मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

अधूरी हसरत


जिनके याद में ताजमहल बना
उनकी रूह तो तड़पती होगी
संगमरमर की चट्टानों
के नीचे
जहा हवा भी आने से डरती है
वहां दो रूहें कैसे
एक साथ रहती होंगी ?
मुमताज को जीते जी तो कैद होना पड़ा
कंक्रीट की मोटी दीवारों में ,
सब कुछ तो था शायद
आजादी के अलावा ,
ख़ुशी के दो पल मिले हो या न मिले मिले हो
पर कैद तो जिन्दगी भर मिली

उन्हें आजाद कबूतरों को देख कर
उड़ने की चाहत तो थी
मगर सल्तनत की मल्लिका
सोने के पिंजड़े में
कैद थी .
शहंशाह ने उन्हें समझा तो एक खिलौना
उनसे खेला उन्हें चूमा ,
खिलौने के अलावा
कुछ और न थी
मुमताज बेगम ,
उनकी दीवानगी ही थी की
मौत को अपना हमसफ़र बना लिया
शायद मौत के आगोश में आजादी दामन थाम ले ,
शायद खुली हवा , और
प्रकृति के प्रेम का
सानिध्य मिले ,
पर हसरते कब पूरी होती हैं ?
दफ़न हुई तो वह पर भी
रूह तड़पती रह गयी

पथ्थरों नीचे

एक अधूरी टीस भारती ..........

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

प्रतिघात



मेरे मन में वेदना है
विस्मृत सी अर्चना है ;
आँखे ढकी हैं मेरी
मुझे विश्व देखना है.
नयनो पे है संकट
पलकें गिरी हुई हैं;
कुछ विम्ब भी न दिखता
दृष्टि बुझी- बुझी है.

संध्या भी बढ़ रही है
मुझे सूर्य रोकना है,
इस अन्धकार जग में,
नया तूर्य खोजना है.
नैराश्य की दिशा में ,
अब विश्व चल पड़ा है
नेत्र हीन होकर
बस युद्ध कर रहा है.
न मानव है कहीं पर
मानवता न शेष अब है,
आतंक के प्रहर में
भयभीत अब सब हैं.
कोई उपाय है जो
शान्ति को बचा ले?
भूले हुए पथिक को,
इक मार्ग फिर दिखा दे.
परिणाम हीन पथ पर
क्यों बढ़ रहे कदम कुछ?
ये विषाक्त मानव
क्या कर रहा नहीं कुछ?
भयाक्रांत हैं दिशाएँ
किसे दर्प हो रहा है?
किन स्वार्थों से मानव
अब सर्प हो रहा है?
मानव की बस्तियों में
विषधर कहाँ से आये?
सोये हुए शिशु को
चुपके से काट खाए?
क्या सीखें हम विपद से
असमय मृत्यु मरना?
या शक्तिहीन होकर,
असहाय हो तड़पना?
बिन लड़े मरे तो,
धिक्कार हम सुनेंगे,
कायर नहीं कभी थे,
तो आज क्यों रहेंगे?
हिंसा के पुजारी
हिंसा से ही डरेंगे,
प्रतिघात वो करेंगे,
संहार हम करेंगे.
.”प्रति हिंसा हिंसा न भवति” .