शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

एक ख़त तुम्हारे नाम

कुछ कहना चाहता हूँ तुमसे, कुछ सुनाना चाहता हूँ तुम्हे शायद मेरा बोझ हल्का हो जाए तुम्हे कुछ सुनाकर।
बातें तो ढेर सारी हैं सुनाया तो महीनों गुजर जायेंगे। जानता हूँ तुम अपने दुनिया में मसरूफ़ हो मुझे सुनने के लिए तुम्हारे पास वक्त कहाँ?
ख़ुशी है क़ि तुम्हारी मसरूफियत बढ़ रही है साथ ही साथ मुझसे अजनबियत भी।
सुना है क़ि वक़्त बहुत तेज़ी से बदलता है और वक्त का पीछा करते-करते कभी-कभी इंसान भी बदल जाते हैं। बदलाव कभी भी अप्रत्याशित नहीं होता बल्कि परिस्थितिजन्य होता है। तुम्हारी जगह अगर मैं भी होता तो शायद बदल गया होता पर क्या करूँ मुझे मेरे  हालात से मोहब्बत जो है बदलता कैसे?
तुम्हे देखकर एहसास होता है कि कामयाबी होती क्या है। तुमने मुझे कामयाब और नाकामयाब लोगों के "अपनों" का मतलब समझाया वरना अब तक इस बड़े फर्क से मैं अनजान रह जाता।
एक कामयाब इंसान के लिए "अपनों" का मतलब माँ-बाप, पत्नी और बच्चों तक सिमटा होता है वहीं नाकामयाब इंसान पूरी दुनिया को अपना मानता है और शायद यही वजह है उम्मीदों के टूटने का। हर कोई अपना तो नहीं हो सकता न? खैर ग़लतफ़हमी की कुछ तो सजा मिलनी चाहिए।
इंसान की एक फितरत होती है कि उसे परेशानी में अपने कुछ ज्यादा ही याद आते हैं। बात खुद के परेशानी की हो तो तो किसी के मदद की जरुरत नहीं पड़ती, मुसीबतों से उबरने का हुनर इंसान सीख कर पैदा होता है पर जब बात किसी 'अपने' के जिंदगी की हो तो डर लगता है कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए। इंसान  डरता है तो सिर्फ अपनों की वजह से वरना गुरुर तो पुरखों की धरोहर होती है।
हम मदद उसी से मांगते हैं जिसे खुद से बेहतर पाते हैं तुम्हे बेहतर मानना मेरे जिंदगी की बड़ी गलती थी। तुम्हारे बेहतर कामयाबी के वजह की वज़ह नहीं जानी।
शुक्रिया! इस तल्ख़ हक़ीक़त से रूबरू कराने के लिए कि " कामयाबी मिलने पर 'अपनों' की परिभाषा सीमित और नाकामयाब होने पर व्यापक हो जाती है।"
परेशानियां किसके जिंदगी में नहीं आतीं? इस दौर से कभी तुम भी गुजरे हो, हज़ारों जख़्म तुम्हे भी लगे हैं...अवसाद में तुम भी पागल हुए हो जहाँ तक मैं तुम्हे जानता हूँ।
अतीत को टटोलो तो शायद तुम्हे मेरे आज का एहसास हो जाए।
तुम्हारे संघर्ष के दिनों में भेजी गयी चिट्ठियों को मैंने आज भी सहेज कर रखा है जब अवसाद तुम पर हावी था और तुम असहाय बन वक़्त को कोस रहे थे, तुम्हारा कन्धा थपथपाने वालों में शायद सबसे करीब मैं था।
आज मुझे तुम्हारी जरुरत थी और तुमने मुझे सुनना तक ठीक नहीं समझा।
तुमसे क्या कहूँ तुम तो व्याख्याता हो। तुम्हारे दृष्टान्त तो सजीव प्रतीत होते हैं लोग खो जाते हैं तुम्हारे शब्दों के सम्मोहन में; तुम्हारी तुलना में मैं तो कहीं नहीं ठहरता  पर तुम्हे एक राय देना चाहता हूँ सुन लेना अगर मन करे तो। मेरे लिए बोलना मुश्किल है आख्यान कहाँ दे पाऊंगा फिर भी कोशिश कर रहा हूँ।
जानते हो, "जब सूरज तपता है तो  ढलता है।" विधाता का शाश्वत नियम है 'उत्थान और पतन।' सीधे शब्दों में जो उठता है वो गिरता जरूर है और जो गिरता है उसका उठना भी तय है। जीवन उत्थान और पतन का समुच्चय है, महत्वपूर्ण है उत्थान और पतन का समन्वयन। नीति कहती है कि अहंकार पतन का हेतु है। अहंकार मत आने दो भले ही सफलता के सर्वोच्च शिखर पर कदम हों,सही मायने में तब सही समय होता है अपने कदम और मज़बूती से जमाने का, स्थिर होने का क्योंकि जो शिखर से गिरता है वो गर्त में जाता है। शिखर पर होना बहुत आम बात है। कोई भी परिश्रम करके वहां पहुँच सकता है, ख़ास बात है शिखर पर टिकना-शिखर का पर्याय हो जाना।
सफलता सहेजी जाती है सहेजना ही सफलता को अमरत्व देती है। इस अमरत्व की औषधि क्या है पता है?? "विनम्रता"।
जो विनम्र नहीं उसकी सफलता छड़िक होती है तुम्हे तो ऊपर जाना था फिर यह ओछी हरकत क्यों??
शायद तुम मुझे ये कहो कि "लोग अपनी कमियों को छिपाने के लिए दर्शन का सहारा लेते हैं"। ऐसा मत सोचना ये दर्शन नहीं यथार्थ है।
तुम मेरे नितांत अपने हो, अगाध प्रेम है तुमसे। हाँ! तुम मुझे अपना मानो ऐसी प्रत्याशा नहीं है मेरी। चाहता हूँ तुम सफलता के पर्याय बनो पर तुम्हारा व्यवहार मुझे शशंकित करता है।आगे तुम्हारी इच्छा।
     ये निरर्थक बातें मैं तुमसे न कहता तो मन पर एक बोझ रहता आज कह कर थोड़ी राहत मिली है।
एक एहसान है तुम्हारा मुझ पर। तुमने मुझे हकीकत से रूबरू कराया, मुझे मेरी औकात दिखाई शायद तुम मेरे काम आते तो मैं निष्क्रिय रह जाता। अब तो चोट लगी है मरहम खुद ही लगाना है।
हो सकता था कि मैं परिजीवी बन जाता पर अब आत्मनिर्भर होने की धुन सवार है मुझ पर। विश्व के आश्रयदाता तो  भगवान हैं उनके अलावा किसी और के होने का सवाल ही नहीं पैदा होता, सोच रहा हूँ इस पुनीत कार्य का माध्यम बन जाऊँ।
हाँ! तुम्हारा एहसान मुझे याद है आज ही निभा दिया तो कृतघ्नता होगी और मैं कृतज्ञ बनना चाहता हूँ कृतघ्न नहीं।
जब तुम्हे मेरी जरुरत होगी मैं नरक से भी दौड़ा आऊँगा आख़िर तुम मेरे अपने जो हो।
शुक्रिया! मुझे आईना दिखाने के लिए।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

ख़्वाब

 कभी-कभी ख़्वाब भी 
  बिखरे पत्तों की 
 तरह होते हैं 
 कहीं भी-कभी भी 
 बहक जाते हैं 
 हवाओं से, 
 वजूद  तो है 
 पर 
  बेमतलब  
 खोटे सिक्के की तरह 
  जो होता तो है 
  पर 
 चलता नहीं 
 पत्तों का क्या है 
  इकठ्ठे  
 हो सकते हैं  
 लेकिन ख़्वाब? 
  हों भी कैसे 
 इतने टुकड़ों में  
 टूटतें हैं  
 कि 
 आवाज तक नहीं आती. 
 टूटे ख़्वाब  
 दुखते तो हैं  
 पर  
 जोड़ने की   
 हिम्मत नहीं होती 
 जाने क्यों 
 खुद की  
 बनाई हुई  
  कमज़ोरी 
 हावी हो जाती है  
 खुद पर, 
 ख़्वाब सहेजे   
 नही जाते  
 जिंदगी कैसे  
 सम्भले 
 हम इंसानों से?? 

प्रच्छन्न

 जब रहें हमको छोड़ चुकें 
 कदम थके और हारे हों, 
 जब अंतस में पीड़ा कौंधे  
 और जग प्रतिकूल हमारे हो,  
 तब मन प्रच्छन्न नास्तिकता की 
 मैली चादर को ढ़ोता है,  
 पीड़ा की सरिता बहती है 
 और हृदय अनवरत रोता है।।