वीकार्य
व्यावहारिक परिवर्तन लाने में; आलोचक
पूर्णतया असफल रहता है| कोईअल्पकालिक
लाभ आलोचक को मिल भी जाये तो इस
लाभ को resentment में तब्दील होने से कोई
रोक नहीं सकता|
आलोचना सदैव निष्फल हो जाती है;
क्योंकि यह ऐसी दो चीजें आरोपित करती है
जिसे मानव-मात्र घृणा करता है:-
**आलोचना गलती का स्वीकरण चाहती
है;और हम स्वीकरण से परहेज करते हैं|
**आलोचना अवमानना (devalued)करती है;और
हम अवमानित महसूस करने से नफरत करते हैं|
.
जबकि लोग गलतियों के स्वीकरण से परहेज
करते हैं;तो हमें उनको गलती स्वीकार करवाने
से बेहतर है कि हम आलोचना के स्थान पर
सहयोग करें | ऐसा लगता है कि आलोचक
मानव-स्वभाव के एक अति-आवश्यक अवयव से
गाफिल होते हैं| यह मानव स्वभाव है कि आप
मान दीजिये ; सहकारिता स्वत: आ
जायेगी;जबकि अवमानना स्वत: एक बाध
(resistant) है|
यदि आप व्यवहार में परिवर्तन चाहते हैं; तो
अपेक्षित व्यक्ति के प्रति मान व्यक्त
कीजिये;और यदि आपको उस व्यक्ति से बाध
(resistance) अपेक्षित है तो आलोचना
कीजिये|
***************************
आलोचक व्यक्ति निश्चित तौर पर इतने
चालाक होते हैं कि वह ये भांप लेते हैं कि
उनकी आलोचना प्रभावी सिद्ध नहीं हो
रही है; फिर आखिर वो यह करते क्यों हैं?
वह ऐसा करते हैं क्योंकि आलोचना "अहं" के
defence का सबसे सरलतम रूप है;हम किसी की
आलोचना इस लिये नहीं करते कि हम किसी
व्यवहार अथवा संव्यवहार(behavior or attitude)
से असंतुष्ट होते हैं| हम किसी की आलोचना
इसलिये करते हैं कि हम उस व्यवहार या attitude
से किसी प्रकार से खुद को अवमानित महसूस
करने लगते हैं|आलोचक बहुत जल्दी अपमानित
महसूस करने लगता है;और ego-defence की जरूरत
भी आलोचक को ज्यादा ही होती है||
ऐसा पाया गया है कि वास्तव में आलोचक
अपने बचपन में ही अपने अभिभावकों;भाई-ब
हनों या दोस्तों के द्वारा आलोचित होते
रहते थे;आलोचना विशेषतया छोटे बालकों के
लिये अधिक कष्टदायक हो सकती है| बच्चे
आलोचना और अस्वीकरण(rejection) में फर्क
नहीं कर पाते; हम उनके सामने आलोचना तथा
अस्वीकरण को स्पष्ट करने का कितना भी
प्रयत्न क्यों न कर लें;बच्चों को इस अन्तर की
समझ ही नहीं होती||"आप अच्छे बच्चे हो परन्तु
आपका यह व्यवहार सही नहीं है" इस प्रकार
का स्पष्ट अन्तर ही उनके मनोभावों को
नियन्त्रित कर सकता है|
दस साल से कम उम्र के किसी बालक के लिये
किसी भी आलोचना का एक-मात्र अर्थ
होता है कि वह बुरा बच्चा है और अयोग्य है|
चाहे आलोचना कितनी भी soft paddled क्यों
न हो||
***जीवन व मृत्यु का प्रश्न***
.
बच्चा जिन्दा रहने( survival )रहने के लिये
सिर्फ यही कर सकता है कि वह अपने
अभिभावकों से भावनात्मक रूप से जुड़ा रहे|
आलोचना के प्रभाव स्वरूप बच्चा जब स्वत: को
उस भावनात्मक जुड़ाव के लिये अयोग्य पाने
लगता है और यह स्थिति काफी हद तक जीवन
और मृत्यु का प्रश्न खड़ा कर देती है|ऐसी
परिस्थिति में बालक आलोचना की असह्य
वेदना को कम करने के लिये, स्व-आलोचना के
पथ पर चल पड़ता है
क्योंकि खुद को दिया गया दर्द "अपनों" के
अवाञ्छनीय rejection से कहीं अच्छा होता है|
प्रारम्भिक किशोरावस्था में वही बालक
खुद को "आक्रमक"तौर पर प्रस्तुत करने लगता
है-जो अधिक शक्तिशाली आलोचक बना
देता है|किशोरावस्था के आखिरी चरण में
वही बालक स्वयं एक प्रखर आलोचक के तौर पर
उभरता है| प्रत्येक आलोचक प्रारम्भ में आत्म-
आलोचक होता ही है|आलोचक जितना कठोर
अन्य लोगों के प्रति होता है;निश्चित तौर
पर स्वयं के प्रति भी उतना ही कठोर होता
है|
आलोचना बनाम प्रोत्साहन
( Criticism vs. Feedback)
आलोचकों का यह भ्रम सदैव बना रहता है कि
वह आलोचना के जरिये लोगों को
प्रोत्साहित करते हैं;जबकि स्थिति भिन्न
होती है; वास्तव में आलोचना और प्रोत्साहन
के भेद को इस प्रकार समझा जा सकता है:-
*आलोचना केन्द्रित होती है कि "गलत क्या
है?" (उदा•तुम फीस जमा क्यों नहीं कराते?)
जबकि प्रोत्साहन केन्द्रित होता है कि "
सुधार कैसे किये जायें"(उदा• चलें फीस जमा
कर आयें)
*आलोचना की विषय वस्तु किसी के
व्यक्तित्व के बारें में कुछ "बुरी" बातें होती हैं
(उदा•तुम कुन्द-बुद्धि और आलसी हो|)
प्रोत्साहन व्यवहार पर केन्द्रित होता है न
कि व्यक्तित्व पर|(उदा•क्या हम फीस जो
बाकी रह गई हैं;उन्हें निपटाते चलें)
*आलोचना अवमानना करती है(e.g.यह तुमसे
नहीं होगा)
प्रोत्साहन हौसला बढ़ाती है(e.g.मुझे पता है
आप काबिल हैं ;परन्तु हमदोनों मिलकर इसे
आसानी से निपटा सकते हैं|)
*आलोचना में आरोप छुपा होता है(जैसे-ये
आर्थिक तंगी तुम्हारी वजह से आई है)
प्रोत्साहन भविष्य पर फोकस करता है(उदा•
हम इस तंगी से निकल सकते हैं यदि हम दोनों
यह चीजें छोड़ दें|)
* आलोचना नियन्त्रण करने की कोशिश है(मैं
जानता हूं कि सही क्या है? मैं तुमसे ज्यादा
पढ़ा हूं)
प्रोत्साहन दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान
करता है-(e.g.मैं आपके मार्ग-चयन के अधिकार
कद्र करता हूं;भले ही मैं इससे सहमत नहीं हूं|
*आलोचना अवपीड़क(coercive) होती है(तुम
वही करोगे जो मैं चाहता हूं नहीं तो
परिणाम भुगतना पड़ेगा)
प्रोत्साहन किसी भी कीमत पर coercive
नहीं हो सकती(उदाहरण-हमें पता है कि
मिलकर ऐसा रास्ता निकाल लेंगे;जो हम
दोनों के लिये अच्छा होगा)|
प्रोत्साहन के लिये सावधानियॉ
यदि आप गुस्से अथवा क्षोभ में हैं तो feedback
न दें| क्योंकि वह आलोचना के श्रेणी में आयेगी
क्योंकि लोग आपके "आशय" का नहीं आपके
emotional tone के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं|
*प्रोत्साहन सदैव दिल से दें;दिमाग से नहीं|
.
*हमेशा सुधारों पर केन्द्रित रहें|
*ऐसे व्यवहार पर ध्यान दें जो अपनों के लिये
उपयुक्त न हों|
*परिवर्तनों को बढ़ावा दें न कि
आत्मविश्वास गिरानें में विश्वास रखें|
*गम्भीरतापूर्वक मदद करनें की पेशकश करें|
*दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान करें|
*हमेशा अपने माफिक कार्य न करने पर या
किसी भी गलती पर दण्ड अथवा प्यार न करने
की धमकी बच्चों को कभी भी न दें|
तो यदि आप आलोचक व्यक्ति हैं तो इससे पहले
कि यह वृत्ति आपके रिश्तों का नाश कर दे;
बदल लें खुद को......
||शुभमस्तु||
-अनुराग शुक्ल
( प्रस्तुत आलेख मेरे भइया ने लिखा है। भइया अधिवक्ता हैं और मेरे शिक्षक भी। मेरी लेखन शैली, थोडा बहुत दर्शन जो भैया से सीखा है और भी बहुत कुछ...मेरे पथ प्रदर्शक हैं भइया।
नहीं जनता कि मेरा भविष्य कैसा है पर मेरे भविष्य के नींव की ईंट भइया हैं...इमारतें तो मुझे गढ़नी है।उनके प्रति कृतज्ञता का यही एक मात्र साधन है। है न? )
बहुत सुंदर .
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : शब्दों की तलवार
भारतीय नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार 22-03-2015 को चर्चा मंच "करूँ तेरा आह्वान " (चर्चा - 1925) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंअमूमन आलोचक सार्थक बदलाव के लिए नहीं बल्कि अनादर और आरोप मढने के लिए करते हैं इसलिए चाहे बच्चा हो या बड़ा आलोचना सहन नहीं कर पाते. बहुत सार्थक लेख जिससे एक सकारत्मक दृष्टि विकसित हो सकती है. आपको और आपके भाई को बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्रेरक लेख।सचमुच "आलोचना"किसी व्यक्ति के सकारात्मक पहलू पर एक नकारात्मक प्रहार की तरह है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर लेख के लिये आप को एवं आप के भैया को धन्यवाद।
बहुत ही प्रेरक लेख।सचमुच "आलोचना"किसी व्यक्ति के सकारात्मक पहलू पर एक नकारात्मक प्रहार की तरह है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर लेख के लिये आप को एवं आप के भैया को धन्यवाद।
बहुत ही प्रेरक लेख।सचमुच "आलोचना"किसी व्यक्ति के सकारात्मक पहलू पर एक नकारात्मक प्रहार की तरह है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर लेख के लिये आप को एवं आप के भैया को धन्यवाद।
आलोचना की विषय वस्तु किसी के
जवाब देंहटाएंव्यक्तित्व के बारें में कुछ "बुरी" बातें होती हैं
(उदा•तुम कुन्द-बुद्धि और आलसी हो|)
प्रोत्साहन व्यवहार पर केन्द्रित होता है न
कि व्यक्तित्व पर|(उदा•क्या हम फीस जो
बाकी रह गई हैं;उन्हें निपटाते चलें)
*आलोचना अवमानना करती है(e.g.यह तुमसे
नहीं होगा)
प्रोत्साहन हौसला बढ़ाती है(e.g.मुझे पता है
आप काबिल हैं ;परन्तु हमदोनों मिलकर इसे
आसानी से निपटा सकते हैं|)
*आलोचना में आरोप छुपा होता है(जैसे-ये
आर्थिक तंगी तुम्हारी वजह से आई है)
प्रोत्साहन भविष्य पर फोकस करता है(उदा•
हम इस तंगी से निकल सकते हैं यदि हम दोनों
यह चीजें छोड़ दें|)
ऐसा कहते हैं मित्र कि मनुष्य को आलोचना से ही ज्यादा सीख मिलती है ! अगर किसी को तरक्की करने से रोकना है तो उसकी आलोचना मत करिये , वो स्वतः ही असफल हो जाएगा ! बेहतरीन लेख
अभिषेक जी आपने जो आलोचना के बारे में बताया है ही अच्छा है अभिषेक जी अब आप हिंदी में बहुत ही आसान रूप से शब्दनगरी पर भी लिख सकते हैं वहां पर भी आत्म-सुधार एवं आत्म-आलोचना !!!!!!!!!@@ जैसी रचनाएं पढ़ व लिख सकते हैं
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